कटका में अटकी ट्रेनें

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कल मौनी अमावस्या के संगम स्नान के समय से रेल यातायात ठिठक सा गया है। पिछली शाम को प्रयाग जाने वाली एक मेला स्पेशल पांच घण्टा खड़ी रही। उसके बाद भी सभी मेला स्पेशल या लम्बी दूरी की ट्रेनें एक दो घण्टा खड़ी रह कर ही आगे जा पा रही हैं। स्टेशन के बाहर रख रख कर भी ट्रेनें आगे बढ़ाई जा रही हैं। किसी तरह यात्रियों को लगे तो कि वे चल रहे हैं।

सवेरे मेरा ड्राइवर अशोक ड्यूटी पर आया तो #गांवदेहात की खबरें ले कर आया। कल अहिराने में लोग संगम से वापस आये तो दो के हाथ पैरों में पट्टियां बंधी थी। संगम की भगदड़ में चोटिल हो गये थे। बभनाने के तेरह लोग संगम नहान से वापस लौटे। वे भी कल सवेरे स्नान कर आये। उनमें से दो तो ‘हेराय (गुम)’ गये थे। बिछुड़ कर वे दो भी किसी तरह वापस लौटे। कटका स्टेशन पर देखा तो वे भी उसी गाड़ी में थे जिसमें बाकी सब। बस अलग अलग यात्रा किये।

स्टेशन पर अटकी ट्रेनों में गांव वाले पानी, बिस्कुट, समोसा, आलू चाप – जो मिल रहा है ला ला कर बेच रहे हैं। पसियान और चमरऊट की महिलायें घर में आलू उबाल कर आलू दम बना कर स्टेशन भेज रही हैं। उनके बच्चे और आदमी खूब कमाई कर रहे हैं। #आसपास की दुकानों और बजरिया की चाय वालों की खूब बिक्री हो रही है। बाबूसराय और महराजगंज से पानी के क्रेट और खाने का सामान लिये लोग आते दिख रहे हैं। बाजार रेट से दुगुना तो कमा ही ले रहे हैं। एक घंटे की मेहनत में 100प्रतिशत कमाई! ऐसा बिजनेस और क्या होगा!

मैं अशोक (अपने वाहन चालक) को ले कर महराजगंज गया। समोसे वाले से पांच सौ के समोसे खरीदे। दुकान वाले को कहा कि कुछ सस्ता दे दे, आखिर मुझे तो स्टेशन पर अटकी ट्रेनों के यात्रियों को ही बांटने हैं। उसने दाम तो कम नहीं किया पर 100 की जगह 104 समोसे मुझे दिये। हम समोसे के थैले ले कर कटका रेलवे स्टेशन आये।

स्टेशन अधीक्षक महोदय, धीरज कुमार पांडेय ने मुझे बैठने को अपनी कुर्सी दी। अशोक और पास ही खड़े विकास बिंद ने तीन नम्बर प्लेटफार्म पर खड़ी लिच्छवि एक्सप्रेस में जा कर समोसे बांटे। ट्रैक पार कर मैं बांटने जा सकता था, पर अपने घुटनों और अपनी विगत अफसरी का ध्यान कर एसएस साहब के कक्ष में बैठे रहना ज्यादा उपयुक्त समझा। समोसे खुद बांटता तो एक फोटो लाइक बटोरने के लिये खिंचवा सकता था!

धीरज ने अपनी सुनाई। स्टेशन पर तीन चार दिन तो बहुत तनाव में बीते। अभी भी तनाव चल ही रहा है। ट्रेनों का कोई भरोसा नहीं कितना रुकेंगी। उनके पैसेंजर अपनी इंक्वाइरी से अलग परेशान करते हैं और कंट्रोल की अपनी डिमांड हैं। “सर, कोई एक्स्ट्रा स्टाफ नहीं पोस्ट हुआ है मेला पीरियड में। एनसी रेलवे (उत्तर मध्य रेलवे) में तो बाकी जोन से भी स्टाफ आया है कुम्भ में सहायता करने को। यहां स्टेशन को अपने रीसोर्स में ही मैनेज करना है।” – धीरज ने बताया।

