#नर्मदापरिक्रमा में 26जून की पदयात्रा गुंदलई से बिछिया तक की रही।
मालगुजारी और रैयतवाड़ी प्रथा के अवशेष
मध्यप्रदेश के इस हिस्से के कई गांवों के नाम के आगे गूगल नक्शे में Mal या Ryt लिखा मिलता है। गुंदलई के आगे मल लिखा है। ये प्रत्यय राजस्व उगाही के मालगुजारी और रैयतवाड़ी व्यवस्था के नाम हैं। ब्रिटिश काल में (या उससे पहले भी) रैयतवाड़ी प्रणाली में आने वाले कृषि भागों का लगान सीधे सरकार लिया करती थी। मालगुजारी प्रणाली के गांवों का लगान कोई मालगुजार बिचौलिया लिया करता था। वह सरकार को लगान इकठ्ठा कर जमा करता था। गुंदलई मालगुजारी प्रथा में आता गांव था। वह नाम अभी भी चल रहा है। अब तो लगान शायद सरकार सीधे लेती है।
प्रेमसागर ने रास्ते में जबलपुर के पहले एक जगह अब भी अनाधिकृत मालगुजारी प्रथा का जिक्र किया था, जहां अभी भी कोई रसूखदार या दबंग मालगुजारी लिया करता है। अब ऑनलाइन लगान जमा करने के युग में भी ऐसा चल रहा है। गरीब अनपढ़ जनता अभी भी राजशाही की छत्रछाया में सहज महसूस करती है? इस ट्रेवलॉग का उस बारे में गहरे में जाने का ध्येय नहीं है, पर इस पर अंतरजाल पर मुझे बहुत जानकारी नहीं मिली।

शहर बनाम गांव बनाम जंगल
गुंदलई छोटा सा गांव है, पर गांव छोटा होने पर भी उसका दिल बड़ा पाया प्रेमसागर ने। शायद जितना छोटा गांव होता है उतना बड़ा दिल होता है। जंगल का दिल और बड़ा होता होगा?
प्रेमसागर शहर से भागे या शहर ने भगाया। गांव उन्हें बड़े दिल वाला नजर आ रहा है। ये गांव भी गांव और जंगल की संधि पर दिखते हैं। जंगल भले ही निर्मम नजर आये, पर वह भेदभाव नहीं करता। उसके दिल तो पता नहीं, पर आत्मा वहां बसती होगी।
जंगल न तौलता है, न आने वाले का तिरस्कार करता है — वह स्वीकार करता है। जो आता है, वह उसका भी उतना ही होता है जितना पहले से रहने वाला। जंगल भेद नहीं करता, गांव निभा लेता है और शहर कदम कदम पर सवाल करता है।
शहर तर्कबुद्धि है, गांव दिल है और जंगल आत्मा है। प्रेमसागर को तय करना चाहिये कि उन्हें किसकी दरकार है।


रास्ते के जीव, गांव और लोग
रास्ते में बिशनपुरा था। मास्टर राघवेंद्र तिवारी का परिवार सड़क पर से ही बाबाजी को घर बुला ले गया। राघवेंद्र तिवारी जी से कोई पूर्व परिचय नहीं था, पर उन्होने और उनके परिवार ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया। दोपहर का भोजन उन्हीं के यहां हुआ।
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रास्ते भर धूप छांव का खेल चला। बीच बीच में बरसात हुई। जब धूप निकली तो चमकदार। त्वचा को भेदने वाली। बारिश ज्यादा हुई तो जीव जंतु भी नजर आये। कदम कदम पर सड़क पर वाहनों से चिपाये हुये सांप नजर आते थे। कई जगह केंकड़े सड़क पार करते दिखे। “कई तो बहुत बड़े केंकड़े थे। एक डेढ़ पाव से कम नहीं रहे होंगे वजन में।”
शाम चार-पांच बजे बिछिया में आज का यात्रा विराम हुआ। अशोक साहू जी के यहां डेरा जमा। साहू जी व्यवसायी हैं। बिछिया में उनकी दो दुकानें हैं। रजनी वस्त्र भंडार के साथ ही उनकी रिहायश है। साहू जी को सपरिवार किसी के यहां रात्रि भोज में जाना था, पर उनके घर की महिलाओं ने पहले बाबा जी का भोजन बनाया और खिलाया। उसके बाद ही वे निमंत्रण पर गये।
“पूरा घर मेरे जिम्मे छोड़ गये साहू जी भईया। मैने कहा भी कि मैं बाहर ओसारे में रह लूंगा, पर उन्होने नहीं माना। मैने फिर कहा कि एक कमरा छोड़ बाकी घर बंद कर जायें, पर वे पूरा घर यूं ही खुला छोड़ गये मेरे भरोसे। बोले कि बातचीत से वे पहचान जाते हैं कि आने वाला कैसा है।” – प्रेमसागर बताते समय आश्चर्य व्यक्त कर रहे थे। उनके गांव देहात में ऐसा व्यवहार आतिथेय का नहीं मिलता।

बस, यही रहा दिन भर में। एक दो नदी मिलींं। एक नदी थी लंगड़। शायद लंगड़ा आम उसके नाम से प्रेरित हुआ हो। कोई तो लंगड़ा निकला! खेतों में पानी लगा था। प्रेमसागर ने बताया कि बारिश के मौसम में ज्यादा लोग सड़क पर थे नहीं। ज्यादा बातचीत नहीं हुई। जप करते हुये रास्ता कटा।
पग-पग पर चिपके पड़े सांप के अवशेष, टेढ़ी चाल में सड़क लांघते केंकड़े और बारिश की झड़ी में भी त्वचा को भेदती धूप — तब यात्रा केवल भौगोलिक नहीं रह जाती। वह भीतर तक उतर जाती है। बिछिया तक की यात्रा में प्रेमसागर ने कस्बों, गांवों और जंगलों के उस कालखंड को अनुभव किया जहां अपरिचय भी भरोसे का विरोध नहीं करता।

नर्मदे हर! #नर्मदायात्रा #नर्मदापरिक्रमा #नर्मदाप्रेम
