बरेला से गुंदलई

#नर्मदापरिक्रमा में बरेला से गुंदलई (25जून) की यात्रा रही।

बारिश रह रह कर कहती रही कि यह मौसम यात्रा का नहीं है। पर प्रेमसागर की संकल्प की दृढ़ता है। दोनो के बीच की कशमकश में अभी तो प्रेमसागर जीतते नजर आते हैं। उन्होने अपनी रणनीति में परिवर्तन किये हैं। नर्मदा किनारे कच्चे रास्ते से चलने की बजाय पक्की सड़क और हाईवे को वरीयता दी है। इससे यात्रा की दुरुहता भी कम हो रही है और दूरी भी।

लेकिन इससे परिक्रमा की मूल प्रवृत्ति के साथ समझौता हो रहा है। यह मेरा मानना है। मेरा मानना मेरी जड़ता हो सकती है। पूर्वाग्रहों के साथ इस यात्रा में जुड़ना सही नहीं। जो जैसा हो रहा है, उसे वैसे लिया जाये। दृष्टाभाव से। तभी उसमें रस आयेगा। मैं अपने को इसके लिये तैयार करता हूं।

पच्चीस जून को नेटवर्क काम नहीं कर रहा था। बरेला के आगे एयरटेल का नेटवर्क नहीं था। जियो का नेटवर्क रीचार्ज न किये जाने के कारण नहीं काम कर रहा था। एक की समस्या तकनीकी थी, दूसरे की आर्थिक। इन दोनो समस्याओं से कोई सिद्ध महात्मा अपनी मांत्रिक शक्ति से निपट नहीं सकता। प्रेमसागर ने कोई बाजार आने पर जियो का रीचार्ज कराया। तब उनका आईकॉन गूगल मैप पर झलकने लगा।

जियो का रीचार्ज हो या आत्मा का — दोनों ही यात्रा में जरूरी हैं।

बरेला से दो रास्ते थे – मंडला जाने का और दूसरा डिंडोरी को निकल लेने का। मंडला का हाईवे शायद बरगी बांध बन जाने के बाद बना है। जंगल से गुजरता है। उसके किनारे गांव नहीं हैं। परिकम्मावासी को कोई सुविधा नहीं है। बरेला से कोई इस रास्ते को पकड़ने की सलाह नहीं देता। डिंडोरी वाला रास्ता भी मनोरम है, पर इसमें हर चार पांच किलोमीटर पर गांव हैं और उनमें परिक्रमा करने वालों के लिये सुविधायें हैं। हमारे पथिक प्रेमसागर जी इसी पर चल रहे हैं। तीन-चार दिन चलने पर नर्मदा माई के दर्शन होंगे उन्हें।

एक नर्मदा परिक्रमा नामक पुस्तक में लेखक नवीन शर्मा जी ने बातचीत उद्धृत की है जिसमें मंडला के जरीये यात्रा पर वे कहते हैं – यह मार्ग अति दुर्गम हो जाता है। इधर परिक्रमावासी के लिए कोई व्यवस्था भी नहीं है। और सबसे बड़ी बात, मंडला रास्ते से तीन दिन बाद मैया मिलती है और निवास रास्ते से भी चार दिन बाद मैया मिल जाती है। सज्जन आगे बोले कि, इतना सब कुछ जानने के बाद तो कोई बेवकूफ ही मंडला मार्ग से जायेगा।

[ नवीन शर्मा. नर्मदा परिक्रमा: आत्मशुद्धि से अनुभूति की यात्रा (पेज 246). किंडल संस्करण]

और उसे चैलेंज सरीखा लेते हुये मंडला मार्ग से ही यात्रा की थी नवीन शर्मा जी ने! अब मौसम बरसात का है। कीचड़ कादा ज्यादा है। मौसम कार्तिक महीने का होता तो प्रेमसागर भी चैलेंज ले सकते थे।

मंडला के जरीये हो या सीधे डिंडौरी, उससे क्या? पूरा इलाका ही नर्मदामय है। कोई भी मिलता है – पैदल या वाहन से; राम राम की बजाय नर्मदे हर कहता निकलता है। यात्रा बढ़िया चल रही है प्रेमसागर जी की।

