पीलीकरार से सुडानिया

जून 12, अठाईसवां दिन। प्रेमसागर चल रहे हैं; मैं लिखते-लिखते बह रहा हूँ। कुछ ज्यादा ही बह(क) रहा हूं!

पीलीकरार से पांच बजे निकल लिये प्रेम गुरूजी। निकलते समय एक सज्जन नर्मदा प्रसाद जी ने एक गमछा और इक्यावन रुपया अर्पण कर विदाई की उनकी। कल एक गमछा पाये और आज एक और। क्या करेंगे दो का बाबाजी? जितना भोजभात मिले, वह भले प्रेमसागर खायें, पर जो नगदी और सामान परिक्रमा में मिले, कायदे से उसको मेरे साथ फिफ्टी-फिफ्टी शेयर करना चाहिये। आखिर जितनी मेहनत वे पदयात्रा में कर रहे हैं, उतनी मैं मनयात्रा में कर रहा हूं और दिन में तीन घंटा यह ट्रेवलब्लॉग लिख रहा हूं। :lol:

वे पगयात्रा कर रहे हैं, मैं मनयात्रा। मन की यात्रा में भी पैरों की तरह श्रम से छाले पड़ते हैं — बस दिखते नहीं।

चलते चलते सवेरे के आसमान के चित्र क्लिक किये। कुछ तरह के दृष्य देख शायद कंडीशनिंग हो गई है कि हाथ मोबाइल पर चला जाता है फोटो ‘घींचने’ के लिये। प्रेमसागर यह भी समझते हैं कि किस तरह के दृष्य मुझे पसंद हैं।

सवेरे का दृष्य

साढ़े छ बजे वे बुधनी में थे। एक समोसे की दुकान पर चाय समोसा के लिये रुके होंगे वहां। चित्र में लिखा है – बुधनी के मशहूर समोसे। समोसे जैसी साधारण सी चीज भी कहीं के नाम से मशहूर हो सकती है?! समोसे भी अगर मशहूर हो सकते हैं, तो साधारण होना कोई दोष नहीं।

दुकान पर काली चीकट शटर के कवर पर मोबाइल नम्बर लिखा है जिसपर फोन पर ऑर्डर किया जा सकता है। ऐसी साधारण सी दुकान फोन पर भी ऑर्डर ले सप्लाई करती है? रेट लिस्ट है – समोसा, जलेबी, कचोरी और पोहा सब दस रुपये। दस रुपये का एक आईटम और चाय से नाश्ता हो सकेगा। एक परात में ताजा बना पोहे का ढेर नजर आया।

बुधनी मंहगा शहर नहीं लगता।

बुधनी की समोसे की दुकान

बुधनी रेलवे का स्टेशन है। पटरियां पार करते भी एक दो चित्र लिये हैं प्रेमसागर ने। लैण्डस्केप चित्र दिखाता है कि कस्बा साफ सुथरा है। बुधनी शिवराज सिंह (मामा जी) की विधान सभा सीट हुआ करती थी। यहीं आसपास कहीं के रहने वाले हैं वे। एक लोकप्रिय मुख्यमंत्री थे और अब कबीना मंत्री हैं। लगता है अपने इलाके को अच्छे से संवारा है मामा जी ने।

दिन में नर्मदा किनारे जगहें पड़ती हैं जोशीपुर, बंद्रभान घाट, शाहगंज, और बनेता। इन जगहों के ज्यादा विवरण नहीं मिले या दिये प्रेमसागर ने। बंद्रभान या बंदरभान से गुजरते हुये घाट के कुछ चित्र उन्होने क्लिक किये। नर्मदा परिक्रमाओं में इस जगह का काफी वर्णन मिलता है। पर जगह तो मुझे बहुत साधारण लगी। रेलिंग, सीढ़ियां, इमारत और सीमेंट की बेंचें, सब कुछ ऐसा लगता है मानो यह स्थान 10-15 साल में घाट के रूप में डेवलप किया गया हो। चलते चलते लिये चित्रों में स्थान की ऐतिहासिकता या पौराणिकता का कोई कतरा भी नजर नहीं आता। सीमेंट और पेंट का अधिक प्रयोग जगहों को अजीब बना देता है।

बंद्रभान घाट पर वेगड़ जी ने सूर्योदय और सूर्यास्त निहारते पूरा एक दिन लगा दिया था। तब (1998 में) यह जगह पुरानी और जीवंत रही होगी। अब तो यह नई काट का पिकनिक स्थान सा लगता है।

यहां नर्मदा के किनारे आरामदायक सीमेंट की बेंचें हैं, पर संतों के पैर अब नहीं टिकते होंगे।

लगता है, बंद्रभान का घाट अब इंस्टाग्राम है — वेगड़जी वाला घाट नहीं।

बंद्रभान के दो चित्र।

बंद्राभान पर वेगड़ जी की कुछ पंक्तियां – यहां कोई गांव नहीं है। कगार पर मंदिर और धर्मशाला है। पीपल का विशाल पेड़ और बड़ा चबूतरा है। हम इसी पर सोयेंगे। निर्जन स्थान है। पहाड़ों के बीच से आती घुमावदार सड़क है। कभी कभी बस भी आ जाती है। अगर यह स्थान दो चार दिन बाद आया होता तो हम यहां दो दिन ठहरते। इस सुंदर स्थान का दोष यह था कि यह हमें पहले ही दिन मिल गया था। (अमृतस्य नर्मदा। अध्याय 10)

