27 जून के दिन नर्मदा की घाटी में पदयात्रा रही। प्रेमसागर नर्मदा की ओर बढ़ रहे हैं। नर्मदा की ओर ढलान से यात्रा सुगम रही पर बारिश ने बीच बीच में रोका। नदी नाले सब उफनते दिखे। आज सिलगी नदी पड़ी। मुझे लगा कि बहुत बड़ी होगी, पर मेरी अपेक्षा से कम ही निकली। बारिश का मौसम बीत जाता होगा तब यह और सिकुड़ जाती होती!
दिन प्रति दिन हरियाली बढ़ती जा रही है प्रेमसागर के चित्रों में। वे सड़क मार्ग से चल रहे हैं, वर्ना होता – हरित भूमि तृन संकुल, समुझि परई नहिं पंथ। रास्ता सूझता ही नहीं। यही समझ कर प्रेमसागर ने नर्मदा तीरे चलने की बजाय सड़क मार्ग चुना है।
जैसे जैसे अमरकंटक की ओर बढ़ना हो रहा है, घाटी संकरी होती जा रही है। खेती कम और वन ज्यादा होते जा रहे हैं। प्रकृति के और बीच आते जा रहे हैं हमारे नर्मदा पदयात्री जी। नर्मदा नजदीक आ रही हैं तो घाटी में ढलान ही मिली। “आज बहुत चला भईया, पर महसूस ही नहीं हुआ।”

रास्ते में पत्थर बीने प्रेमसागर ने। देखने में सेडीमेंट्री लगते हैं। अवसादी पत्थर। शायद लम्बे कालखंड में नर्मदा की रेती के जमा होने से बने हैं। प्रेमसागर ने कहा – “कुछ तो ऐसे हैं जैसे ऊपर की परत चिपकाई हो फेवीकोल से। कुछ में नीचे नीला है और ऊपर हीरे के आकार में।”
उनको अंतरजाल पर खोजने से पता चला कि कोई उनमें से हकीक या अगेट हो सकता है। उनका जानकार ही बता सकता है। पर ज्यादातर खूबसूरत सजावटी पत्थर भर हैं। चैट जीपीटी ने बताया – दो तस्वीरों में स्पष्ट रूप से कैल्साइट (Calcite) या अरगोनाइट (Aragonite) जैसी संरचना दिख रही है, जिसमें पारदर्शिता और परतबंदी है। एक अन्य छवि में जो गोल दाने हैं, वे बोट्रॉयडल (botryoidal) संरचना या pearly spherulites दर्शाते हैं — यह किसी खनिज के अत्यंत धीरे-धीरे जल में जमने का संकेत हो सकता है।
चैट जीपीटी के अनुसार बाज़ार में इन्हें “डेकोरेटिव स्टोन” या “सजावटी पत्थर” के रूप में बेचा जाता है, सेमी-प्रेशस कैटेगरी में नहीं गिना जाता। अर्थात हकीक या अगेट होने की सम्भावना कम ही है।
ये पत्थर प्रेमसागर को धन अर्जन तो नहीं करा सकते, पर उनके सौंदर्यबोध को पुष्ट जरूर करते हैं।
अगर प्रेमसागर के मन में यह विचार आया हो कि इन पत्थरों की बाजार में अच्छी कीमत हो सकेगी, तो यह जानकारी देख कर प्रेमसागर जाने क्या सोचेंगे?
नर्मदा के कंकड़ भी अगर प्रेम से देखे जाएँ, तो वे मोती लगने लगते हैं। ये पत्थर नहीं, नर्मदा के हस्ताक्षर है – जो केवल श्रद्धा और प्रेम से ही पहचाने जा सकते हैं।

