नरसों अमितजी ने मेरी पोस्ट ‘पिंग सेवायें…’ पर टिप्पणी कर कहा – ‘नारद नये रूप में आ रहा है, उसकी भी तीव्रता देख कर बताइयेगा’। फिलहाल तो नारद के लिंक पर क्लिक करने से अंग्रेजी में आता है – ‘Work in progress. Narad will be back soon!’। नारद जल्दी और अपने तेज रूप में आये इसकी प्रतीक्षा है।
नारद की प्रतीक्षा किसी नोस्टाल्जिया के चलते नहीं है। मैं खालिस उपभोक्ता के फायदे के दृष्टिकोण से कह रहा हूं। किसी भी उपभोक्ता को सेवायें देने वाले क्षेत्र में दो या तीन सशक्त प्रतिद्वन्द्वी हों और उनमें किसी तरह का कोई कार्टेल(सांठ-गांठ) न हो, तो उपभोक्ता के लिये इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता।
ब्लॉगवाणी की प्रतिद्वंद्विता में चिठ्ठाजगत को सशक्त बनना मैं इसी लिये पसन्द करता हूं। आलोक 9-2-11 उस प्रॉसेस में अगर अपनी टीम में पर्याप्त सक्रियता लाकर चिठ्ठाजगत को और और बेहतर बना सके तो ब्लॉगरों का बड़ा नफा होगा। और प्रतिद्वन्द्विता के चलते ब्लॉगवाणी भी परिपुष्ट होगा।1 नारद के पराभव का कारण भी यही था कि उस समय उसके पास प्रतिद्वन्द्विता नहीं थी (जीतेन्द्र शायद सहमत न हों)। आगे भी नारद अगर चमकेगा तो प्रतिद्वन्द्विता के कारण ही।
फीड एग्रेगेटर एक से अधिक और लगभग बराबरी के सशक्त होने ही चाहियें। और ब्लॉग जगत में विस्तार के चलते सब के लिये जगह है।
मैं एक उदाहरण देता हूं। इस मास के अंत में भारतीय रेल के ग्रूप -सी व डी के कर्मी वोट देंगे। वे मान्य यूनियनों (recognised unions) का चुनाव करेंगे। और उचित यही होगा कि कम से कम दो सशक्त यूनियनें उभरें। केवल एक मान्यता प्राप्त यूनियन हो तो वह उछृंखल या आत्मसंतुष्ट हो सकती है। एक यूनियन ताकतवर हो और बाकी टिलिर-पिलिर तो नेगोशियेशन में भीषण दिक्कतें आती हैं। साथ ही कुछ कर्मचारी मलाई काटते हैं और बाकी फटफटाते फिरते हैं।
ठण्डे पेय के रूप में केवल अकेला कोक या पेप्सी होता तो उसकी गुणवत्ता भी कम होती और बिकता भी डबल मंहगा। अकेला गूगल पावरफुल होता जाता है तब बेचैनी होती है। याहू और माइक्रोसॉफ्ट को भी चमकना चाहिये। इण्टरनेट एक्स्प्लोरर के मुकाबले फॉयरफॉक्स को भी चमकना ही चाहिये। वैसे ही, भारत में जब तक टेलीफोन में सरकारी विभाग का वर्चस्व रहा, फोन सेवा किर्र-किर्र ही रही। आपके पास विकल्प हों – और अच्छे विकल्प हों तो ही मजा है।
इसलिये भैया, ब्लॉगवाणी, नारद और चिठ्ठाजगत – सभी रिवाइटल खायें – भले ही अभय तिवारी उसे बेकार बता रहे हों! सभी नयी-नयी सेवायें दें और सभी एक से बढ़ कर एक निकलें। इसी में नफा है हिन्दी ब्लॉगर का।
और फीड एग्रेगेटर्स पर चर्चा चलती रहनी चाहिये। जितने वे फोकस में रहेंगे, विवाद में रहेंगे, उतना बेहतर बनेंगे।
अब कौन सा एग्रेगेटर किसका चिठ्ठा उड़ाने जा रहा है! ![]()
1. ब्लॉगवाणी संचालक अरुण अरोड़ा इसे किसी पंगे का मामला न समझें।
परसों आलोक (9211) जी ने अनिवार्य सब्जी के रेट की बात की थी। भरतलाल कल फाफामऊ मण्डी से सब्जी लाया – आलू 46 रुपये के 5 किलो, टमाटर 15 रुपये किलो, प्याज 24-28 रुपये किलो(प्याज खरीदा नहीं)। मूली के रेट पर बहुत चर्चा थी, तो मैने सोचा अनिवार्य सब्जी के भाव बता दिये जाये!

हमेशा की तरह इस बार भी दुरुस्त फ़रमाया आपने. लेकिन यह बात केवल सेवा क्षेत्र पर ही नही कमोडिटी पर भी लागू होती है. लेकिन बोधि भाई की चिंता भी ग़लत नही है. लॉन्ग रन मे ये प्रतियोगी आपस में मिल कर उपभोक्ता के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते है. सीधे तौर पर अगर इनमे कोई समझौता ना भी हो तो भी पॉलिसी संबंधित एक दूसरे के प्रति मूक सहमति बनी ही रहती है.
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हम का्केश और संजीत की बातो से सहमत है। आलोक जी कछ क्षेत्रो मे एकाधिकार रहे तो अच्छा है, नही तो अमेरिका वाली हालत हो जाएगी। लोग शादी के वक्त ही बैक अप प्लान ले कर चलेगे।
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दिक्कत तब होगी जब सारे प्रतियोगी मिल जाएँगे…..
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निश्चित रूप से प्रतियोगिताएं बाज़ार के मानमानेपन को काफी हद तक नियंत्रित करती है , दो या तीन सशक्त प्रतिद्वन्द्वी हों ,तो उपभोक्ता के लिये इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता,मगर यह बाज़ार है यहाँ कुछ भी हो सकता है.आपके द्वारा इस कड़वे सच को बड़ी कोमलता के साथ प्रस्तुत किया गया है , बड़ी बढ़िया पोस्ट लिखी आपने। सही बात कही,बधाईयाँ !
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अजी लेकिन कभी कभार सीन कुछ और भी हो लेता है. पहले पेप्सी कोक झगड़ते थे तो दोनों पाँच रुपये में मिल जाया करती थी. अब मिलकर उल्लू बनते हैं दोनों. वैसे आलोक पुराणिक जी की बात मी वाकई मी दम है. क्या पता कोई व्यक्तिगत अनुभव भी शामिल रहा हो. वरना मेरे या किसी और के दिमाग मी इत्ती धांसू बात कैसे नहीं आयी?
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