और रीता ने अगला टाइपिंग असाइनमेण्ट मुझे बहुत जल्दी दे दिया। सोमवार को दोपहर दफ्तर में मुझे फोन कर बताया कि एक नयी पोस्ट लिख दी है। घर आ कर टाइप कर देना। अगले दिन मैने टाइप किया। फिर बुधवार पंकज अवधिया जी का दिन था। लिहाजा आज वह पारिवारिक पोस्ट प्रस्तुत कर रहा हूं। इसमें पिछले दिनों चले विवाद पर रीता का मत भी स्पष्ट होता है।
कुछ दिन पहले मेरे पति की एक लठैती पोस्ट ब्लॉग पर आयी। बड़ी हांव–हांव मची। सो तो मचनी ही थी – जब लठ्ठ भांजेंगे तो सामने वालों को जोश आ ही जायेगा। इस तरह की लठ्ठमलठ्ठ में कई बार निर्दोष जन भी एक आध लाठी पा ही जाते हैं। सो मुझे भी लपेटा गया। कुछ – कुछ कहा गया। मैने पोस्ट को छपने से पहले भी पढ़ा था और बाद में टिप्पणियां भी कई बार पढ़ी। मैने वह सब सहज ढंग से लिया। बल्कि मजा आया। कई बार मैं सोचती हूं कि औरतें इतनी जल्दी भिन्ना क्यों जाती हैं। जरा सी बात में ’नारी मुक्ति संगठन’ खड़ा हो जाता है। जिन्दाबाद मुर्दाबाद शुरू हो जाता है। खैर, पोस्ट ज्ञान की थी तो मुझ पर कुछ छींटे पड़ने ही थे। आखिर मैं उनकी “बैटर हाफ” जो हूं।
ऐसा हमारे साथ कई बार हुआ है। पर एक वाकया मैं जरूर बताना चाहूंगी। बात काफी पुरानी है। मेरे भाई की शादी और उसके दस दिन बाद ज्ञान की बहन की शादी थी। सब निपटा कर हम रतलाम पंहुचे। पस्त हाल। अण्टी एक दम ढीली थी। पांचवे वेतन आयोग का दूर दूर तक पता नहीं था – निकट भविष्य में माली हालत सुधरने की कोई सम्भावना भी न थी। ऐसे में चक्रवात की तरह बम्बई से खबर आयी कि ज्ञान को तबादले पर बम्बई बुलाया जा रहा था। कुछ साख रही होगी कि तबादले के बारे में इनसे पूंछा जा रहा था। अन्यथा तबादला कर देते तो जाना ही पड़ता। इन्होने पुराना जुमला उछाला – “अपनी पत्नी से पूंछ कर बताऊंगा”। मुझे भी मामला गम्भीर लगा। बम्बई के मित्रों से बात की। बच्चों का एडमीशन, किताब कापी, दूध सब्जी — सब के खर्चे का आकलन कर लगा कि यह तो तीसरी शादी जितना खर्च होगा! और मैने निर्णय कर लिया कि बम्बई के अलावा और कोई जगह मंजूर है।
ज्ञान ने अपने तरीके से अपने वरिष्ठ अधिकारियों को समझाया। एक वरिष्ठ अधिकारी ने गम्भीर मुद्रा में कहा – “लगता है कि इसकी पत्नी पढ़ी–लिखी नहीं है। इस लिये बम्बई आने में कतराती है। आ जाती तो कुछ तौर तरीका सीख लेती“!
जब मुझे पता चला तो मैने अपना सिर पीटा। कैसा लेबल माथे पर चिपक गया। कुछ देर सोचती रही। फिर हंसी आ गयी। बात आई–गई हो गई।
कुछ साल बाद पश्चिमी क्षेत्र से फिर दबाव बना। इस बार बचना कठिन था। रतलाम में रहते हुये आठ साल हो गये थे। अत: ज्ञान ने बम्बई जा कार पोस्ट ज्वाइन कर ली। अनपढ़ का लेबल हटाने को मैने भी कमर कस ली। इनके बम्बई जाने के एक हफ्ते बाद मैने पूछा – कैसा लग रहा है? बोले – “बहुत अच्छा! चर्चगेट पर शानदार चेम्बर है। चर्चगेट रेस्ट हाउस में दो कमरे की ट्रांजिट रिहायश है। चपरासी, चार इंस्पेक्टर उपलब्ध हैं। हफ्ते भर में तीन बेडरूम का बधवार पार्क, कोलाबा में फ्लैट अलाट होने जा रहा है। और क्या चाहिये बम्बई में”।
लेकिन गोविन्द को कुछ और ही मंजूर होता है। डेढ़ महीने में ही ज्ञान को कोटा, राजस्थान भेज दिया गया; यह कह कर कि आपकी वहां जरूरत है। कोलाबा के फ्लैट की चाभी लौटा दी गयी। और मैं अनपढ़ की अनपढ़ रह गयी! कोई मेट्रो सिटी न देख पायी। हां, अभी कुछ दिन पहले तीन दिन को कोलकाता जरूर गयी। वहां जाते समय लगा कि कामरेडों का भद्र शहर है। कमसे कम शहरियत का प्राइमरी क्रैश कोर्स तो हो ही जायेगा।
पर वहां फूफाजी और बुआ (शिव कुमार मिश्र के पेरेण्ट्स) और शिव–पामेला के साथ ही सारा समय सुखद स्वप्न सा बीत गया।
«← फूफाजी बहुत आकर्षक व्यक्तित्व हैं – मोहक वक्ता, बुद्धिमान और नवीन–पुरातन का सही मेल है उनमें। शिव तो हैं ही मस्त जीव। उनकी पत्नी से तो मेरी बहुत जोड़ी जमी। वहां मेट्रो अनुभव की जगह पारिवारिक अनुभव अधिक रहा। फिर भी महानगर के दर्शन तो कर लिये। पढ़ाई में प्राइमरी तो कर लिये।
अगर एक दो और महानगर देख लें तो आठवीं–दसवीं पास का लेबल तो मिल ही जायेगा। पर ग्रेज्युयेशन तो शायद बम्बई जाने पर ही पूरा हो। अगर नीरज भैया अपने खपोली वाले घर में एक–आध महीने टिका लें या यूनुस भाई मेहरबानी करें तो मैं भी “ग्रेज्युयेशन की डिग्री” हासिल कर गर्दन तान कर ब्लैक फिल्म की रानी मुखर्जी की तरह कह सकती हूं कि “जो काम आप लोगों ने 20 वर्ष की उम्र में किया, वह मैने अढ़तालीस वर्ष की उम्र में किया; पर किया तो!”