बारिश में एक जगह एक शेड में रुकना पड़ा प्रेमसागर को। सवेरे का समय था। दूर दूर से महिलायें अपने जल के बर्तन लिये आ रही थीं। पास में दो कुंये हैं, उनसे पानी निकाल कर ले जा रही थीं। घर घर नल से जल जैसा कुछ उपक्रम नहीं दिखता था। बहुत मेहनत करनी होती है औरतों को पानी की जरूरत के लिये।
सवेरे के समय गाय गोरू चरने के लिये हाँके जा रहे थे। “उनके गले में घंटियां नहीं थीं। लगता है जंगली जानवर का खौफ नहीं है इस इलाके में। वर्ना बड़ी बड़ी घंटियां बंधी होतीं।”




सवेरे जल संग्रह और पशुओं को चरने के लिये छोड़ना
आमेरा के पहले एक साप्ताहिक हाट लगी थी सड़क किनारे। अनाज, कपड़ा, मिट्टी के बर्तन, मसाला, सब्जी सब बिक रहे थे। यहां तक कि बैल भी बिकने को आये थे। प्रेमसागर ने रेट पूछा – “पंद्रह हजार रुपया जोड़ा बैल मिल रहे थे भईया।”
बकौल प्रेमसागर ये खेती वाले बैल थे, जानवर की दौड़ वाले बैल नहीं। उनकी कीमत तो लाखों में होती है और वे पालने वाले के दरवाजे पर ही बिक जाते हैंं; हाट में नहीं आते।
बहुत काम की जगह थी वह हाट। “भईया ए टू जेड, सब मिल रहा था वहां।” ए टू जेड यानि खेत से चूल्हे तक सब कुछ!

रास्ते में प्रेमसागर को लगा कि जगह जानी पहचानी है। वह आमेरा पंहुचने वाले थे। द्वादशज्योतिर्लिंग यात्रा में अमरकंटक से जल ले कर वे इस जगह वन विभाग की नर्सरी के जीएस साहू जी के साथ एक दिन रहे थे। साहू जी का फोन नम्बर तो खो गया था, प्रेमसागर ने सोचा नर्सरी में उनसे मुलाकात हो जाये शायद। पर नर्सरी बंद हो गई थी। आगे आनाखेड़ा में एक अन्नक्षेत्र में रात गुजारने को जगह मिली।
आनाखेड़ा में चौबे जी का धर्मशाला है। एक केयरटेकर उन्हें रुकवा कर किसी काम से गया। वापस आ कर भोजन का इंतजाम करेगा। पंखा चालू कर दिया और बिस्तर दे दिया।
प्रेमसागर ने फीडबैक दिया – “जगह तो ठीक है भईया, पर शौच के लिये बाहर खेत में जाना होता है।”
एक साधू वहीं रह रहे थे। उन्होने बताया कि परिक्रमावासी शौचालय को गंदा कर देते थे और सफाई कराना मुश्किल काम था। इसलिये शौचालय में ताला बंद कर दिया गया था। अन्नक्षेत्र की दशा रेलवे के प्लेटफार्म सरीखी है जहां स्टेशन मास्टर साहब ताला लगा कार शौचालय रखते हैं वर्ना वह हमेशा गंदा ही रहेगा।

आमेरा में साहू जी से मिलना चूक जाना प्रेमसागर को याद आ रहा है। वे बोले, “आगे कोई बन बिभाग का मिला तो उनके बारे में पता करूंगा। और भईया, पहले याद नहीं आई साहू जी की, वर्ना सात किलोमीटर पहले उनका घर पड़ता था। वहां उनसे मिल ही लेता। शाम हो जाने के कारण सात किलोमीटर पीछे जाना ठीक नहीं था।”
पदयात्रा पुराने नये सम्पर्कों के आधार पर ही टिकी होती है। साहू जी से न मिल पाने का मलाल प्रेमसागर को होता रहा।
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नर्मदा पास आने जा रही हैं। जहाँ नर्मदा नज़दीक हो, वहाँ ढलान पर चलना भी तपस्या बन जाता है। कल भी ऐसा ही इलाका मिलेगा प्रेमसागर को।
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