रास्ते में बच्चे दौड़ कर बाबाजी के पास आये। नर्मदे हर का अभिवादन कर चाकलेट मांगने लगे। कई दिन से कोई परिक्रमा वाले नहीं गुजरे हैं। बहुत समय बाद प्रेमसागर आये। बच्चों का फोटो खींचने लगे तो उसमें से कुछ ने दो उंगलियों से विजय चिन्ह बनाया। बच्चों को फोटो खिंचाना खूब आता है। शहर हो या गांव, फोटो संस्कृति सब ओर व्यापक हो गई है। सेल्फी युग की नर्मदा परिक्रमा है यह!

बारिश के मौसम में परिक्रमावासी कम हो गये हैं। दो महाराष्ट्र के परिक्रमावासी मिले थे बाबाजी को। वे भी आगे चलने की बजाय लम्बा रुकने का स्थान खोज रहे थे। “ऐसे लोगों के साथ नहीं चलता भईया। लोग नहीं चाहते कि कोई लम्बा टिकने वाला हो।” एकला चलने के अपने लाभ हैं। आत्मानुभूति भी होती है और रास्ते में आदर सत्कार भी बेहतर होता है।

आज सवेरे मढ़ी में दीपांशु दुबे ने बाबाजी को रोक कर नाश्ता कराया। भोजनालय उन्हीं का था शायद। तीन बोंडा और साथ में नारियल पानी। छक लिये सवेरे बाबाजी।

नदियां मिलीं – झामल, गौरी, मुसरा। सकरी घाटी रास्ते में साथ देने को रही। पांच सात किलोमीटर चली। वहीं सड़क के आसपास से चार पांच पत्थर बीने प्रेमसागर ने। उनके नाम तो नहीं मालुम, पर बाजार में उनका हजार दो हजार कीमत होती है। पांच पत्थर यानी दस हजार रुपये! प्रेमसागर ज्यादा ही आंक रहे हैं। आखिर वे ठहरे यायावर। कोई जौहरी नहीं।

दस हजार के पत्थर यूं चलते मिल जायें तो लोग टूट पड़ें परिक्रमा मार्ग पर!

शाम के समय प्रेमसागर को मजबूरी में रुकना पड़ा। मौसम खराब हो रहा था। अगला अन्नक्षेत्र करीब दस किलोमीटर दूर था। हो सकता है वहां तक पंहुचने में मौसम बाधा करता।

गुंदलई छोटा गांव है। कोई बड़ा अन्नक्षेत्र नहीं है। एक समिति बनाई है गांव वालों ने। उसमें एक बूढे भगवत प्रसाद यादव जी को जिम्मा दे रखा है परिक्रमावासियों को रुकाने का। भगवत जी शायद विकलांग हैं और गरीब भी। पर उनकी परिक्रमा पर आये प्रेमसागर के प्रति श्रद्धाभाव में कोई कमी नहीं थी। वे न केवल सीमित संसाधनों में जीवन जी रहे हैं, बल्कि अपनी सीमाओं को परमार्थ में बदल दे रहे है। उनके गले में तुलसी की माला है – वह शायद इसी तथ्य को रेखांकित करती है।

यादव जी की पतोहू मायके गई थी। उनकी पत्नी ने कहा कि वह चावल और आलू का भरता बना सकती है। प्रेमसागर को कोई आपत्ति नहीं थी। बोला – “माई, आप भात नमक भी दे देंगी तो प्रसाद मान कर वह भी चलेगा।”

भगवतजी के घर से जुडा एक गोदाम था। गोदाम के साथ एक कमरा। वहीं परिक्रमावासी ठहराये जाते हैं। प्रेमसागर भी वहीं ठहरे। कमरा कामचलाऊ था। “रात भर ही तो गुजारनी थी भईया।”

परिक्रमा मार्ग पर हर गांव एक अन्नक्षेत्र है, हर दरवाज़ा ‘नर्मदे हर’ का मंदिर। जय माई की।

नर्मदे हर! #नर्मदायात्रा #नर्मदापरिक्रमा #नर्मदाप्रेम


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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