घाट पिपल्या से उडीया रहा 20 किलोमीटर और वहां से सोकलपुर 30 किलोमीटर। पचास किलोमीटर के लिये तीन दिन लगाने चाहिये थें प्रेमसागर को, पर वे दो दिन में इसे पूरा कर गये। अशक्त होने और ज्वर से पीड़ित होने का कोई कतरा भी उनकी चाल में दिखाई नहीं देता।
सोलह जून की सवेरे वे घाट पिपल्या से चल दिये सवेरे सवेरे। रास्ते में चाय नाश्ता पानी आदि मिलते रहे। चाय नाश्ते की खबर और उसको कराने वाले लोगों का संक्षिप्त परिचय – यही प्रेमसागर का कथन होता है। पर रास्ते मिलते लोगों का अस्तित्व सतह पर नहीं होता। उनकी परतें खोलने का प्रयास करना चाहिये। प्रेमसागर शायद करते भी हों, पर वे मुझे नहीं बताते, बता पाते। एक जगह चित्रों का कैप्शन दिया – समधी और गुफा। समधी तो निश्चय ही समाधि होगा। पर वह और गुफा कहां है, उसका विवरण नहीं है। वह स्थान बहुत सुंदर है – आश्रम भी और उसकी बगिया भी। जगह बनाने संवारने वाले शानदार लोग होंगे। पर वे अनाम ही रह गये इस यात्रा में।

कोई पाठक इस स्थान के बारे में जानते हों तो जानकारी की परतें खोलें!
प्रेमसागर को इसलिये मैं कहता हूं कि धीमे चलें और परतें खोल कर रखते चलें। अन्यथा सीधा सपाट नर्मदा परिक्रमा विवरण तो सभी ने दे रखा है। खांची भर पुस्तकों, ब्लॉग्स और यू-ट्यूब पर है!
दोपहर में सीताराम आश्रम पड़ा सिद्धघाट, रेवानगर में। नर्मदा किनारे इस आश्रम में सन 2004 से अखंड संकीर्तन चल रहा है। आज भी जो चित्र और वीडियो क्लिप भेजी उसमें दो लोग झल्लक बजाते माइक पर कीर्तन कर रहे हैं – सीताराम सीताराम, सीताराम जै सीताराम। सुन कर अच्छा लग रहा है। कितनी देर बैठे होंगे प्रेमसागर वहां?

मौसम सुहाना है। कभी कभी उमस हो जाती है। पानी साथ रखे हैं प्रेमसागर। बताते हैं कि हर दस मिनट में एक दो घूंट जल पी लेते हैं। अच्छा है – छाछ भी फूंक कर पी रहे हैं।
आश्रम में आराम करने के लिये एक हॉल है। कई लोग आराम करते भी दिखे। एक डेजर्ट कूलर भी लगा था। प्रेमसागर ने बताया कि पूरे यात्रा के दौरान बिजली की व्यवस्था अच्छी मिली उन्हें। और रास्ते के सभी अन्न क्षेत्रों को फ्री बिजली मिलती है। नर्मदा परिक्रमा का प्रताप है।
शाम के समय एक बालक और बालिका उन्हें आग्रह से बुला ले गये और चायपान कराया। प्रेमसागर ने स्थान बताया कैतोधाम। नक्शे में मुझे नर्मदा किनारे एक स्थान मिला केतुघन। शायद वही स्थान हो। या कोई और, कह नहीं सकता। “बड़े प्यारे बच्चे थे भईया। मेरा हाथ पकड़ कर बलबस्ती ले गये अपने घर चाय पिलाने। लड़की का नाम था निधि और लड़के का निबंध।”
शाम सूर्यास्त के बाद प्रेमसागर राजराजेश्वरी मंदिर उडीया पंहुचे। जंगल में लगता है यह मंदिर। अशोक शुक्ल जी ने अपने एक परिचित सुरेंद्र शास्त्री जी को फोन कर इंतजाम करने के लिये कहा था। सुरेंद्र जी एक कथावाचक हैं। निश्चय ही काफी नेटवर्क होगा शास्त्रीजी का। शास्त्री जी ने ही व्यवस्था कराई इस मंदिर में। उनके कहने पर महंत जी इंतजार करते दिखे प्रेमसागर को अपने आने पर।
मंदिर अच्छा है, पर नया बना है। अभी सुविधायें बन रही हैं। प्रेमसागर का कहना है कि कमरे बन गये हैं, अनाज-सामान रखने और पाकशाला का विधिवत होना अभी शेष है। लोग एक हॉल में रह रहे हैं। जल्दी ही यह मंदिर पूरी तरह परिक्रमा वालों के लिये सुविधायुक्त हो जायेगा।

