भेड़ाघाट से बरेला

24 जून को सवेरे बिलहा (भेड़ाघाट) से जबलपुर के लिये निकले प्रेमसागर। उन्हें अपेक्षा थी कि उनका जैसा स्वागत सत्कार द्वादश ज्योतिर्लिंग यात्रा के दौरान जबलपुर में हुआ था, वैसा ही कुछ होगा। कम से कम वे सम्पर्क सूत्र ताजा हो जायेंगे। पर वैसा कुछ नहीं हुआ। कोई नहीं मिला।

परिक्रमा नर्मदा किनारे की होती है। नदी किनारे अधिकांशत: होते हैं जंगल, खेत, गांव और सहायक नदियां। वहीं प्रकृति और संस्कृति नर्मदा पदयात्री का मान रखती है। शहर आने पर संस्कृति विकृति बनने लगती है। वह पदयात्री की उपेक्षा करती है। दुत्कारती भी है। वही हुआ।

परिक्रमा जंगल-प्रांतर में बहती नर्मदा की होनी चाहिये। शहर की नहीं। जैसे परिक्रमा वासी बांधों के क्षेत्र से दूर हट कर यात्रा मार्ग बनाते हैं, उसी तरह से उन्हें शहर से हट कर परिकम्मा मार्ग बनाने चाहियें। शहर भी बांध की तरह प्रकृति से हट कर की गई मानव संरचना है।

शहर का अजगर और रेनकोट का कवच

जबलपुर ने पहले अपरिचय में झिड़का। फिर उसका विस्तार अजगर की तरह बाबाजी को दबोचने लगा। “भईया, कितना बड़ा शहर है। ओरछोर ही नहीं नजर आता।”

बच्चों की कविता है – लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा, घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा। दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा, दुम उठाके दौड़ा। उसी तरह किसी अदृश्य चाबुक से बगटुट भाग निकले बाबाजी। बारिश भी खूब होने लगी। पास में पॉलीथीन का सौ रुपये वाला रेनकोट था, वही काम आया। सस्तऊआ है। बटन नहीं हैं। बनियान की तरह गला डाल कर पहना जाता है।

प्रेमसागर का रेनकोट

ज्यादा चलने वाला नहीं है यह रेनकोट। बारिश के चार महीने नहीं निपटा सकता। “भईया, एक अच्छे रेनकोट की तलाश में हूं। कहीं मिल जायेगा तो खरीद लूंगा।”

निरर्थक ही आठ दस किलोमीटर ज्यादा चल लिये शहर का चक्रयुह भेदने के फेर में। भेदने की बजाय पतली गली से निकले। शहर से बाहर निकल कर प्रेमसागर ने सांस ली होगी। शहर में तो किसी ने रुक कर या प्रेमसागर को रोक कर बात भी नहीं की। सब लोग जल्दी में थे। हाथ न खिड़की से बाहर आता है, न नजर। बस ‘नर्मदे हर’ का नारा हॉर्न सा निकलता है और कार हवा हो जाती है।

हनुमान दादा जी का मंदिर

दोपहर में देर से रुकना हुआ एक हनुमान जी के मंदिर में। हनुमान जी को यहां दादा कहा जाता है। दादा जी के यहां भोजन प्रसाद नहीं था। एक महिला अपने घर से बना चाय समोसा ले आई। “चार पांच समोसा था भईया। पेट भर गया।”

बाबाजी मेरे पास ट्रेवलॉग लिखने के लिये चित्र भेजते हैं। वीडियो भी यदा कदा भेजते हैं। पर कोई वह तकनीक नहीं ईजाद हुई जो समोसे का स्वाद भी भेज सके। कैसे थे वे घर के बने समोसे कि प्रेमसागर पांच खा गये। भूख भी कस के लगी रही होगी।

आगे बरेला पड़ा। उसके बाद एक स्थान – जगन्नाथ मंदिर में विश्राम का स्थान मिला।

परिक्रमावासी और पंचमलाल: सेवा का असली भाव

एक देवरिया के लोग मिले। बाप बेटी दो अन्न क्षेत्र चलाते हैं। एक बरेला में है और दूसरा पंद्रह किलोमीटर दूर। यहां का अन्नक्षेत्र रामजानकी मंदिर में है। देवरिया का आदमी यहां अन्नक्षेत्र चला रहा है – यह बड़ी बात है। पूर्वांचल का कोई विस्थापित कहीं सफल होता है, कुछ अलग से करता है तो अच्छा लगता है। प्रेमसागर उनका फोटो नहीं खींचे, यही कमी रही।

