हीरापुरा से धर्मपुरी – तीन ठहराव

जून 19-20 को रही हीरापुरा और उससे आगे की पदयात्रा। मुझे मोटे तौर पर तीन विषय दिये प्रेमसागर ने।

पहला था हीरापुरा में राजराजेश्वरी मंदिर।

यह दक्षिण भारतीय शैली में बना है। स्थापत्य का विश्लेषण तो मैं नहीं कर सकता, पर देखने में सुंदर जरूर लगता है। चार दशक पहले तिरुनलवेलि के तमिळ संत आये थे – षण्मुखानंद पुरी जी। वे 1989 से 2005 के बीच हीरापुरा में क्षेत्र सन्यास किये, नर्मदा किनारे। वे कर्णाटक के राजराजेश्वरी मंदिर के संत शिवरत्न पुरी जी से दीक्षा लेने के बाद 1979 में यहां आये थे। पहले पहल सिंदूर-नर्मदा के सिद्धावती संगम से प्रारम्भ कर नर्मदा परिक्रमा की, फिर परिक्रमा पूरी कर वे हीरापुरा आये और विगत 45 साल से यहां हैं। अभी वे नैमिषारण्य गये हुये हैं, इसलिये प्रेमसागर उनके दर्शन नहीं कर पाये।

हीरापुरा के राजराजेश्वरी मंदिर के मरम्मत का काम चल रहा है। इसके कारण प्रेमसागर ने वहां ज्यादा समय नहीं गुजारा। प्रेमसागर जी से तो ज्यादा जानकारी मिली नहीं, मातृशक्ति की कृपा से षण्मुखानंद जी के एक भक्त मिले रामनिवास दुबे जी; जानकारी के सूत्र उन्होने दिये। दुबे जी को धन्यवाद!

राजराजेश्वरी जिन्हें त्रिपुरसुंदरी या ललिता के नाम से जाना जाता है, वे माता का एक सौम्य रूप हैं। वे दस महाविद्याओं में एक प्रमुख देवी हैं। मैने पढ़ा – “राजराजेश्वरी देवी को धन, वैभव, योग और मोक्ष की देवी कहा जाता है। वे तीनों लोकों में सबसे सुंदर हैं और उनकी आराधना से शारीरिक, मानसिक शक्ति का विकास होता है, मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं तथा घर में सुख-शांति और समृद्धि आती है।” वे गढ़वाल राजवंश और पृथ्वीराज चौहान की कुलदेवी थीं।

हीरापुरा में इतने बड़े संत का निवास है और नर्मदा किनारे इतना महत्वपूर्ण मंदिर है – प्रेमसागर की यात्रा की बदौलत ही मैं जान पाया। यात्रा वृत्तांत लिखने का यह बड़ा लाभ है। यह जान कर भी अच्छा लगा कि माता की पूजा सात्विक या राजसिक है, तामसिक या अघोरपंथी नहीं। कोई पशुबलि नहीं होती उनके परिसर या उनकी साधना पद्धति में।

राजराजेश्वरी मंदिर की दीवारें दक्षिण की हैं, पर उसकी छाया में पूरी नर्मदा समाई है।

दूसरा विषय था एक चकरी चलाती महिला का। यह दृष्य प्रेमसागर को हीरापुरा से आगे निकलने के कुछ समय बाद ही दिखा। साफसुथरा, लीपाई किया घर था। उसपर चूना और गेरू से पुताई भी की गई थी। वहीं यह महिला बड़े आकार की चकरी से मूंग दल रही थी।

“छाती पर मूंग दलना” मुहावरे से ही स्पष्ट होता है कितना कठिन काम है यह! महिला का नामगांव नहीं पता किया प्रेमसागर ने तो चरित्र का रेखाचित्र मैं ही बनाता हूं! आखिर इतने जीवंत चित्र के साथ अन्याय नहीं किया जाता!

$$ ज्ञानकथ्यअथ फूलवती ढीमर आख्यान – चकरी के गीतों में लिपटा जीवन – फूलवती पर साल बहत्तर की हुई हैं। अनुमान इससे लगता है कि उनका बड़ा बेटा तब जन्मा था जब नर्मदा में बाढ़ आई थी। तभी बेटे को बाढ़ू कहते हैं। परिवार भाग कर पंचायत भवन में रह रहा था जब बाढ़ू का जनम हुआ। फूलवती तब मुश्किल से सोलह साल की रही होगी। तेरह-चौदह में गौना लगा था।

