दिनांक 7 जून
धर्मेश्वर महादेव जंगल के किनारे पर हैं। सवेरे वहां से चल कर तीन किलोमीटर आगे तक जंगल मिला। तब तक मोबाइल का सिगनल भी गायब रहा। जंगल पार होने के बाद सहमता-सकुचाता वह वापस आया। प्रेमसागर की लाइव लोकेशन फिर झलकने लगी।
बाबाजी के भेजे दो चित्र मुझे इस तीन किलोमीटर के प्रतीक से लगे। एक में जंगल से गुजरता रास्ता है और दूसरे में रास्ते के साथ लगा वन विभाग का बोर्ड है, जिसमें बघेरा जैसा कोई जीव बना है। उसके साथ लिखा है – कृपया धीरे चलें 30(किलोमीटर), वन्य प्राणी विचरण क्षेत्र। … शायद धीरे चल कर आप वन्यजीवों की इज्जत करते लगते होंगे। तेज चाल चलना उनपर रौब गांठने जैसा होता होगा।


जंगल खतम हुआ तो बारिश होने लगी। तेज हुई, और फिर और तेज। आसरा तलाशते प्रेमसागर को देवीलाल जी ने देखा। उनके पोता-पोती दौड़ कर अपने घर बुला लाये। वहां केवल बैठने भर को जगह नहीं मिली, देवीलाल जी ने आदर सत्कार किया। उनकी बहू ने हलवा बनाया और साथ में चाय भी। प्रेमसागर ने लगभग चहकते हुये मुझे विवरण दिया मानो कोई लाटरी जीत कर आये हों। वैसे नर्मदा परिक्रमा में पग पग पर लाटरी लगने का ही भाव आता है प्रेमसागर में।
देवीलाल जी का परिवार भरापूरा लगता है। खेती करने वाले लोग। उनके दो बेटे हैं। चित्र में उनके बेटे और पीछे खड़ी उनकी पत्नियां नजर आती हैं। अब यह पता नहीं चलता कि किस पत्नी ने हलुआ बनाया। परम्परा अनुसार तो देवरानी को बनाना चाहिये। ये भी हो सकता है दोनो बहनें हों। बहने होने पर देवरानी-जेठाने के रिश्ते में एक लेयर और चढ़ जाती है।
प्रेमसागर के साथ यही दिक्कत है कि रास्ते में लोगों के साथ मिलते उनके सम्बंधों-रिश्तों की परतें नहीं टटोलते। वे मुझे सीधा सपाट ट्रेवलॉग लिखने का मसाला तो देते हैं पर सम्बंधों के माधुर्य से अनछुये से निकल जाते हैं।

आगे एक नदी का संगम है नर्मदा जी से। नक्शे में नाम है दतौनी (Datauni) पर प्रेमसागर लिखते हैं धतूरी या धतूरा। अब जो हो, उस संगम की खासियत यह है कि उसके सामने नर्मदा के बीच एक टापू है। टापू खूब बड़ा है और उसपर एक किला है। यह जोगा जाट का बनाया 900 साल पुराना किला है। बताते हैं भोगा और जोगा दो भाई थे। चंदेलों ने इन्हें निमाड़ की जागीर दे दी थी। पर जिंदगी तो लड़ने भिड़ने में ही गई। बड़े भाई भोगा का देहांत एक युद्ध में हुआ। छोटे भाई ने किला बनवाया। यह किला शस्त्रागार का काम करता रहा।
जोगा की पत्नी गुर्जरी थी और नर्मदा माई की भक्त थी। रोज नर्मदा स्नान को आती थी। एक रानी रूपमती ने मांडू का रेवाकुंड बनवाया और दूसरी जोगा जाट की पत्नी आज नर्मदा के बीच किले से याद आ रही है।
लगता है आज भी इस इलाके में जाट बहुत हैं। दतौनी नदी पर पुल बनाने का काम चल रहा है। लोगों के आने जाने के लिये नदी में ह्यूम पाइप डाल कर रास्ता बना दिया गया है। पुल का काम करने वाले लोगों और आने जाने वालों के लिये कपिल जाट जी ने एक दुकान खोल रखी है। वहीं दोपहर का भोजन-प्रसादी बना कर कपिल जी ने प्रेमबाबा को अर्पित की। बाबाजी की आज दूसरी लाटरी लगी। “भईया कपिल जाट जी बिना परसादी लिये जाने ही नहीं दिये!”