प्रेमसागर वहीं रुकने वाले थे पर सड़क पर ही जगन्नाथ मंदिर के पुजारी पंचमलाल झरिया जी मिल गये। आग्रह कर अपने साथ जगन्नाथ मंदिर में ले आये। सुंदर मंदिर है यह। झरिया जी आग्रह कर रहे थे सताईस जून तक रुक जाने को। सताइस जून को जगन्नाथ जी की रथ यात्रा निकलेगी। प्रेमसागर तो मात्र रात्रि गुजारने वाले जीव हैं। अगले दिन अलगी यात्रा पर निकलने वाले। वे कहां रुकेंगे।

बड़े कर्मठ हैं पंचम लाल जी। अकेले पचास लोगों को भोजन बना कर खिला सकते हैं। प्रेमसागर ने कहा कि भोजन बनाने में वे भी कुछ मदद करें? पर पंचम लाल जी ने मना कर दिया – परिक्रमावासी हमारे देवता हैं। देवता से काम थोड़े कराया जाता है।

चित्र में पंचमलाल झरिया प्रभावशाली दिखते हैं। सफेद आधी बाँह की बनियान, गेरुआ धोती; दोनों वस्त्र परिश्रम और सादगी के प्रतीक। उनकी बैठने की मुद्रा पूर्णतः सहज है – एक पैर मोड़कर दूसरे घुटने पर टिकाया गया। यह मुद्रा ग्रामीण पुरुषों की परंपरागत विराम मुद्रा है, जिसमें शरीर, मन और चेतना – सभी को आराम मिलता है। उनके चेहरे में कर्मठता है, बकबकी पन नहीं। वे कहते लगते हैं – “अतिथि देवो भव! परिक्रमावासी हमारे लिये चलते फिरते तीर्थ हैं।”

शाम को भोजन के बाद आठ दस लोग आये मंदिर में। सत्संग-कीर्तन हुआ। प्रेमसागर से भी कुछ कहने को कहा गया। उन्होने रामजन्म से किशोरावस्था तक की कथा सुनाई। “भईया, हम भी पांच सात रामायन पढ़ लिये हैं। तुलसीदास जी, ज्वालाप्रसाद जी, बाल्मीकि जी, आनंद रामायन…। सुनाने पर लोग इम्प्रेस हो जाते हैं।”

आगे की यात्रा

यहां से कल रवाना होने के लिये लोगों ने डिंडौरी जाने का रास्ता बताया। मंडला जाने का भी हाईवे मार्ग है, पर उसपर सुविधायें लगभग नहीं हैं। नब्बे परसेंट परिक्रमावासी डिंडौरी का सीधा मार्ग पकड़ते हैं। मंडला का रास्ता बरगी बांध के बगल से है। परिक्रमावासी, लगता है, बांध के जल में नर्मदा की छाया नहीं देखते। बांध से दूरी बनाये रखते हैं।

अमृतलाल वेगड़ जी की पहली यात्रा पुस्तक “सौंदर्य की नदी नर्मदा” में शुरुआत ग्वारीघाट, जबलपुर से मंडला की यात्रा से है। यह यात्रा 1977 में थी, तब बरगी बांध का काम शुरू भर हुआ था। उस यात्रा में जो स्थान वर्णित हैं, उनमें से अधिकांश अब जलमग्न होंगे।

वेगड़ जी ने मंडला तक की यात्रा बारह दिन में की थी। अब तो हाईवे पर चलते हुये प्रेमसागर डिंडौरी तीन दिन में पंहुच जायेंगे। वेगड़ की यात्रा का सौंदर्य मैं कहां से ला सकता हूं इस हाईवे यात्रा में।

खैर, यात्रा जो होगी, सो होगी। पहले से क्या उसपर सोचा जाये!

जगन्नाथ मंदिर बरेला

नर्मदे हर! #नर्मदायात्रा #नर्मदापरिक्रमा #नर्मदाप्रेम


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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