कल 29 अप्रेल 2025। दूज का चांद आसमान में दिख रहा था, पर शादियां अक्षय तृतीया के हिसाब से “चरचरायमान” थीं। #गांवदेहात में खेत खाली थे तो जहां तहां शामियाने सजे थे। कोई मंदिर के मोटिफ वाले तो कोई ताजमहल का फसाड लिये। इन सजावटी शामियानों के आर्कीटेक्चर पर भी एक शोध सम्भव है। उनके सामाजिक-सामयिक महत्व पर एक आध पीएचडी झटकी जा सकती है।
लोग व्यर्थ ही मैरिज हॉल जैसा कुछ बुक करते हैं। उनकी बजाय खाली खेत के ये शामियाने ज्यादा आकर्षक होते हैं। झकाझक लाइटिंग से जगमगाते ये शामियाने अलकापुरी के सौंदर्य को टक्कर देते प्रतीत होते हैं। अब तो दानवाकार डेजर्ट कूलर्स भी उपलब्ध हैं। गर्मी भी वहां ज्यादा नहीं लगती। बस बारिश न हो, तो ये ताजमहल शादियों समारोहों के लिये उम्दा विकल्प हैं। सस्ते और उम्दा।
मैं अपने गांव से मिरजापुर जा रहा था एक शादी अटेंड करने। रास्ते भर में खेतों में सजे शादी के शामियाने गिनता गया। अठारह तो गिने। ज्यादा ही होंगे।
पिछले दस साल में हाईवे खूब चौड़े हुये हैं पर जितना सड़क बनी है, उसका एक तिहाई ट्रकों और बसों या अन्य वाहनों की पार्किंग में चली गयी है। हमारा परिचालन तंत्र अनेक ब्लॉक्ड आर्टरीज वाले आदमी की तरह बना हुआ है। उसमें जाम लगना अनवरत जारी है।
मिरजापुर के शास्त्री पुल पर रात में ही बड़े वाहन खोले जाते हैं। शाम सात बजे के बाद प्रतीक्षा में खड़े ट्रकों ने एक तरफ का हाईवे बंद कर दिया। आधी हाईवे से सारा ट्रेफिक सामान्य से आधी स्पीड पर गुजर रहा था। उसके अलावा मिरजापुर अपने आप में संकरा सड़ल्ला शहर है। उसमें सड़कें अगर चौड़ी भी हैं तो दोनो ओर पार्क किये गये कार, पिकअप और दो पहिया वाहन तथा दोनो ओर की दुकानों के सड़क को अतिक्रमण करते एक्स्टेंशन शहर को और भी मरीज बनाते हैं। … इस सब के बावजूद भी मैं गूगल मैप की सहायता से थोड़ी बहुत चूक के साथ शादी के स्थल पर पंहुच ही गया।
समारोह में शामिल होना नौजवान के लिये मौज का अवसर होता होगा, मुझ जैसे के लिये अत्याचार होता है। एक कोने पर अपने लिये एक कुर्सी साध ली तो उसे छोड़ कर इधर उधर जाने में कुर्सी छिनने का भय मन में बना रहा। आवाभगत करने वाले सज्जन बिठा कर खिसक लिये। कोई पास बैठा हो तो उससे बातचीत करना भी आसान नहीं – लाउड बजते गानों के बीच संप्रेषण करना कठिन होता है। बार बार आशंका होने लगती है कि बढ़ती उम्र में सुनने की क्षमता तो कम नहीं हो रही?! लघुशंका के लिये शौचालय तलाशना भी मशक्कत है और वहां कि चिरायंध गंध से आशंका बन जाती है कि कहीं यूरीनरी इंफेक्शन न हो जाये।
मेरी पत्नीजी चाहती हैं कि मैं जिंदगी भर अफसरी के ऐंठ में असामाजिक बना रहा, पर अब तो मुझे सामाजिकता निभानी चाहिये। लोगों के शादी-समारोह, मरनी करनी, तेरही, तिलक में शामिल होना चाहिये। मेरे और उनके बीच द्वंद्व में चलती अधिकतर उनकी है। पर अब मुझे लगता है कि इस उम्र में क्षेत्र सन्यास ले लेना चाहिये। घोषित क्षेत्र सन्यास।
बारात आ गई। तीस किलोमीटर दूर गंगा किनारे के एक गांव से आई बारात। लड़की-लड़के वाले दोनो गांव के हैं। पर शादी मिरजापुर नामक शहर से कर रहे हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि शहरी शादी का क्या लाभ? अच्छे वाहन हैं, कम्यूनिकेशन के साधन हैं। तब भी लोग शहर की किचिर पिचिर में शादी निपटाने आते हैं!
बारात की भीड़ ने मुझे और किनारे धकेल दिया। थोड़ा कुछ जलपान कर मैने विदा मांगी और लौट लिया। घर आते आते दस-इग्यारह बज गये। रात की नींद भी उचटी उचटी आई।
शादी के मौके पर कुछ लोगों से मिलना अच्छा लगा, पर कुल मिला कर अनुभव उम्र पर बोझ सा बन गया। क्षेत्र सन्यास लो जीडी।


सामाजिक उत्तरदायित्व निभाते हुए आशीर्वाद देने तो जाना ही होगा आपको :) क्षेत्र सन्यास अब इस समय और परिवेश में संभव नहीं है, अतः वह विचार त्यागनीय (अगर ये सही शब्द है तो) है।
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शब्द तो सही हैं मान्यवर। पर आपका विचार तो अभी हावी है मेरी वृत्तियों पर। जय हो!
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एक लंबे अंतराल के बाद आपका लिखा पढ़ कर अच्छा लगा। शादी के शामियाने परती खेत में, मैंने पहले कभी नहीं देखा जाना था। उम्र के बढ़ते पड़ाव पर कैसे हम मुख्यधारा से किनारे होने लगते हैं, इसका एहसास हुआ।
लिखते रहियेगा ।
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धन्यवाद! जय हो!
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