जून 19 की शाम प्रेमसागर झूरी घाट, पदमगंगा, बरमान घाट होते धर्मपुरी के शांति धाम आश्रम पंहुचे।
नर्मदा जी के तट पर ही आश्रम है। परिसर से नर्मदा जी दिखती हैं। आश्रम मदनदास त्यागी, बाल ब्रह्मचारी जी का है। उनके बारे प्रेमसागर ने बताया कि वे बहुत सात्विक हैं। नमक नहीं खाते। उस रोज उनसे मिलना नहीं हो पाया। कहीं बाहर गये थे।

आश्रम का अभी निर्माण कार्य चल रहा है। दोतल्ला बन रहा है। नर्मदा जी पास में हैं तो नर्मदा बालू मिलने की सहूलियत है।
रात में बिजली नहीं थी। गाढ़े अंधेरे में भोजन परोसते हुए आश्रम के देखभाल करने वाले राजेशजी बोले — “सिर्फ दाल-रोटी है बाबाजी, पर थाली जरूर भारी है।”
थाली सचमुच भारी थी — रोटियाँ पाँच थीं, पर हर एक को मानो बेलन बनाते समय पूरी नर्मदा परिक्रमा कर आया हो। प्रेमसागर मुस्काए — “भोजन तो सादा था, लेकिन थाली में रोटी नहीं, चुनौती परोसी गई थी।”
खाना शुरू किया तो हर कौर के साथ शरीर नहीं, श्रद्धा को तृप्त करना पड़ रहा था। प्रेमसागर का नियम था – थाली में कुछ भी न छोड़ा जाये। और रोटियाँ ऐसी कि एक रोटी पांच बराबर।
“भईया,” प्रेमसागर ने बाद में कहा, “खाने में एक घंटा लग गया। वो रोटियां रोज़ खानी पड़ें तो महीने भर में कुरते का साइज बदलवाना पड़े- और दरवाजे भी छिलवाने पड़ें।”
20जून – शांति धाम, धर्म पुरी से विकोर, कुड़ी, छोटा धुआंधार, गुरसी, गोकला होते रामपुरा।
सवेरे राजेश जी ने लाल चाय पिलाई और बीस रुपये भेंट कर पैर छुये बिदा करते समय। प्रेमसागर पैसे को मना करने लगे तो राजेश जी बोले “सिद्ध महात्माओं को इस तरह विदाई देने की आश्रम की परम्परा है। आप तो 12 ज्योतिर्लिंग की, इक्यावन शक्तिपीठ की पदयात्रायें कर चुके हैं। आप तो सिद्ध हैं।”
रात बिजली नहीं थी तो प्रेमसागर का मोबाइल भी तीस परसेंट बैटरी बता रहा था। कहीं रुक कर दोपहर में चार्ज करेंगे – सिद्ध होने के बावजूद मोबाइल की बैटरी की फिक्र करने की आदत बरकरार है बाबा जी की।
सिद्ध महात्मा की भी बैटरी 30% पर आ ही जाती है! :lol:

रायसेन के सोकलपुर के बाद पदयात्रा में जब नरसिंहपुर जिला आता है तो नर्मदा का भूगोल बदला बदला दिखता है। सोकलपुर तक तो नर्मदा धीर गम्भीर दिखती थीं। कुछ कुछ गंगा जी की तरह। अब वे पत्थर को काटती, रास्ता बनाती, पत्थरों के रंगमंच पर नाचती लगती हैं। उनका हर दृष्य एक खूबसूरत पेंटिंग लगता है। थोड़ी सी दूरी में नदी का स्वरूप यूं बदला है मानो सादे सूती साड़ी की बजाय नर्मदा माई ने अब अस्सी कली का छींटदार घाघरा पहन लिया हो। और पैरो में पाजेब की रुनझुन बढ़ गई हो।
आगे नर्मदा का यह अल्हड़ रूप और निखरा मिलेगा यात्रा में।
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रात में झमाझम बारिश हुई है। देर तक चलती रही। सवेरे प्रेमसागर निकल तो लिये पर कब तक चलेंगे कहा नहीं जा सकता। ज्योतिर्लिंग पदयात्रा के परिचित हैं राजकुमार जी। वे नर्मदा के दक्षिण तट वाले हैं। आगे केरपानी में उनके मामा जी का घर है। मामाजी ने दोपहर की भोजन-प्रसादी का निमंत्रण दिया है। “भईया, अगर दिनमें बारिश होती रही तो हो सकता है केरपानी में ही रात्रि बिस्राम हो। आगे माई जानें।”
माई कुछ और ही जान रही थीं। रास्ता बारिश से फिसलन वाला हो गया था। एक जगह तो बारिश इतनी तेज आई कि पांच घंटे रुकना पड़ा। एक मकान बन रहा था। छत की ढलैय्या हो गई थी। वहीं अपनी चादर बिछा कर आराम किया प्रेमसागर ने।”