इस बीच एक रेल कर्मचारी किसी का मेला स्पेशल से गिरा छोटा जिप लगी थैली दे कर गया। बित्ता भर की थैली में एक प्लास्टिक का डिब्बा था और उसमें कुछ गहने थे। गहने ज्यादा कीमती नहीं लगते थे, पर ग्रामीण स्तर से तो उन्हें कीमती ही माना जायेगा। धीरज ने उसे संंभाल कर रख दिया – “कोई मांगने आया तो दूंगा।”

मेला ठेला में गहना गुरिया, सामान गिर जाता है। लोग खो जाते हैं। भगदड़ मच जाती है। रास्ते में खाने को नहीं मिलता। मीलों पैदल चलना होता है। फिर भी लोग दौड़े जा रहे हैं तिरबेनी अस्नान को!

अशोक समोसे बांट कर आ गया है। वह खुद कुछ फीडबैक नहीं देता। मुझे ही पूछना पड़ता है। लिछवि एक्सप्रेस के दो बोगी में घुस कर उन्होने समोसे बांटे। जो भी दिखा उसको एक समोसा दिया। किसी ने मना नहीं किया। लगता है सब को भूख लगी रही होगी। समोसे और होते तो वे भी बंट जाते। पर मेरे पास सेवा का बजट मात्र 250रुपये का था और मैं उसका दुगना खर्च कर चुका था।

लिछवि एक्सप्रेस इस समय कटका में है। इसका भोर में आनंद विहार पंहुचने का समय है। एक दिन लेट चल रही है शायद। और रास्ते में और लेट होगी। जितने यात्री इसमें हैं, उसके दूने प्रयाग में और चढ़ जायेंगे। सब ट्रेने ओपन समय पर चल रही हैं। कौन कब कहां से गुजरेगी और कितना खड़ी रहेगी, कोई नहीं कह सकता।

धीरज को चाय का धन्यवाद दे कर मैं लौटने लगा। धीरज ने पैर छू कर विदा ली। स्टेशन कक्ष में इतना काम था कि उसका बाहर गेट तक सी-ऑफ करने आना उचित नहीं होता।

बाहर मुझे पानी की क्रेट लिये और समोसे की टोकरी लिये लोग बेचने के लिये दौड़ लगाते स्टेशन में जाते मिले। कटका में जहां कोई वाहन नहीं दिखता था वहां चार पांच ऑटो, एक दो कार और कुछ अन्य वाहन नजर आये। मेला ने इस पिद्दी से स्टेशन को भी गुलजार कर दिया है।

वापसी में एक आदमी हमारी कार हाथ दे कर रोकता है। वह लिछवि एक्सप्रेस का पैसेंजर है। वह मेरे ड्राइवर से पूछ्ने लगा कि गांव में कोई कार किराये पर मिल जायेगी? उसे जल्दी गाज़ियाबाद पंहुचना है। आगे उसकी फ्लाइट है। … इस समय किसी को वाया प्रयाग यात्रा करनी हो तो उसे कनेक्टिंग ट्रेन या फ्लाइट या किसी महत्वपूर्ण इंटरव्यू जैसी बात भूल जानी चाहिये। उसे एक किलो मूंगफली, बिस्कुट और तीन चार उपन्यास बैग में ले कर यात्रा करनी चाहिये – जैसा मैं यदा कदा ट्रेन डायवर्शन का शिकार होने पर किया करता था। उसकी भी कुछ कथायें यादों में हैं। पर वे फिर कभी!!

पांच सौ रुपये खर्च कर, अपनी फिलेंथॉपी की इचिंग शांत कर, धीरज की एक कप चाय पी कर मैं घर लौट आता हूं। घर आ कर अपनी चारदीवारी से उचक कर देखता हूं – लिच्छवि एक्स्प्रेस अभी भी खड़ी है। धीरज अभी भी उसे आगे ठेलने का जुगाड़ नहीं बिठा सका है!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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