आगे मजे मजे में चलते बाबाजी फोन पर मुझसे बतियाते रहे। “भईया तमखन से गुजर रहा हूं। बच्चा लोग देखते हैं तो दौड़ कर आते हैं। नर्मदे हर बोलते हैं और फिर कहते हैं टॉफी दो! पचास रुपये रोज की टाफी लग जाती है। टॉफी के बहाने बच्चों में नर्मदा माई के प्रति श्रद्धा के संस्कार तो जागते ही होंगे। परिक्रमावासियों से भी अपनापा उपजता होगा।”
“भईया राजस्थान के लोग मिले। ऊंट पर अपना सारा सामान लादे, बाल बच्चा समेत आ रहे हैं। यहां मूंग खूब होती है। उसकी बुआई कटाई करते हैं। चार पांच महीने के फसल सीजन के बाद मेहनत का रोकड़ा और कुछ मूंग ले कर वापस अपने देस लौटते हैं।”
इस क्षेत्र में लोग बड़े पैमाने पर मूंग उगा रहे हैं। उसके लिये श्रमिक दूर दूर से आते हैं। भरतपुर से, डूंगरपुर से… खेत में ही झोंपड़ी – मचान बना कर तीन चार महीना रहते हैं।
मैने पूछा – किसी घुमंतू किसान से बात की? पर प्रेमसागर रुकते कम ही हैं बातचीत को। उनके माध्यम से जानकारी तो मिलती है, कथायें नहीं। कथा के लिये मुझे समांतर मनयात्रा करनी पड़ती है।
$$ ज्ञानकथ्य – अथ रामलाल देवासी आख्यान
रामलाल देवासी मिला मुझे नर्मदा के पास एक खेत के किनारे। ऊँट की रस्सी थामे खड़ा था। पास में उसका बेटा — नाम रॉबिन — बाल झटकता घूम रहा था। बेटी रवीना कुछ दूर मचान पर बैठी थी। नाम चौंकाने वाले लगे। पूछने पर रामलाल की आँखें मुस्कुराईं — “मेरी घरवाली को पुराने नाम पसंद नहीं हैं। कहती है जमाना बदल गया है।”
रामलाल डूंगरपुर से चला था। कई दिन की ऊँट-यात्रा करके नर्मदा के इस किनारे पर आकर टिका है। उसी के गाँव के कुछ लोग यहां पीढ़ियों से बस गए हैं — नेमावर के पास। “हमारे बाबा के साथी लोग रहे होंगे जो यहीं बस गये,” उसने बताया। “अब वे लोग खेत वाले बन गए हैं, ट्रैक्टर चलाते हैं, हम अब भी ऊँट से आते हैं, मेहनत करते हैं।”
बच्चों की पढ़ाई का ज़िक्र आया। बोला — “मेरी घरवाली कहती है, कुछ तो सीखें। भेरूसिंह जी प्रधान हैं, उनके भरोसे स्कूल भेज देती है। कापी-किताब मिल जाती है।”
मैं सोचता रह गया — ये बच्चे क्या बनेंगे? अगली पीढ़ी के घुमंतू किसान? मूंग की खेती में मेहनत मजूरी करेंगे या किसी और रास्ते चलेंगे? रॉबिन की चाल में थोड़ा टीवी वाला नायक था, पर आँखों में खुला आसमान भी था।
मुझे प्रेमसागर के भेजे गये चित्रों में रामलाल देवासी के लिये एक प्रतिनिधि चित्र भी मिल जाता है। अपनी मनयात्रा के लिये वही दे रहा हूं।

