दिनांक 18जून, दोपहर। प्रेमसागर 10 किलोमीटर चल कर सोकलपुर से हीरापुर पंहुचे। नर्मदा किनारे किनारे चले। प्रेमसागर ने बताया कि स्थानीय लोगों के अनुसार श्रद्धालु यहां भी एक पंचकोशी नर्मदा परिक्रमा होती है। हीरापुर से सोकलपुर और वापसी की। अशोक शुक्ल जी, जिनसे परिचय ट्विटर (अब X) पर हुआ; का कहना है कि ये दोनो स्थान पौराणिक हैं। नर्मदा पुराण में सोकलपुर, शुक्लपुर है और हीरापुर शायद हरिपुर है।
हीरापुरा में विनोद पाठक जी के यहां प्रेमसागर एक दिन रहे। विनोद पाठक अशोक शुक्ल जी के साले साहब हैं।

विनोद जी का घर अनूठा है। सन 1926 में उनकी पांचवीं छठी पीढ़ी पूर्व के सम्मानित पूर्वज ने इसे बनवाया था। इसके लिये स्थानीय राजा (जागीरदार) को उन्होने 100 रुपये दिये थे जिससे मकान बनाने में जो भी लकड़ी लगे, वह जंगल से ली जा सके। उसके फलस्वरूप पूरा घर सागौन और साखू (टीक और साल) की लकड़ी का बना है। घर की दीवारें, फर्श और फाल्स सीलिंग लकड़ी के है। छत जरूर खपरैल की है, जो घर को ऐतिहासिक बनाती है। यह उस दौर की निर्माण-शैली का द्योतक है जब स्थानीय सामग्री, मौसम की समझ और हस्तकला का सुंदर तालमेल होता था।
लकड़ी की फाल्स सीलिंग और खपरैल की छत गर्मी, बरसात और सर्दी से बचाव का पारम्परिक और पर्यावरण-सम्मत समाधान है, जो अब लुप्त होता जा रहा है।
घर में आंगन और सामने की खुली जगह वह जीवनशैली का द्योतक है जिसमें घर और प्रकृति के बीच कोई पर्दा नहीं होता। सामने नीम का वह पेड़ जो विनोद के बाबा के जमाने का है, आमंत्रण देता प्रतीत होता है आगंतुक को।
ऐसे घर में पेड़-पौधों, पक्षियों और बच्चों की किलकारियों के लिये खुला दरवाज़ा होता है। मैं यह इसलिये कह पा रहा हूं क्यों कि मेरा बचपन भी ऐसे बड़े घर में कुटुम्ब के बीच गुजरा है।
सन 1926 में 100 रुपये की लकड़ी! मैं एक त्वरित गणना करता हूं तो पता चलता है विनोद जी के बब्बा के बब्बा (परदादा के पिताजी) ने जो 100रुपये खर्च किये होंगे वे आज के 16 लाख के बराबर हैं। पर उस समय के घर निर्माण में जो समय और श्रम लगा होगा, उसकी तो आज के पैसे से कोई तुलना ही नहीं! उस मकान बनाने में जो आत्मीयता रची बसी है, उसका कोई मोल हो सकता है?
चित्र में स्पष्ट होता है कि बड़े आंगन और सामने खुला स्थान उसे एक बहुत बड़ा घर बनाते हैं। प्रेमसागर ने बताया कि विनोद पाठक जी के पिता जी सात भाई हैं और सातों इस समय स्वस्थ हैं। किसी को चश्मा भी नहीं लगा। उनमें से चार भाई और उनका परिवार यहीं इसी मकान में रहते हैं।

अच्छा स्वास्थ्य और चश्मा न लगने का क्या कारण हो सकता है? वे निश्चय ही खेती के लिये या अन्य उद्देश्यों से भी, श्रम करते होंगे और उनके जीवन में तनाव वैसे नहीं होंगे जैसे शहरी जीवन में होते हैं।
नर्मदा किनारे की आबोहवा, और नर्मदा का जल प्रमुख कारण हैं, विनोद पाठक जी के अनुसार। उनका कहना है कि वे लोग नर्मदा माई का जल ही पीते हैं।
नर्मदा के अनेकानेक चमत्कार लोग बताते आये हैं इस परिक्रमा यात्रा के दौरान। उस सूची में जल का नेत्रों को ले कर स्वास्थ्यवर्धक गुण और जुड़ गया।
इस शतक लगाने जा रहे अनूठे घर की तो कथा लिखी जानी चाहिये! छ-सात पीढ़ी की नर्मदा किनारे की सांस्कृतिक और संवेदनात्मक गाथा।
मुझे विवरण और कथायें बताने वाले हों और हीरापुर में चार छ महीने प्रवास का इंतजाम हो तो इस घर की एक कहानी लिखने में आनंद आयेगा। लिखी जा सकती है घर की आत्मकथा के बहाने ब्रिटिश काल के पराभव से ले कर आज तक के नर्मदा अंचल की गाथा।
नर्मदा परिक्रमा की पोस्टों की सूची नर्मदा परिक्रमा पेज पर उपलब्ध है। कृपया उसका अवलोकन करें। इस पेज का लिंक ब्लॉग के हेडर में पदयात्रा खंड के ड्रॉप डाउन मेन्यू में भी है।
खैर, मैं नेट खंगालता हूं तो कई ब्रिटिश आर्कीटेक्ट्स और 1930 के काल की वन विभाग की रिपोर्टों का उल्लेख आता है जिसमें विनोद जी के घर की तरह के लकड़ी के बंगलो या टिम्बर हाउसेज़ का जिक्र है। … विनोद जी का लकड़ी का पुश्तैनी घर उस तरह की विरल हेरिटेज का भाग है। घर की आत्मकथा के लिये तो ये सब तलाशने-टटोलने होंगे!
अगले साल यह घर अपने जीवन का शतक पूरा करेगा! विनोद पाठक जी को अग्रिम बधाई!!!
नर्मदे हर! #नर्मदायात्रा #नर्मदापरिक्रमा #नर्मदाप्रेम

आपकी लेखन शैली का कायल हूं,आप अपने कथ्य में अध्यात्म,भक्ति,पर्यावरण एवं लोक जीवन के विभिन्न पहलुओं को उजागर कर हमे अनुग्रहीत कर रहे हैं। आपको स्वस्थ जीवन की मंगल कामना करते हुए,पढ़ते रहना चाहेंगे।
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बहुत बहुत धन्यवाद, प्रतिक्रिया के लिये बंधुवर! जय हो!
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