मोतलसिर में एक दिन और रुकने की बजाय सवेरे निकल लिये प्रेमसागर। दिन भर में करीब उन्नीस किलोमीटर चले। शाम घाट पिपल्या के एक नवलधाम आश्रम में डेरा जमाया।
सवेरे मोतलसिर के पास नर्मदा घाट पर कुछ समय गुजारा। सूर्योदय के समय मन के विचार भी सिंदूरी थे। नर्मदा मां से पूछ रहे थे प्रेमसागर – मां, मैं आपकी पदयात्रा में निकला हूं तो आपने बीमार कर रोक काहे लिया?

मुझे उनकी यह आंतरिक बातचीत समझ नहीं आती। परिक्रमा नर्मदा को आत्मसात करने की होनी चाहिये। वह कोई परिक्रमा-मैराथन नहीं होनी चाहिये। मुझे अलग मेरी मनयात्रा के लिये प्रेमसागर कच्चा माल या उत्प्रेरक सामग्री न दे रहे होते तो मैं उनका साथ न निभाता। पदयात्रा का चरित्र धीमा होना चाहिये। जितना धीमा प्रेमसागर कल्पना कर सकते हैं, उससे लगभग दुगना धीमा।
मेरी नर्मदा ऐसा ही कहती हैं। प्रेमसागर की नर्मदा कुछ और कहती हों तो वे जाने। मुंडे मुंडे नर्मदा भिन्ना! हर व्यक्ति के लिये नर्मदा परिक्रमा अलग अर्थ रखती है। मेरे लिये जो रखती है, वह प्रेमसागर की कल्पना से मेल नहीं खाता।
असमंजस में रहे होंगे शुरू में प्रेमसागर। फिर नर्मदा तट से आश्राम लौट कर महंत जी से बात की और उनसे अनुमति मांग ली निकलने के लिये।

“भईया आश्रम के महंत राम सुमिरन दास जी हैं। उम्र करीब 41 साल है। अजुध्या (अयोध्या) के शिक्षा पाए हुए हैं। मेरे गुरु, अयोध्या वासी रामसुमिर दास जी को जानते हैं। कल शाम उनसे बात हुई तो पहचान निकल आई। आपका ब्लॉग पढ़े तो बोले यह बहुत अच्छा है। सनातन की बहुत सेवा कर रहे हैं ब्लॉग लिखने वाले। ऐसा काम तो गीता प्रेस ही करता है।”
रामसुमिरन दास जी दो साल से यहां मोतलसिर में हैं। वे तीन बार नर्मदा परिक्रमा कर चुके हैं। परिक्रमा के दौरान ही उन्होने चिन्हित किया था कि इस जगह पर परिक्रमावासियॉ के लिये सुविधायें नहीं हैं। तभी उनके मन में यहां सदाव्रत केंद्र खोलने विचार आया था।
एक माता जी से चार लाख में उन्होने जमीन खरीदी है और आश्रम बनाने में पंद्रह महीने और बीस लाख रुपये लग चुके हैं। इमारत खड़ी हो गयी है, पर कुछ पुताई और बिजली का काम बाकी है। इमारत का काम हो गया है तो रामसुमिरन दास जी ने बगवानी भी कर डाली है। सुरुचिपूर्ण चरित्र लगते हैं रामसुमिरन दास जी!
नर्मदा परिक्रमा की पोस्टों की सूची नर्मदा परिक्रमा पेज पर उपलब्ध है। कृपया उसका अवलोकन करें। इस पेज का लिंक ब्लॉग के हेडर में पदयात्रा खंड के ड्रॉप डाउन मेन्यू में भी है।
मोतलसिर से निकलते समय की बिना पूछे कैफियत दी प्रेमसागर ने – मौसम ठंडा हो गया है भईया। रात में आंधी पानी था। अभी भी बादल घेरे हैं। आज दिन में बारह बजे तक चलूंगा। जितना चल सकूंगा, उतना।”
थोड़ी देर बाद बाड़ी या बरना नदी पड़ीं। रायसेन जिले की ही नदी है बरना। उसकी शुरुआती यात्रा में ही बरना डैम पड़ता है। करीब एक किलोमीटर लम्बी झील नक्शे में दिखती है। नर्मदा संगम के पहले भी नदी में पानी पर्याप्त है, पर बहुत चौड़ी नहीं है। एक जगह लोहे के एंगल्स से वैलिंग किये पटरों का पुल था। वह बीच से टूट गया है। पुल के जरीये नदी पार नहीं की जा सकती। मैंने उस जगह के पुराने चित्र और वीडियो देखे तो परिकम्मावासी पुल से नदी पार करते दिखे।

