23 जून को नर्मदा पदयात्रा हुई बेलखेड़ा से भेड़ाघाट। वहां रुकने का ठिकाना नहीं लहा तो बिलहा में एक लॉज में रात गुजारी।
बेलखेड़ा से भेड़ाघाट की यात्रा में नेशनल हाईवे 45 पर ही लगभग पूरी दूरी चली जा सकती है। मन बहलाने को प्रेमसागर कहते हैं कि एक ठो शॉर्टकट मिल गया था। पर कोई भी शॉर्टकट दूरी में बहुत अंतर नहीं डालता। कुल 39 किलोमीटर चले होंगे। बीस पच्चीस किलोमीटर से ज्यादा चलना, और नर्मदा किनारे से छिटक कर चलना मुझे पसंद नहीं।
हाईवे चलाता है शरीर, पर पगडण्डियां चलाती हैं आत्मा। नर्मदा किनारे की पगडंडियों-रास्तों की ज्यादा ही अहमियत है।
इसलिये ज्यादा चलने पर बाबाजी गूगल फिट का कदमों का आंकड़ा मुझे नहीं बताते। ये नहीं समझते कि अगर उनकी पदयात्रा का दिन में तीन चार बार सेम्पलिंग कर ली जाये तो काफी हद तक पूरी यात्रा की दूरी, टोपोग्राफी, तापमान और वर्षा का अंदाज हो जाता है।
पता नहीं, प्रेमसागर कितना समझते हैं – गूगल फिट से नहीं, श्रद्धा से मापी जाती है नर्मदा परिक्रमा।
हाईवे की यात्रा में कुछ खास नहीं होता लिखने के लिये। सीधी सपाट सड़क। दूर दूर तक विरल यातायात। रास्ते में कुछ साइनबोर्ड। दूर से दिखते खेत। विंध्य की छोटी बड़ी पहाड़ी। कोई चाय की दुकान, कोई चरवाहा, कोई नदी, कोई बांस का पुल, कोई मंदिर – ये सब नहीं पड़ते। रास्ते में रुक कर किसी गांव तक जाने और वापस लौटने की कोई चाह न हो तो सब कुछ यूं होता है कि दांया-बांया-दांया कदम भर गिनते चलते रहें।
हाईवे पर चलना न तो सही मायने मेंं नर्मदा किनारे चलते परिक्रमा पदयात्री को पसंद आयेगा, न उस बौद्धिक को जो यायावरी पर निकला है। उस भिक्षुक को तो कत्तई पसंद न आयेगा जिसने पदयात्रा की भिक्षा को ही अपना ध्येय बना लिया है। प्रेमसागर इन सभी खानों में फिट नहीं बैठते। उनके लिये कोई और खांचा सोचना पड़ेगा।
आगे एक चित्र भेजा, जिसमें पत्थर का बोर्ड था सरस्वती घाट का। भेड़ाघाट का इलाका आ गया था। एक और चित्र में द्वार बना है जिसपर लिखा है – माँ नर्मदा नित्य महाआरती स्थल, त्रिवेणी संगम, सरस्वती। एक अन्य चित्र में कुंड दिखता है सरस्वती का। सरस्वती एक नदी हैं, नर्मदा मुख्य हैं। तीसरी कौन है? बाबाजी बताते हैं वह बूढ़ी नर्मदा है। नर्मदा की पुरानी झीलाकार धारा सी रही होगी। वह कालांतर में सूख गई पर उस जगह को आज भी परिक्रमावासी लांघते नहीं। नर्मदा ही मानते हैं उस इलाके को, जहां अब पुलिया है, सड़क है और खेत हैं।



जहाँ जल सूख गया है, वहाँ श्रद्धा बहती रही है आजतक — बूढ़ी नर्मदा बहती श्रद्धा का नाम है परिक्रमावासी भक्त के लिये!
प्रेमसागर को आज रात गुजारने की जगह तलाशनी पड़ी। भेड़ा घाट के आसपास चार आश्रम थे। किनारे वाला आश्रम पर ताला लगा था। तीन उस टापू पर थे जिसपर जा कर भेड़ाघाट की संगमरमर की चट्टानें दिखती हैं। परिकम्मावासी वहां नहीं जा सकता नियमानुसार।
बाबाजी एक लॉज वाले से कमरे के लिये मोलभाव कर रहे थे कि तीन पुलीसवालों ने सुना। उनके पूछने पर प्रेमसागर ने अपना परिचय दिया और अपने विषय में मेरे ब्लॉग खोल दिखाये। तीनो सिपाहियों को प्रभावित कर पाने में सफल रहे बाबा जी। उन्होने लॉज में अपनी ओर से कमरा भी करा दिया और रात में अपने घर से भोजन भी बनवा कर ले आये उनके लिये।
वे तीन पुलीस कर्मी हैं – ऋतिक तिवारी, सोनू कुमार और हरिओम सिंह। ऋतिक सेंसिटिव हैं। पूछा – बाबाजी, पैर में छाले पड़ गये होंगे? फिर उत्तर का इंतजार किये बगैर मनोयोग से ब्लॉग देखने लगे बाबाजी पर लिखा।
लांज के मालिक नेपाल सिंह राजपूत, जिनसे किराये का मोलभाव हो रहा था, बाद में सीन में पुलीस वालों की एंट्री होने पर थोड़े लजा गये। “मैं भी सोचता था कि आपसे किराया न लूंं,पर तब तक पुलीस वालों ने दखल दे ही दिया।”

बाबाजी यूं ही सेंतमेत के यायावर नहीं हैं। विकट स्थिति में भी अपना काम निकालना जानते हैं। अब मेरी लेखने से मैं एक चवन्नी नहीं कमा पाया, पार मेरा ब्लॉग दिखा कर पूरे देश में सुविधायें जुगाड़ ली हैं प्रेमसागर ने। बाबाजी की जेब में कोई नक्शा या दिशामापी भले न हो, पर ब्लॉग उनका पासपोर्ट है जिसे गाहे बगाहे चमकाने में संकोच नहीं होता उन्हें।”
मैं तो प्रेमसागर का साथ लिये हूं कि उनके जरीये मुझे देश देशांतर देखना है। पर बाबाजी भी मुझे नहीं छोड़ रहे – मेरा ब्लॉग उनका भौकाल बनाने के लिये महत्वपूर्ण यंत्र जो बन गया है!
कल शायद प्रेमसागर (व्यर्थ में ही) जबलपुर में जा धंसें। नर्मदा परिक्रमा के लिये उन्हें किनारे चलते हुये ग्वारीघाट होते, बरगी डैम को कगरियाते मंडला के लिये निकलना चाहिये। पर जैसा मैं कह रहा हूं – प्रेमसागर न शुद्ध परिकम्मावासी हैं और न शुद्ध यायावर! वे जो करेंगे, उसे मैं अंदाज लगाने में अपना समय खोटा काहे करूं!

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