अगले दिन सवेरे अपने समय से निकल लिये प्रेमसागर। महंत जी उठे नहीं थे। “भईया मुझे बताये लोग कि सात बजे उठते हैं।”
शायद शाक्त मंदिरों में महंत-पुजारी देर रात तक आराधना के अभ्यस्त होते हैं और उनका दिन सवेरे ब्रह्ममुहूर्त में प्रारम्भ होने की बाध्यता नहीं है। शक्तिपीठ पदयात्रा के दौरान भी प्रेमसागर ने वैसा देखा था।
सवेरे सवेरे नर्मदा घाट से प्रेमसागर ने फोन किया – “बहुत भीड़ है भईया घाट पर। लगता है कोई बड़ा नहान है। कारें भी खड़ी हैं। पता कर आपको बताऊंगा।”


कोई विशेष तिथि नहीं थी। मात्र मंगलवार था। घाट सुल्तानगंज था और नदी के उस पार एक हनुमान जी का प्रसिद्ध मंदिर है। उनके दर्शन को लोग आते हैं। इस पार के लोग नाव से उस पार जाते होंगे। हिंदू संस्कृति में हर दिन उत्सव है। हर दिन त्यौहार! हर पल ईश्वर हैं और हर कण में आनंद! नर्मदा माई उसकी साक्षी हैं। नर्मदे हर!
दिन में एक नेपालीबाबा का मंदिर पड़ा। वहीं भोजन-प्रसादी मिली। बड़ा ही भव्य स्थान है उनका मंदिर। पर फिर, मुझे परिचय की और परतें उघाड़ कर नहीं रखीं प्रेम बाबा जी ने। मैं उनसे ज्यादा विवरण मांगता रहा और वे यह बताते रहे कि रास्ता मनोरम तो था पर नर्मदा किनारे चलने में रेत में पांव धंस रहे थे।

“रास्ता टेढ़ा मेढ़ा था और भईया नर्मदा माई भी टेढ़े मेढ़े चल रही थीं। एक बच्चे की तरह।” किनारे किनारे चले तो सोकलपुर तक पंहुचने में गूगल फिट ने गिने – 44700 कदम और 29.75किलोमीटर। नक्शे पर पैदल चलने का विधिवत रास्ता 28.6 किलोमीटर है। अर्थात कच्ची पगडंडी पकड़ने का कोई लाभ नहीं हुआ। पर प्रेमसागर यह तर्क नहीं मानते!
प्रेमसागर अपने पैरों की ताकत के बल पर चल रहे हैं। उनको नक्शों, गैजेट्स और स्थानों की डीटेल्स से ज्यादा लगाव नहीं। दूरी तय करना उनकी परिक्रमा का अभीष्ट है! उन सब के लिये मुझे मनयात्रा पर ज्यादा निर्भर रहना होगा।
सोकलपुर में समाधि मंदिर में रुकने का इंतजाम कराया अशोक शुक्ल जी ने। रास्ते में एक बैराज बनता दिखा। सर्च करने पर मुझे कोई जानकारी नहीं मिली उस निर्माणाधीन बैराज/डैम के बारे में। किसी से पता कर जानकारी जुटाई थी प्रेमसागर ने – डैम के पहले एक किलोमीटर नदी के दोनो ओर जंगल विभाग की जमीन है। वहां डूब का इलाका आयेगा। उसके लिये सरकार को न कोई मुआवजा देना होगा और न कोई विस्थापित होगा। थोड़े से लोग विस्थापित होंगे, बस।”

सोकलपुर की चर्चा अगले अध्याय में। अभी यहीं तक।
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