<<< संगम में बद्री लाल के रिक्शे पर >>>
पुण्डरीक मिश्र जाने कहां से उसे निकाल लाये। हम शैलेश और पुण्डरीक जी के साथ उनके नमो एप्प के अड्डे से संगम की ओर चल रहे थे। एक-डेढ़ किलोमीटर रही होगी दूरी। बीएसएफ के उस नगा सिपाही ने अपनी नैसर्गिक मुस्कान और दृढ़ता से हमारा स्वागत किया था और हमारे वाहन को आगे जाने से रोक दिया था। उस सिपाही की दृढ़ता का असर था, या उसकी मुस्कान का, कह नहीं सकते। वाहन छोड़ आगे हम पैदल बढ़े पर शैलेश और पुण्डरीक जी को शायद लगा कि मुझे चलने में दिक्कत हो रही है। मेरे बांये घुटने में थोड़ा दर्द था और बांया पंजा भी कुछ सूजा हुआ था। उसके कारण शायद कुछ भचकता चल रहा होऊं।
और उस रिक्शे वाले को पुण्डरीक जी बुला लाये।
रिक्शा पुराना इलाहाबादी साइकिल रिक्शा था, नई काट का ऑटो या बिजली वाला टोटो नहीं। एक तरीके से बेहतर भी था। पर्यटन के लिये अगर कार्बन फुटप्रिंट का अपराधबोध हो तो गंगा माई को कह सकते हैं कि अंतिम डेढ़ किलोमीटर तो हम बिना इंजन वाले वाहन के आये हैं!
सर्दी होते हुये भी रिक्शा वाले ने एक बार अपने गमछे से मुंह पोंछा और हमें बिठा कर उचक कर रिक्शा चलाने लगा। हिंदी बोलने की कोशिश कर रहा था, पर बोल अवधी में ही रहा था – “बहुत मेहनत परथ साहेब। बहुत दुरियाँ त नाही बा, पर चढ़ाई बा।” वह शायद अपनी मेहनत बता कर अपने प्रति करुणा और उसके अनुपात में किराया मिलने की सम्भावना बढ़ा रहा था।
“केहर घर बा तोहार? इंही इलाहाबाद क हयअ कि बाहेर क?”- मैने पूछा।
“करछना क हई साहेब।”
करछना यहां से तीस किमी पूर्व में कस्बा है। मेरी पत्नीजी ने कहा कि हम लोग भी वहीं के हैं। सिरसा के। सिरसा का नाम सुन कर उसने अपना गांव और बारीकी से बताया। वह भीरपुर के पास के किसी गांव का है। रोजी कमाने के लिये इलाहाबाद में रिक्शा चलाने का काम करता है। मुट्ठीगंज के किसी रिक्शा खटाल से शिफ्ट के किराये पर रिक्शा लेता है और आजकल संगम के आसपास चलाता है। तीर्थाटक (तीर्थयात्री+पर्यटक) लोग सामान्य से ज्यादा ही किराया-बक्शीश दे देते होंगे।
उसका गांव मेरे गांव से पंद्रह किलोमीटर दूर होगा। मेरे बाबा इतनी या इससे ज्यादा दूरी घर-कुटुम्ब की लड़कियों के लिये वर तलाशने पैदल चले जाया करते थे। टप्पा चौरासी[1] तो उनका पूरा जाना पहचाना इलाका था। शायद वे उसके गांव को भी जानते रहे हों। बाबा तो सन 1987 में दिवंगत हुये। अब कोई इलाके के बारे में मुझे बताने वाला नहीं है। पर मुझे लगा कि सन 1986 में बाबा जी को जब ले कर संगम आया था, तो जो रिक्शावाला था, वह इसी का कोई पूर्वज रहा होगा। रिक्शा, रिक्शेवाला और बाबा पंडित महादेव प्रसाद पांडेय की स्मृति सब हिलने मिलने लगे मन में।
रिक्शे वाले ने नाम बताया बद्री लाल। बब्बा होते तो इतना भर बताने पर तुरंत प्रश्न करते – “बद्री लाल? कौन जात?” बाबा के लिये किसी व्यक्ति की जाति जानना पूरे परिचय का अभिन्न अंग होता था। ऐसा नहीं कि किसी जाति से वे उपेक्षा या हिकारत से पेश आते रहे हों, पर जानना जरूर होता था उन्हें।
मुश्किल से पांच मिनट का साथ रहा होगा बद्रीलाल के साथ। दूरी ही कुछ खास नहीं रही होगी। एक किलोमीटर से कम। पत्नीजी ने उसे दो सौ दिये। शैलेश ने कहा कि एक रुपया और दे दिया जाये। एक नहीं था तो दस रुपये और दिये। दो सौ दस रुपये तो बद्रीलाल की अपेक्षा से ज्यादा थे। उसने रुपये माथे से लगाये। पत्नीजी के उतरने के बाद मेरे रिक्शे से उरतने के पहले शैलेश ने एक चित्र ले लिया। वह चित्र ही आधार बना यह लिखने का।
शैलेश ने बीस पच्चीस चित्र और वीडियो हमारी संगम यात्रा पर लिये और मुझे भेजे हैं। उन सब के आधार पर पांच सात आख्यान तो मन में कुलबुला रहे हैं। आज बद्रीलाल से शुरुआत की है; एक एक कर अन्य भी लिखे जायेंगे। आखिर पढ़ने वाले भी तो एक साथ 600-700 से ज्यादा शब्द नहीं पढ़ते। उकता कर चल देते हैं।
अच्छा रहा, बद्रीलाल के बहाने बब्बा की याद आई। कौन जात रहा होगा बद्रीलाल? मैने पूछा नहीं!
[1] – टप्पा चौरासी मेरे गांव के आसपास के शायद चौरासी गांवों का मालगुजारी का इलाका रहा हो। टप्पा और परगना मुगल कालीन क्षेत्रों का वर्गीकरण है। एक परगना लगभग 100 गांवों का होता था। टप्पा उससे छोटी इकाई है। पर गांगेय क्षेत्र में आबादी घनी होने के कारण टप्पा चौरासी जनसंख्या के हिसाब से किसी परगना से ज्यादा आबादी का रहा होगा।
#महाकुम्भ25 #ज्ञानमहाकुम्भ


“पढ़ने वाले भी तो 600-700 शब्दों से अधिक नहीं पढ़ते” यदि आप पूरे भारत की रेल पटरी के नाप से भी अधिक शब्दों का लेख लिखें तो भी सरस बना रहता है और पढ़ा जाएगा। भदेस शब्दों का तड़का भाषा में बतर्ज़ श्रीलाल शुक्ल नई जान डाल देता है। अनूप शुक्ल की भी यही विशेषता है।
प्रेम सागर की यात्रा श्रृंखला से थोड़ी ऊब ज़रूर हुई। समस्या लेखनी की नहीं वरन उसका एकमात्र कारण विषय वस्तु और प्रसंग एकरूपता रही। फिर भी धर्मभीरू होने के कारण कड़वी दवा की तरह निगल ही ली। बने रहिए, परोसते रहिए। हमारी भूख का कोई ओर छोर नही है।
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आपके उत्साह वर्धन के लिये बहुत धन्यवाद अनाम मित्र जी। विषय एकरूपता से बचा जायेगा!
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