नदी किनारे परिक्रमा मार्ग के रुप में मेरे मन में कल्पना थी कि छ फुट चौडी कच्ची पक्की सड़क होगी। परिक्रमा की गरिमा और एकांत के लिये वही ठीक भी रहता। पर परिक्रमा मार्ग के लिये जो सड़क बनी है, वह तो एक स्टेट हाईवे जैसी लगती है। डबल लेन की। जोश में ज्यादा ही काम कर दिया जाता है। और वह एक पारम्परिक परिकम्मावासी को अटपटा लग सकता है।

तीन दशक पहले की वेगड़ की पदयात्रा के रेखाचित्रों से बिल्कुल अलग प्रकार का नजर आता है आज की पदयात्रा का रास्ता। इतनी चिकनी चौड़ी सड़क तो पदयात्रा का वह खुरदरापन नहीं दिखाती, जिसकी मुझे अपेक्षा थी। परिक्रमा की गरिमा चौड़ी सड़कों में नहीं, पगडंडियों की थकान में है।

बकौल अमृतस्य नर्मदा (वेगड़ जी का दूसरा ट्रेवलॉग), बंद्रभान के उस तरफ भी सुंदर घाट है। अब जब प्रेमसागर दक्षिण तटीय यात्रा करेंगे, तब देखूंगा कि वहां कितनी पौराणिकता बची है – सूरज और चंद्रमा के अलावा। क्या वेगड़ जैसे कवि हृदय को निहारने के लिये वहां कुछ है या सब टूरिस्ट कल्चर में तब्दील हो गया है। खैर कुछ नहीं होगा तो जल में से निकलते सूरज और कल कल करती नर्मदा तो होंगी ही। मैं अपेक्षा करता हूं कि उस ओर की यात्रा में बंद्रभान में एक रात गुजारें प्रेमसागर।

कालियानाग

बंद्रभान के आगे एक कम पानी और ज्यादा बड़े पाट की नदी का चित्र आया। प्रेमसागर ने बताया वह कलिया नाग है। उसमें पानी रोकने को चेकडैम भी बना है सीमेंट का। कलियानाग पूरी प्रागैतिहासिक छटा में जिंदा था, सिवाय चेकडैम के। यहां सब जगह पाण्डवों से जुडी जनश्रुतियां हैं। कलियानाग को देख कर लगता है मैं भी कोई लोक कथा गढ़ दूं इस नाम और चित्र के आधार पर।

देखने में यह कलिया नाग ही लगता है। एक बड़ा-मोटा अजगर जैसा। सिवाय चेकडैम के, जो पौराणिक काल पर आधुनिक सीमेंट की एक खरोंच सा है; नदी कुछ वैसी ही लगती है जैसी पाण्डवों ने देखी होगी। “कलियनाग” कहती लग रह रही है – मैं तो वही हूं, जिसे समय भूल गया है।

रात में प्रेमसागर सुडानिया पहुंचे। वहां सिद्धिविनायक संत सेवा आश्रम में रुकने को ठिकाना मिला। लिखा है – आश्रम में कोई आय का साधन नहीं है। सेवा में कोई त्रुटि हो तो क्षमा कीजियेगा। आप चाहे जो सहयोग कर सकते हैं।

सेवा के नाम से याद आया; कई परिक्रमा वासी अपने रुकने के आसपास जगह साफ करते हैं। जाते समय भी अपनी रुकने की जगह को बुहार कर जाते हैं। उसके उलट और तरह की सेवा वाले भी हैं। कुछ “परिक्रमार्थी” अपने पीछे कड़वा धुआँ छोड़ जाते हैं — बीड़ी के अधजले टुकड़े और मसूड़ों से निकला चूना — मानो वह भी एक ‘भस्म’ हो, जो श्रद्धा की परिधि से बाहर ढरक गई हो।

बहरहाल, एक और सूचना लिखी है वहां – आश्रम पर स्थाई साधू संत की जरूरत है। सम्पर्क करें – सचिन राजपूत। मोबाइल नम्बर भी दिया है। अगर रेलवे से पैंशन न मिल रही होती तो मैं जरूर आवेदन करता। क्या पता इसी बहाने नर्मदा माई अपने पास बुला लेतीं! लगता है, नर्मदा किनारे अब साधू कम, बोर्ड ज्यादा हो गये हैं।

मैं अगर सुडनिया में स्थाई साधू चुन लिया जाता तो अपना बिजनेस कार्ड बनवाता – स्वामी नीलकंठ चिंतामणि, अद्वैताचार्य। भूतपूर्व सिविल सर्वेंट, भारतीय रेलवे। पता नहीं यह लोगों को प्रभावित करता या नहीं।

सुदनिया के आश्रम का बोर्ड

आज प्रेमसागर तीस किलोमीटर चले। अब मुझे भी लिखने में कुछ आनंद आ रहा है। प्रेमसागर चल रहे हैं; मैं लिखते-लिखते बह रहा हूँ। कुछ ज्यादा ही बह(क) रहा हूं!

नर्मदे हर! #नर्मदायात्रा #नर्मदापरिक्रमा #नर्मदाप्रेम


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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