बारिश, कच्चा रास्ता और फिसलन का परिणाम यह हुआ कि बीच में नर्मदा किनारे जा ही न पाये बाबाजी। छोटा धुआंधार के प्रपात देखना तो छूट ही गया। केरपानी तक पंहुच दोपहर का भोजन राजकुमार जी के मामा के यहां तो क्या, रात तक वहां नहीं पंहुच पाये।
एक पुल पार किया। लकड़ी और बांस का जर्जर पुल। किसी नाले पर था। नर्मदा का बैकवाटर नाले में आता है। इस जगह पर हमेशा पानी रहता है। दो तीन किलोमीटर घूम कर जाने की बजाय नाला पार करने के लिये गांव वालों ने यह पुल बनाया है।
“भईया, बड़ा ही ‘मुस्किल’ था पुल पार करना। पर माई का नाम ले कर कर ही लिया। कोई आसपास था नहीं। बाद में गांव वालों ने बताया कि मैं शायद आखिरी आदमी रहा पार करने वाला। कल सवेरे पुल निकाल दिया जायेगा।”
यह पुल बारिश के चौमासे में, जब नर्मदा बढ़ती हैं और नाले में पुल को डुबाने वाला पानी आ जाने वाला होता है, तब गांव वाले इसे उखाड़ देते हैं। हर साल की परम्परा है।

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पुल का संवाद – मैं एक अस्थायी पुल हूँ — जितना तुम्हारा, उतना ही क्षणभंगुर।
किसी नक्शे में मेरा नाम नहीं है। किसी शासनादेश में मेरा ज़िक्र नहीं। मैं तब बनाया गया था जब किसी गांव वाले के मन में मेरा विचार आया, जो ज्यादा चलना नहीं चाहता था। रस्सी बाँधी गई, लकड़ियाँ गड़ीं, और मैं बन गया।
हर बार जब कोई मुझे पार करता है, मैं डरता हूँ कि कहीं उसका भरोसा न टूटे। मैं जानता हूँ कि मेरी पीठ चरमराती है, किनारे खिसकते हैं, और बारिश के आने पर मेरा कोई वजूद नहीं रहेगा।
लेकिन फिर भी, मैं बना रहा — दो किनारों के बीच एक धागे जैसी हिम्मत की तरह।
तुम आज मुझ पर चले। तुम्हारे पाँवों ने मेरी जर्जर साँसों में कुछ गरिमा भर दी। कल मैं उखाड़ दिया जाऊँगा — लकड़ियाँ जलेंगी या गड्ढों में डाल दी जाएँगी।
लेकिन जो मुझे पार कर गये, उनके भीतर मैं एक स्मृति बन जाऊँगा — एक पुल नहीं, एक प्रसंग।
मैं यह चाहता हूँ — कि तुम मुझे याद करो, मेरे होने के लिये नहीं,
बल्कि उस हिम्मत के लिये जो तुमने दिखायी, मुझ पर कदम रख कर।”
हर साल उखड़ता हूँ, पर हर बार जोड़ता हूँ — मैं हूँ गाँव का पुल!
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शाम सात बजे रामपुरा में रात्रि विश्राम की सोची प्रेमसागर ने। रामपुरा में चंद्रभान लोधी जी उन्हें मंदिर तलाशते देखे तो अपने घर ले गये। रात आनंद से गुजरी भले ही दिन का बरसात ने कचरा कर दिया था।
सवेरे प्रतापसिंह लोधी और उनकी पत्नीजी से विदा ली प्रेमसागर ने। जो चित्र मेरे पास भेजा उसमें प्रतापसिंहजी हाथ जोड़ कर बैठे हैं — वह केवल नमस्कार नहीं, गाँव के उस भाव को दिखाता है जो कहता है: “हमारे घर जैसे भी लस्त पस्त हों, हमारा मन विशाल हैं।”
उनकी पत्नी — गुलाबी साड़ी में — दो फुट अपने आदमी से दूर बैठी हैं। उनके बैठने और देखने में संकोच नहीं, परम्परा की मर्यादा है।
चित्र में घर के भीतर बिछी हुईं बोरीयाँ, कंबल, और हल्का अंधकार – उस जीवन की झलक है जिसमें ‘प्रदर्शन’ नहीं, ‘प्रयोजन’ महत्वपूर्ण होता है। बाँयी ओर की चौकी पर रखे बर्तन, दायीं ओर हरा पर्दा — यह जीवन का अस्तव्यस्त सौंदर्य है, जिसे शहरों की नफासत शायद कभी नहीं पकड़ सके।

रामपुरा से चलते प्रेमसागर कल की कठिन पदयात्रा से सीख ले बोल रहे थे – “भईया, आज माई के किनारे किनारे नहीं हाईवे पकड़ कर आगे चलूंगा। आगे कहीं बाजार आयेगा तो एक कपड़े का जूता लूंगा। रेनकोट भी, जो खूब लंबा हो। सेंडल तो भईया मिट्टी में धंस जा रहा है।”
यह बंदा कभी यात्रा की योजना बनाने में नहीं रहता। चल देता है। फिर जब परेशानी सामने आती है, तब समाधान तलाशता है। प्रतिक्रियावादी है शुद्ध रूप से! सारे धरम करम वाले वैसे ही होते हैं। पैर धंसा देते हैं; फिर कहते हैं हमारी कुशल क्षेम माई देखेंगी! बेचारी नर्मदा पर कितना बोझ डालते हैं ये सिद्ध महात्मा! :lol:
धरम-करम वाले पहले पैर धंसा देते हैं, फिर माई को पुकारते हैं!” 😄
जब तक थाली में रोटी हो, परम्पराओं की मर्यादा हो और हो रास्ते में लकड़ी का पुल — भारत बचा रहेगा। नहीं?
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