संगम तट पर अधेड़ महिलायें

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संगम तट पर भीड़ के हर आदमी औरत की अपनी कहानी होगी। पूरे भारत से आई कहानियां। सब अलग अलग; केवल कुछ ही आपस में गड्ड मड्ड होती। दक्षिण के लोग एक साथ हैं। महिलायें अलग से पहचान में आती हैं। आदमी लुंगी ऊपर उठा कर आधे से बांधे से चीन्हे जाते हैं। बंगाली कोचो कोचो बतियाते। मराठी, गुजराती कहीं और होंगे, आसपास नहीं थे। यूपोरियन और बिहारी तो बहुत से थे।

एक अपेक्षाकृत सम्पन्न ग्रुप था। वे लोग दो बड़ी कटोरियों में आग जला कर हवन टाइप कुछ कर रहे थे। अचानक एक दर्जन पुलीस वाले अवतरित हुये। उन लोगों को समझाया कि सब जगह पुआल बिछा है। जरा भी आग लग गई तो विकराल हो सकती है। पर सम्पन्नता उनसे सिर चढ़ी हुई थी। और कहीं होता तो पुलीस वाले इतने थे कि इन हवनार्थियों को लाठी से टाइट कर देते। पर यहां समझाने से ही काम चलाया। पुलीस वालों ने खुद पानी ला कर उनका हवन यज्ञ विध्वंस किया। अनगिनित लोग हैं। उनमें ज्यादातर सफाई और सुरक्षा के प्रति असावधान और लापरवाह हैं। पुलीस सुरक्षा में लगी है और सफाई कर्मी सफाई करने में। बड़ा कठिन काम है। असावधानी और लापरवाही अभी भारी पड़ती नहीं दीखी, पर जंग कांटे की है।

मैं कैलाश गौतम के “अमवसा क मेला” के चरित्र ढ़ूंढने का प्रयास करता हूं, पर सफलता लगभग नहीं मिलती। अब वे धोती धारी, गमछे का साफा बांधे, पुरानी धुरानी सदरी पहने लोग नजर नहीं आये। वे ठेठ ग्रामीण महिलायें, कोंरा में गदेला (कमर में नन्हा बच्चा) लिये कम उम्र विवाहितायें भी नहीं दिखीं। गांव वाले भी पैण्ट पहने स्मार्ट फोन लिये दिखे। गठरी मोठरी की बजाय पिट्ठू ज्यादा देखे। ये पिट्ठू एक पूरी पीढ़ी की रीढ़ में आगे की ओर झुकाव ला देंगे। मैदानी इलाके में तो पिट्ठू की बजाय सिर पर रखी गठरी बेहतर तरीका है सामान ले कर चलने का। पर मेले में देख लगा कि वह बड़ी तेजी से आउट ऑफ फैशन हो गया है।

मेरी पत्नीजी मुझे समझाती हैं कि अमवसा के मेला वाले गंवई चरित्र ऑफ पीक स्नान दिनों पर नहीं मिलेंगे। वे तो अमवसा – माघ अमावस्या के स्नान के दिन ही दिखेंगे। हर गांव से लोग अपनी गठरी लिये, पैदल या ट्रेन में पिस पिसा कर संगम पंहुचेंगे। जल में डुबकी लगा कर लाई, चिवड़ा, ढ़ूंढी, लेड़ुआ खा कर, अपनी सामर्थ के हिसाब से चाट पकौड़ी और पिपिहरी खा-खरीद कर लौट जायेंगे। उन लोगों के लिये कोई निमंत्रण नहीं, कोई सोची समझी योजना नहीं। नहान है तो जाना है, बस। वैसे वे लोग अब शायद संगम में कम, पास के भोगांव के घाट पर ज्यादा दिखें। पत्नीजी के अनुसार मुझे अमावस्या के दिन पास के भोगांव के गंगा तट पर जाना चाहिये – अगर तीन चार किलोमीटर पैदल चलने की हिम्मत हो तो।

मेरे पीछे एक अधेड़ महिला दूसरी से कंघी करा रही थी। दोनो के चेहरों से लगता था कि पहाड़ की हैं। शायद गढ़वाली। वे कोई शहरी नहीं लगती थीं। महिला एक स्मार्ट फोन निहार रही थी। मुझे लगा कि वह स्मार्ट फोन के कैमरा का सेल्फी मोड प्रयोग कर रही है, बतौर दर्पण। पर जल्दी ही साफ हो गया कि वह कंघी कराते कराते किसी से वीडियो कॉल पर संगम का हालचाल बयान कर रही थी। अचानक वह उचक कर कैमरा नदी की ओर कर संगम की गतिविधि दिखाने लगी। अमवसा क मेला के चरित्र अब निश्चय ही बदल गये हैं। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग तक करने लगे हैं। युग इतनी तेजी से बदला है कि एक नया अमवसा का मेला लिखने वाला चाहिये!