ये घुमंतू लोग पीढ़ियों से एक और तरह की नर्मदायात्रा करते हैं। डूंगरपुर से बरास्ते बांसवाड़ा, रतलाम, उज्जैन और देवास यहां नर्मदा किनारे की श्रम यात्रा। वे चार-पांच सौ किलोमीटर ऊंट पर और पैदल चलते हैं। और चौमासा नर्मदा किनारे बिता वापस लौटते हैं। परिक्रमावासी की यात्रा श्रद्धा यात्रा है तो रामलाल देवासी जैसे श्रम यात्रा करते हैं। अलग अलग तरह की नर्मदा यात्रायें!
लेखकीय निवेदन:
पाठकों के लिये $$ चिन्हित अनुच्छेद ‘ज्ञानकथ्य’ हैं — जहाँ ज्ञानदत्त पाण्डेय पात्रों, स्थलों या अनुभवों पर स्वतंत्र रूप से दृष्टिपात करता है।
इन ‘ज्ञानकथ्यों’ को कथाशैली में प्रस्तुत किया गया है – जैसे “अथ रामलाल देवासी आख्यान”, जो पौराणिक कथाओं के छंद में एक विनम्र प्रयोग है।
प्रेमसागर की पदयात्रा पर लौटा जाये। शाम के समय तेज चाल से चले बाबाजी। नेमावर पंहुचने में अभी समय लगेगा – घंटा डेढ़ घंटा। पर अचानक बच्चे दौड़ते आये और उन्हें घेर लिया। बोला – “दादाजी बुला रहे हैं। बोले कि बाबाजी को पकड़ लाओ। आज यहीं रोकेंगे।”

आज बाबाजी की ट्रिपल लॉटरी लगने का दिन था। अजय पाल जी का घर परिक्रमा मार्ग पर ही था। उन्होने प्रेमसागर को जाते देखा तो बुला लिया। रात का डेरा उन्हीं के घर रहेगा।
अजय पाल करीब अस्सी साल के हैं। भरापूरा परिवार है। किसान हैं। मजबूत आदमी। सिवाय कान से कम सुनाई देने लगा है, उसके अलावा पूरी तरह स्वस्थ हैं। वे भी राजस्थान से यहां आ कर बसे हैं। उनके पुरखे – उनसे दो पीढ़ी पहले, जोधपुर से यहां आये और नर्मदा की उपजाऊ जमीन और जल उपलब्धि ने यहीं थाम लिया।
“भईया, हमें तो ये सब देख आचर्ज (आश्चर्य) होता है। हमारी तरफ ऐसे लोग नहीं हैं। और भईया यहां ये लोग अपने खेत पर भी अगर बाइक से जाते हैं तो किनारे बाइक खड़ी कर चाभी उसी में छोड़ देते हैं। ऐसा हमारी तरफ तो कभी देखा सुना नहीं।”
जगह का नाम है राजोर। अजय पाल जी के यहां आतिथ्य भरपूर था। मैने पूछा नहीं कि क्या क्या खाये रात की प्रसादी में; पर जो भी रहा होगा, बढ़िया ही रहा होगा।
बकिया, प्रेमसागर हलुआ पूड़ी छान रहे हैं और मैं अपनी कैलोरी गिनता घासफूस पर जिंदा हूं। मुझे अगर पच्चीस किलोमीटर रोज चलना आता तो इस युग का अमृतलाल वेगड़ बनता। अभी तो प्रेमसागर के जरीये देख सुन रहा हूं नर्मदा माई को!
प्रेमसागर जी की सहायता करने के लिये उनका यूपीआई एड्रेस है – prem199@ptyes
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नर्मदे हर!!