है न डॉयलाग – तालियां?!
रीता पाण्डेय
कल की पोस्ट पर टिप्पणियों में पाठक पंकज अवधिया जी का ई-मेल पता पूछ रहे थे। पता उनके ब्लॉगर प्रोफाइल पर उपलब्ध है। मेरा ई मेल पता तो इस ब्लॉग पर दांयी ओर “मेरा झरोंखा” में है।

आपकी लेखन शैली से इस बात का साफ पता चलता है कि आप लिखती रही है। आगे आपकी साहित्यिक रचनाओ की प्रतीक्षा रहेगी।
LikeLike
चाची जी.. आप एक काम किजीये चेन्नई आ जाईये.. पहले हाई स्कूल तो पास किजीये फिर ग्रैजुएशन का सोचियेगा.. :)
LikeLike
सुंदर सरल पठनीय पोस्ट। रीता जी, मुंबई में मैं भी आपके स्वागत करनेवालों की लाइन में शामिल हूं। वैसे सारी चीजों को किनारे करके देखें तो मुंबई कई मायनों में जानदार शहर है।
LikeLike
जिंदगी इत्ती कांपलेक्स और मिलीजुली आइटम है कि उसे वादों, नजरियों के चश्मों से देखकर तर्क तो हाथ आ जाते हैं, पर जिंदगी हाथ नहीं आती। जमाये रहिये। मुंबईं यूं बुरा शहर नहीं है। मुंबई जाते ज्ञानजी तो और ज्यादा ज्ञानी हो जाते, ये जो राखी सावंत के बारे में अनभिज्ञता दिखाते हैं, वो ना होती। वैसे मुंबई जाकर फिल्म विल्म भी लिख सकते थे। मुंबई ग्रेट शहर है। प्रतिभा और अनुशासित प्रतिभा की कदर करता है।
LikeLike
लगता है अब हमें भी मुम्बई जाना ही पड़ेगा.
LikeLike
भाभी जी जे भी अच्छी रई । वैसे ग्रेजुएशन जैसा कुच्छ नहीं है मुंबई में । पर कुल्ल मिलाकर आप जब चाहें आ सकती हैं । बहुत स्वागत है । ममता कह रही हैं कि ग्रेजुएशन छोडि़ये आपसे रेडियो पर काम करवा लिया जाएगा । बहुत हो गयी । अब सारे हिंदुस्तान को अपनी आवाज़ सुनवा दीजिएगा ।
LikeLike
रीता भाभी वैसे तो ये इलाहाबादी बकैती देखने के बाद मुझे लगता तो नहीं कि आपको मुंबई आकर ग्रैजुएशन करने की जरूरत है। आप तो पहले ही मास्टर्स दिख रही हैं। और, अब लगता है कि ऐसे ही नहीं कहा जाता कि जोड़ियां तो ऊपर बनती हैं धरती पर तो सिर्फ मिलती हैं। स्वागत है जब आप मुंबई आना चाहें …
LikeLike
“शिव तो हैं ही मस्त जीव।”भाभी, इसे कहते हैं प्राईमरी का ‘जीव-विज्ञान’…………..:-)आजतक यही सुनता आया था कि लोग बम्बई ‘हीरो’ ‘हिरोइन’ बनने जाते हैं. आज पहली बार सुना कि ग्रैजुएट बनने भी बम्बई ही जाना पड़ता है. वैसे आप एक न एक दिन बम्बई जाकर ‘पढे-लिखे’ लोगों में अपनी गिनती करवा ही लेंगी, इस बात का पूरा विश्वास है मुझे……….:-)
LikeLike
रीता भाभी जी, नमस्कार – मेरी मानिए, बंबई से होते हुए, सीधा यहाँ (अमरीका )) आ जाइए ;)
LikeLike
इन्तजार कीजिए रीता भाभी। इस टिप्पणी के पीछे पीछे मुम्बई वालों के न्योते दौड़े आ रहे हैं।
LikeLike