करौंदमाफी से नीलकंठ

दिनांक 09 जून

करौंदमाफी में आश्रम की व्यवस्था अच्छी थी। आसपास गांव नहीं था। आश्रम से दूरी पर गांव थे। पर आश्रम का अन्नक्षेत्र चल रहा था। मैने पूछा – रात की प्रसादी में क्या था?

“रोटी, दाल, भुजिया आलू की, चावल सब था। सब भरपेट था भईया। मांगने की भी जरूरत नहीं थी। घूम घूम कर परोस रहे थे। यहां यह व्यवस्था बहुत अच्छी है। यूपी, बंगाल, बिहार और राजस्थान-गुजरात में भी यह व्यवहार नहीं है। दक्षिण में तो और खराब है, सिवाय कर्नाटक के। तामिलनाडु में तो बिना पैसे चाय-पानी भी नहीं मिला था। वहां तो बात समझने पर भी हिंदी वाले को नहीं समझते थे। करोंदमाफी के बहाने पूरे भारत का तुलनात्मक अध्ययन बता दिया प्रेमसागर ने।”

रास्ते के बच्चों के बारे में प्रेमसागर कई बार बता चुके हैं। आज फिर बताया – “भईया यहां बच्चा बच्चा दौड़ कर पास आ जाते हैं। नर्मदे हर कहते हैं बड़े जोश से। उन्हें चाकलेट दो तो उनसे कितनी भी बार नर्मदे हर कहला लो! इस जमाने में जहां अपना सगा बेटा पास नहीं आता, ये दौड़ कर आते हैं और कहते हैं – बाबा हमें आशीर्वाद दो।”

चाकलेट की आशा में पास आते बच्चे। नर्मदे हर!

साढ़े आठ बजे बीजलगांव आया। वहां से थोड़ी बहुत बात मुझसे की।

प्रेमसागर वहां चल रहे थे पूरी ऊर्जा के साथ और यहां भदोही में मेरी तबियत ठीक नहीं थी। सारे शरीर में दर्द था और मुझे लग रहा था कि पेशाब में संक्रमण हो गया था। दिन डाक्टर को दिखाने और परीक्षण कराने में निकल गया। पता चला कि ज्यादा शारीरिक श्रम (साइकिल चलाने) से मेरा क्रेटिनिन बढ़ गया है और श्वेत रक्त कणिकायें भी बढ़ गई हैं। इस सब के कारण दिन में प्रेमसागर से बातचीत लगभग नहीं हुई। कुछ चित्र उन्होने भेजे थे, वही देखे। बीच बीच में उनकी लाइव लोकेशन देखता रहा।

तबियत ठीक नहीं थी तो मुझे न बातचीत के लिये शब्द मिल रहे थे और न विचार आ रहे थे। प्रेमसागर की यात्रा चल रही थी, पर मेरी मनयात्रा को विश्राम की दरकार हो रही थी।

रात पौने नौ बजे प्रेमसागर जी से बात हुई। उन्होने बताया कि उनका दिन भी कुछ अच्छा नहीं रहा। दिन में किसी से कोई खास मुलाकात – बात नहीं हुई। गांव दूर दूर थे और जो लोग दिखे भी वे अपनी खेती में परेशान नजर आये। बादल घिरे थे और बारिश आने को थी तो उन सब की भी व्यस्तता थी अपनी फसल सहेजने की। लोग नहीं मिले तो दोपहर में भोजन भी प्रेमसागर को कहीं नहीं मिला।

“काफी देर बाद, लगभग बीस किलोमीटर चलने पर एक चाय की दुकान मिली। वहां चाय और पोहा ले कर खाया। और भईया आम मिल गये थे। एक जगह जहां आम थे, वहां रखवाले ने चार आम दे दिये। मीठे थे।”

“मेन बात यह रही कि गर्मी और उमस बहुत ज्यादा थी। पेड़ भी कम ही मिले। छाया में बैठ सुस्ताने को भी जगह नहीं मिली। नर्मदा किनारे किनारे चलना हो रहा था तो तीन बार माई के पास जा कर नहा लिया”

