गर्मी में पौधों की देखभाल

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#घरपरिसर में इतने सारे पेड़-पौधे हैं, इतने गमले, इतनी लतायें कि उनके लिये पानी उपलब्ध कराना गर्मियों में बहुत बड़ा काम है। पत्नीजी सवेरे एक डेढ़ घंटा और उतना ही शाम को देती हैं अपने बगीचे के लिये। फिर भी उन्हें आशंका बनी रहती है किसी नाजुक पौधे के मुरझाने की। उनकी भी उम्र हो रही है। पैंसठ पार हो गई हैं। कभी इस और कभी उस जोड़ में दर्द होता रहता है। फिर भी पौधों की देखभाल में लगी रहती हैं।

मुझे लगता है आधे बीघे के इस घरपरिसर की बजाय अगर शहर में एक छोटा फ्लैट होता, जिसमें छोटी सी बालकनी में एक दर्जन गमले होते तो उनकी देखभाल कितनी आसान होती! यहां तो एक दर्जन छोटे बड़े गमले – या शायद दो दर्जन – तो घर के ड्राइंग रूम में ही रहते हैं, जिन्हें उनकी प्रकृति देख कर अंदर-बाहर करना ही एक बड़ा प्रॉजेक्ट है।

और गमले तो बढ़ते ही जाते हैं। हर महीने आधा दर्जन नये आ ही जाते हैं। पुराने उतने फेज आउट नहीं होते। उसके अलावा कोई गिलास, डिब्बा, छोटी बाल्टी फेंके नहीं जाते। वे गमले में रूपांतरित हो जाते हैं। वे बदरंग होते हैं तो उनकी कंघी-पट्टी की जाती है। उनपर रंग करने के लिये ऑइल पेंट और गेरू आता है। … मेरे घर में मेरी कदर उतनी नहीं, जितनी गमलों-पौधों की है।

ताप बढ़ने से गमले सब पोर्टिको में आ गये हैं। पच्चीस फुट बाई अठारह फुट का पोर्टिको पट गया है हरियाली से। उसमें कुछ गमले तो दो तीन दशक पुराने हैं। मेमसाहब ने रतलाम में – जब मैं वहां पोस्टेड था, तब बनवाये या खरीदे थे। कुछ में तो पौधे भी उस समय के होंगे। वे भारी भरकम गमले घर के सामान के साथ साथ यात्रा करते रहे। वह तो भला हो कि हर स्थानांतरण पर रेलवे सामान ले जाने के लिये एक वीपीयू (एक्सप्रेस गाड़ी में लगने वाला पार्सल कोच) मुहैय्या कराती थी, वर्ना यह सब तो हमें कब के छोड़ने या किसी को दान करने पड़ते। … खैर, पूरा पोर्टिको अंट गया है। सवेरे चाय-अनुष्ठान के लिये हम आजकल गमला-जंगल के बीच बैठते हैं। सब तरफ हरा भरा रहता है।

सवेरे अगर बिजली आ रही होती है और पत्नीजी भोर में ही उठ गई होती हैं तो सवा छ बजे पूरा पोर्टिको गमलों को पानी देने के साथ साथ नहा चुका होता है। बैठते समय हमारे पैरों तले फर्श पानी से भीगा होता है। मिट्टीकी ‘सोंधी’ गंध आती रहती है। चाय में कितनी भी इलायची-अदरक पड़ी हो, गंध मिट्टी की ही आती है। कुल्हड़ की चाय का अंदाज मिलता है।

केवल पोर्टिको और सामने के परिसर में ही पेड़ पौधे नहीं हैं। घर के आगे पीछे कई हैं जिन्हे पानी देना होता है। चालीस-पचास फुट के दो पानी के पाइप घसीटते हुये हर कोने अंतरे में जाती हैं मेमसाहब। रेलवे की नौकरी के दौरान तो चेले बहुत होते थे यह सब करने को। यहां तो सब उन्हें ही करना होता है। गुड़हल फूल दे रहा है। आम और लीची में फल लगे हैं, गुलाब और कारपेट घास को भी पानी चाहिये। पलाश की नई कोंपलें तेजी से पनप रही हैं, उसे भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। पोर्टिको के ऊपर अलमंडा, बोगनबेलिया और चमेली हैं। घर के पीछे कामिनी, चमेली और मधुमालती हैं। इन सब को भी पानी चाहिये। आखिर ये सब घर को ठण्डा जो रखते हैं।

मेमसाहब के लिये काम ही काम है! घर परिसर में बगीचे की देखभाल में ही वे पांच सात हजार कदम चलती हैं। छोटी चार लीटर की बाल्टी से पानी ले जाते हुये व्यायाम भी काफी होता है। बगीचा रीता पाण्डेय जी को फिट बनाता है।

गांव है तो बिजली अपनी मनमर्जी से आती है। कभी रात आठ नौ बजे भी आई तो सारी लाइटें जला कर मेम साहब बगीचे में पानी देने में लग जाती हैं। रात में कीट सोते हैं तो उनें डिस्टर्ब करना ठीक नहीं। वे काट भी लेते हैं। बांहों में सूजन से दिदोरा पड़ जाता है। चुनचुनाहट होती है… पर पौधों को पानी तो देना ही है।

पत्नीजी की बगीचे में मेहनत और लगन को मैं प्रशंसा भरी नजर से देखता हूं। पर उसमें उनका हाथ कम ही बंटाता हूं। शायद मुझे घर परिसर की देखभाल में बराबर की जिम्मेदारी निभानी चाहिये। कब वह समय आयेगा उसका मुझे भी इंतजार है।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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