कैसे पार किया नदी को? कूद कर? – मैंने प्रेमसागर से पूछा। “नहीं भईया, एक मछेरे ने आ कर सहायता की। घुटनो भर पानी था। उसने हाथ पकड़ कर पार कराया।”
मैंने न पूछा होता तो मछेरे या घुटनों भर पानी की बात सामने आती ही नहीं। कौन था मछेरा? तुम चरित्र उकेरो जीडी!
$$ ज्ञानकथ्य – अथ बंटी मछेरा आख्यान
बंटी मछेरा। पुरानी टीशर्ट और नीचे एक लम्बा गमछा पहने है। कांधे पर छोटी मछली पकड़ने वाला जाल लिये था। शायद अभी जाल फैका नहीं था कि बाबाजी को असमंजस में देख लिया और पास चला आया। “का हो बाबाजी, कहाँ अटक गये?” बोलते उसके सफेद दांत चमक गये।
प्रेमसागर सामान्यत: अकड़ में रहते हैं। सहायता मांगना उनकी प्रवृत्ति का अंग नहीं। उन्होने कुछ ऊं-आं की।
“घुटने भर पानी है, पर कहीं आप रपट जाओगे अगर नदी की इज्जत नहीं करोगे, बाबाजी। नदी का तल्ला चिकना है। आप मेरे कंधा पर हाथ धरिये… डूबने न दूँगा।” उसने आगे पानी की थाह लेते लेते बाबाजी को नदी पार कराई।
बंटी ने अपने जाल का नाम रखा है – बंसी। उसका अपना नाम किसनलाल सनवानी। कृष्ण की बंसी बनी उसका जाल। अपने जाल से अपनापा है उसे। तभी नाम से बुलाता है, वर्ना जाल का भी कोई नाम होता है?
सोलह साल का है बंटी। काला रंग। काल भुजंग नहीं है, कुछ कम काला है। शादी नहीं हुई। पिता नहीं रहे। वह है और मां है घर में। परिकम्मावासियों को रोज देखता है और उससे जो बन पड़ता है, सहायता करता है। पुल की मरम्मत तो सरपंच जी चौमासा बीतने के बाद करायेंगे। तब तक वह लोगों की मदद करता रहेगा बरना पार कराने में!
वह खुद तो परिक्रमा करने जा नहीं सकता मां को छोड़ कर, तो परिकम्मा वासियों की मदद करना ही उसकी परिकम्मा है।

आगे एक और नदी पड़ी। तेंदोनी नदी। प्रेमसागर ने नाम लिख भेजा तंदूरी नदी। यह भी रायसेन जिले में है। इसका पाट चौड़ा था और पुल भी खूब बड़ा। पर नदी में पानी नाम मात्र को कहीं कहीं छोटे छोटे तालों में था। मानो गया के पास वाली फाल्गू नदी हो। इसको देख कर लगता है कि बारिश के मौसम में तेज बहने वाली हो जाती होगी तेंदोनी।
दो बजे तक चले प्रेमसागर, तब सदावृत नवल धाम आया। गांव का नाम है घाट पिपल्या। नर्मदा किनारे। सारंग जी कोई मंत्री हैं मध्यप्रदेश के। आज से कोई दस बारह साल पहले उन्होने यहां परिकम्मा वासियों की सेवा के लिये यह सेवाश्रम बनवाया। जमीन नहीं मिल रही थी नर्मदा किनारे तो माधोसिंह पटेल जी ने बीस एकड़ जमीन उन्हें बेची। उस बीस एकड़ में पांच में आश्रम बना है और बाकी में खेती होती है। खेती से आश्रम का खर्च चलता है।
शाम को माधोसिंह जी वहां अन्य लोगों के साथ बैठे थे। वे अक्सर चले आते हैं। सारंग जी ने अपना मकान बनाया है, पर घाट पिपल्या में रहते कम ही हैं।
“आश्रम में केवट जी मुझे आसन और चाय पानी दे कर गये हैं। बोले कि उनके खेत में मूंग की फसल है। वहां काम देख कर वापस आयेंगे तब शाम की परसादी (भोजन) बनायेंगे।” प्रेमसागर ने बताया।

“जगह अच्छी है भईया। सुविधा सब है। माई के किनारे भी है यह जगह। मौसम भी ठीक हो गया है। अब कोई तकलीफ नहीं है।”
प्रेमसागर जी की सहायता करने के लिये उनका यूपीआई एड्रेस है – prem199@ptyes
नर्मदे हर!! #नर्मदाप्रेम #नर्मदायात्रा #नर्मदापरिक्रमा #प्रेमसागर_पथिक

पढ़कर बहुत अच्छा लगा। प्रेम सागर जी भी गजब के जीवट वाले व्यक्तित्व है। ज्यादा सोच विचार नहीं रखते। बस कर डालते हैं। मै आलसी तो अपने पूजा घर में बैठकर ही समूचा ब्रह्मांड नाप लेता हूं। मुझे जितना आनंद ईश्वर को बंद आंखों से महसूस करने में आता है वह सबसे अलग है।कोई मंत्र नहीं कोई पड़ती नहीं बस….बंद आंखों से वार्तालाप…!!
नर्मदा माई। प्रेम जी की कामनाएं पूर्ण करें!!😊🙏🌷
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जी हां, अनूठे जीव हैं यह प्रेमसागर! बाबा विश्वनाथ ने मुझे सड़क चलते मिलाया था!
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