देवास जिले का आखिरी गांव है करोंदमाफी। उसके बाद सीहोर शुरू होता है। शुरू में पड़ता है सातदेव। वहां बालू का खनन बहुत होता है। ट्रेक्टर से बालू की ढुलाई होती है। शायद अवैध होता है यह कारोबार। “खबरिया दिखे भईया। नदी के दोनो तरफ एक एक खबर देने वाले हैं। वे खबर देते हैं कि पुलीस आ रही है। पर पुलीस का ज्यादा डर नहीं है। खबर देने वाले भाई ने कहा – पुलीस पकड़ेगी भी तो क्या करेगी। पैसा लेगी और छोड़ देगी।”

आज के अनुभव अच्छे नहीं रहे प्रेमसागर के। इसलिये वे बात भी नेगेटिव विषयों की ही कर रहे थे।

रात में नीलकंठ पंहुचे। नर्मदा किनारे मंदिर छोटा ही है पर खूब पेड़ हैं इर्दगिर्द। नर्मदा माई 100-200 मीटर पर ही होंगी। यहां अन्न क्षेत्र नया बना है। यज्ञशाला के दालान में कई परिक्रमा वासी रुक सकते हैं। यज्ञशाला की दीवार पर लिखा है – “यहां नर्मदा परिक्रमा करने वालों के लिये निशुल्क भोजन व्यवस्था किया जाता है।”

पर आश्रम में केवल वहां के बाबा जी थे। पचहत्तर साल के होंगे। भोजन के बारे में प्रेमसागर ने पूछा तो बाबाजी ने कहा – यहां और कोई तो है नहीं; हमारे पास दोपहर की चार रोटी बची हैं… उससे काम चले तो…

नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर

प्रेमसागर ने कहा – बाबाजी, पास से अगर तरबूज मिल जाये तो हम दोनो खा कर सो जायेंगे। बाबाजी ने उसमें भी ना नुकुर की। बोले उनके पास पैसा नहीं है। “भईया उन्होने कहा कि तरबूज पचास के आयेंगे, मैने सौ रुपये दिये। पर थोड़ी देर बाद बाबा जी ने आ कर बताया कि तरबूज तो मिले नहीं।”

“भईया, लग गया कि आज नर्मदा जी का जल पी कर रहना पड़ेगा। बाबाजी पैसे लौटा रहे थे तो मैने कहा – बाबाजी मैं तो पैसे दे चुका हूं, अब वापस नहीं लूंगा, आप ही रख लीजिये।”

बाबाजी – “मैं तो पैसे नहीं ले सकता। आप मंदिर को दान देना चाहें तो दे दीजिये।”

“भईया, अब दान देने की बात आई तो मैने खोज कर एक रुपये का सिक्का निकाला। एक सौ एक रुपया मंदिर के नाम से बाबाजी को दान दे दिया।”

थोड़ी देर बाद देखा कि बाबाजी का मन बदल गया। वे भोजन बनाने लगे। उन्होने बाटी (गाकड़) लगाई और दाल भी बनाई। दोनो ने भोजन किया।

अगले दिन नीलकंठ से रवाना हो कर बाबाजी के बारे में प्रेमसागर ने बताया – “फिर तो भईया, बाबा जी बिल्कुल बदल गये थे। सवेरे जिद कर उन्होने चाय और पोहा बना कर मुझे खिलाया। खाये बिना जाने ही नहीं दिया। वे कह रहे थे – आप अच्छे संस्कारी आदमी हैं। आप जैसे परिक्रमावासी आयें तो कितना अच्छा हो।”

मैने पूछा – बाबाजी के नाम गांव के बारे में पता नहीं किया?

“किया भईया। वे अनूप सिंह हैं। नीलकंठ गांव के ही रहने वाले हैं। परिवार से अलग आश्रम में रहते हैं। अनूप सिंह जी गांव वालों के बारे में कह रहे थे कि वे सहायता नहीं करते। पर भईया आश्रम को अनाज वगैरह तो गांव वाले ही देते हैं।” – प्रेमसागर ने जवाब दिया।

भले, अच्छे पर कुछ जटिल हैं अनूप सिंह जी। गहरे में आत्मीय हैं और ऊपर से रूखे। शायद गांव वालों की उपेक्षा या परिक्रमावासियों का अकृतज्ञ रवैया उसके मूल में हो।

नीलकंठ के बाबाजी – अनूप सिंह

प्रेमसागर जी की सहायता करने के लिये उनका यूपीआई एड्रेस है – prem199@ptyes

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नर्मदे हर!!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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