जब यह महिला वीडियो कॉन्फ्रेंसिग कर इतना कुछ बता या दिखा दे रही है तो इसके वापस जाने पर कुटुम्ब के या गली मुहल्लों के लोग उस पुरानी ललक के साथ मिल कर महीनों उसकी कहानियां सुनेंगे? देखने और उसको बोलने बतकही करने के सारे तरीके बदल गये हैं।

माघ मेला के बदलते चरित्र, बदलते कैनवास का बारीक अवलोकन सोशल मीडिया की रील्स और पोस्ट्स से नहीं हो सकता। वहां तो सब कुछ वाईरल है। मुझे कोई संयत अवलोकन करने वाला और रिपोर्ट करने वाला नहीं मिला। सोशल मीडिया पर ज्यादातर लोग नारसीसिस्ट हैं। अपने ऊपर मुग्ध। … एक बार फिर संगम की भीड़ में घुसने का मुझमें बूता नहीं है पर #गांवदेहात के #आसपास के इंटवा, द्वारिकापुर या भोगांव के अमावस्या के मेले की आबो हवा ली जा सकती है। समझा जा सकता है कि क्या वही है और क्या बदला है।

#महाकुम्भ25 #ज्ञानमहाकुम्भ


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

5 thoughts on “संगम तट पर अधेड़ महिलायें

  1. आपकी इस पोस्ट की एक लाइन ने मुझे साल 2007 में आपकी लिखी जेबी मंघाराम एंड संस के बिस्किट वाली पोस्ट और उस पर मेरा कमेंट मुझे याद दिला दिए।

    संजीत त्रिपाठी

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    1. यह रहा आपका उस पोस्ट पर कमेंट –
      अपन ने भी नई सुने इन कंपनियों के नाम!!दर-असल हम नए जमाने के चिल्हर है, तो पुराने जमाने के थोक लोग ही जानेंगे इनके नाम जिन्होने अपने बचपन में उपयोग किए होंगे ये उत्पाद!!वैसे ज्ञान दद्दा, क्यों बुढ़ापे की ओर सरक रहे हो , ये बुढ़ापे की निशानी है, पुराने दिन और पुराने उत्पादों को याद करके नए जमाने और नए उत्पादों को कोसना, हालांकि आपने कोसा तो नही!! 😉

      मंघाराम एण्ड संस के असॉर्टेड बिस्कुट कहाँ गये?


      ——–
      “पुराने दिन और पुराने उत्पादों को याद करके नए जमाने और नए उत्पादों को कोसना, हालांकि आपने कोसा तो नही!! 😉” – जैसा आपने कहा, याद करने में सतर्क रहूंगा कि नये को कोसना कोई अच्छी बात नहीं! :-)

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      1. हा हा।

        मुआफी।

        दअसल,  दफ़्तर में एक रिपोर्टर ने रायपुर के रेलवे स्टेशन (ग्रेड-1) की पार्किंग और लिफ्ट-स्केलेटर की अव्यवस्थाओं पर एक स्टिंग कर रिपोर्ट लिखी, विजुअल्स भी अच्छे लाए हैं उसने। उसी स्टोरी को आधे घंटे के लायक मांजने की जिम्मेदारी निभानी थी… तो सहकर्मी के साथ प्रोग्राम का नाम सोच रहा था कि आपकी याद आई थी। फिर जब स्टोरी पर काम करना शुरु किया तो मैनें सोचा कि आपको लिख ही दूं, इसलिए दफ्तर में आपका ब्लॉग ओपन कर देख लिया। फिलहाल काम चालू आहे ऑन, रेलवे स्टेशन : व्यवस्था का ‘टेंशन’

        संजीत त्रिपाठी

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  2. सदा की तरह अंत तक बांधे रखने वाली एक और रचना।

    यदि संभव हो तो शीत प्रकोप कम होने पर मचान से संजय उवाच की शैली में भी कुछ कहें।

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