परिश्रमी और कठोर महिला है फूलवती। तीनों बेटे, बहुयें और नाती-पोते उनकी बहुत इज्जत करते हैं। पर वह इज्जत सबका ध्यान रखने से आई है। कोई विरासत में टपकी नहीं।

फूलवती गीत गाते पांच सात सेर मूंग दल कर ही उठती हैं जब एक बार चकरी पर आसन लेती हैं। इतना तो आजकल की बहुयें करने की सोच भी नहीं सकतीं! तीन बहुयें और सात पोते पोतियां, पर फूलवती कहती हैं – “अब सबसे प्यारी तो ई चकरी है, कहती कुछ नाही, पर रोज़ मेरा गीत सुनती है।”

सिर पर रखा गया हरा आँचल, मोटी गुलाबी छींटदार साड़ी, ब्लाउज, बाहों से झलकता वर्षों का श्रम, पैर में चांदी की पायल और हाथ में काँच की चूड़ियाँ! गले में एक पुराना मंगलसूत्र, जिसके मोती ढीले पड़ चुके हैं – मैं फूलमती का पहनावा ध्यान से देखता हूं। व्यक्तित्व प्रभावशाली है।

अभी पौरुख है। मेहनत कर लेती हैं फूलमती। आगे क्या होगा? ज्यादा सोचती नहीं फूलमती – “नर्मदामाई देखेंगी!” जीवन भी नर्मदा माई के आसरे और बुढापा भी उनको समर्पित। नर्मदा किनारे का यही जीवन आकर्षित करता है!

फूलवती की चकरी, अब पूजा का चक्र बन चुकी है – श्रम और श्रद्धा दोनों उसमें गुंथे हैं।

तीसरा विषय है बैलगाड़ी हाँकता एक ग्रामीण। चित्र प्रेमसागर ने भेजा। रेखाचित्र मेरा है।

$$ ज्ञानकथ्य। अथ तारासिंह धाकड़ आख्यान – तारासिंह धाकड़ उस साल जनमे थे जब खेती अच्छी हुई थी। बटाई पर खेती करते तारासिंह के पिता का अनाज भंडार लबालब भर गया था। उत्सव मना था तब। और तारासिंह के पिता नर्मदा माई की परकम्मा को निकल लिये थे। वही तरीका था माई के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन था का। माई बाढ़ भी लाई लाती हैं और माई खेती के जरीये समृद्धि भी।

पर तारासिंह वैसा ही रहा जैसे उसके पिता थे। पिता एक एकड़ जमीन बना पाये थे, उसमें तारासिंह कुछ जोड़ नहीं पाया। तब भी खुश रहता है वह। बैलगाड़ी और बैल उसके अपने हैं। बैलगाड़ी से गाँव-गाँव दूध, लकड़ी, माटी और लोग ढोता है। नर्मदा स्नान करने वालों को नहान के अवसर पर लाता, ले जाता है। जितनी बार नर्मदा किनारे जाता है, उतनी बार नर्मदा के जल में नहाता जरूर है तारासिंह!

घर से निकलता है बैलगाड़ी ले कर। गाड़ी में पानी की मटकी, एक मचिया और कुछ चिवड़ा या सत्तू साथ लेता है। दोपहर में किसी पेड़ के नीचे आराम भी करता है जहाँ बच्चों को पुरखों की कहानी सुनाने लगता है – “एक राजा था… पर उसका खजाना ग़ायब हो गया…”

बैलगाड़ी प्रेमसागर के कैमरे में उभरती है – पर उसके गिर्द घूमता जीवन मेरी लेखनी में उतरता है।

प्रेमसागर चित्र मेरे मोबाइल में भेज कर छुट्टी पा जाते हैं। रास्ते में भोजन-प्रसादी और दान दक्षिणा वे समेटते हैं; पर चित्रों पर पात्र गढ़ना मेरे जिम्मे आ जाता है। मलाई उनकी है और पदयात्रा की छाछ मेरे हिस्से है। पता नहीं प्रेमसागर मुझे बतौर अपना स्टेनो न बताते हों अपनी भगत मंडली को! :-D

नर्मदे हर! #नर्मदायात्रा #नर्मदापरिक्रमा #नर्मदाप्रेम


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

आपकी टिप्पणी के लिये खांचा:

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started