अजीब बात है; पोस्ट लिखने पर वाह-वाह की टिप्पणियों की चाह चाह नहीं जरूरत बन गयी है और कब बनी, पता न चला। चाह और जरूरत में अंतर है। यह दुष्ट सेल्फ-अप्रूवल सीकिंग मन सड़ल्ला है। बड़ी जल्दी कमजोर बन जाता है। चाह को जरूरत (want को need) में बदल देता है।
हमारे नेताओं में; और हमारे ही क्यों, दुनियाँ के नेताओं में यह जरूरत बहुत है। तभी वे गिरगिट की तरह इस सभा से उस सभा में रंग बदलते हैं। सवर्णों की जरूरत होती है तो हाथी हाथी नहीं गणेश हो जाता है। पब्लिक एक विशेष रिस्पॉंस चाहती है। और नेता घूम फिर कर वह देता है। क्या करे, उसे वाह-वाह जो चाहिये! कभी गड़बड़ हो जाती है – और अक्सर हो जाती है – तो कहा जाता है कि उसे सही सन्दर्भ में समझा नहीं गया। ठीकरा मीडिया पर।
मीडिया एक अलग सेल्फ सीकिंग सिण्डरॉम में लिप्त है।
हमारे धर्मग्रंथ जोर देते हैं – हमारी इण्डिपेण्डेण्ट थॉट प्रॉसेस पर। पर उसे दरकिनार कर कालांतर में यह एप्रूवल सीकिंग सिण्ड्रॉम हमारी जिन्दगी का अंग बन गया। एक दोयम दर्जे के कवि की तरह हर “चार लाइनाँ” पर वाह-वाह की झड़ी की कामना करते हैं। भले ही वे अपनी हों या कबाड़ी हुयी हों। अचानक तिब्बत का पक्ष लेने का मन होता है और चाहते हैं कि हर टिपेरा हमारी हां में हां मिलाते हुये हमें हाई क्वालिटी का इण्टेलेक्चुअल मान ले! और अगर न माने तो अगली पोस्ट में अपने स्टैण्ड में थोड़ा पानी मिला कर वाह-वाह की जरूरत पूरी करें। फिर भी लोग अप्रूवल न दें तो अपने स्टैण्ड में अबाउट टर्न लेते हुये गुड़ में गोबर मिला कर पसन्दगी की जरूरत येन-केन-प्रकरेण पूरी करने का हास्यास्पद काम करें!
हम भी कितने कमजोर होते जा रहे हैं। जान बूझ कर कण्ट्रोवर्सी से बचते हैं। अपनी सोच और अगला क्या चाहता है में अगर जरा भी अंतर हो तो गिरगिटिया कर करेक्टिव एक्शन लेने लगते हैं। अपने स्टैण्ड में उतना पानी मिला लेते हैं, जिससे अगला न उखड़े और आपके लिये साधुवादी टिप्पणी कर जाये।
फ्री होने की प्रॉसेस में यह जरूरी है कि यह जरूरत; यह पॉजिटिव स्ट्रोक की जरूरत; जरूरत न रहे। चाह भले ही रहे।
बदलाव लाना है जी। टु हेल विद अप्रूवल सीकिंग सिण्ड्रॉम! फुरसतिया की मानें तो मौज लेना सीखना है। उसमें अप्रूवल सीकिंग की जरूरत की मजबूरी नहीं होती।
एक औँधा विचार
:
तेल, नून, दाल, चावल शरीर को ऊर्जा देते हैं। पर तेल, नून, दाल, चावल की सोच जिन्दगी तबाह करती है!

आदरणीय ज्ञान जी,पद, प्रतिष्ठा, प्रशंसा, प्रसिद्धि और पैसा किसे नही भाता ? टिपण्णी भी तो प्रशंसा का ही रूप है …..वैसे सकारात्मक सोच चिंतन का आभूषण होता है , जो बार-बार आपकी पोस्ट को पढ़ते हुए मैं महसूस करता रहा हूँ , चिंतन में आपका भोलापन अत्यन्त प्रशंसनीय है !
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किसी ब्लाग पर टिप्पणियों का स्तर स्वयं उस ब्लाग के स्तर का परिचायक होता है. यहाँ सभी बड़े लोग काफ़ी कुछ कह चुके हैं. हम तो केवल आपकी साफगोई की प्रशंसा करेंगे. आपका लेखन ना सिर्फ़ बांधता है बल्कि मंत्रमुग्ध करता है और आप इसे सच्ची प्रशंसा कह सकते हैं क्योंकि हमें ऐसा कहकर बदले में आपसे अपनी पीठ खुजलावाने की प्रत्याशा तो है नहीं.
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कमेंट तो मिलने चाहिए. मैं तो यही मानता हूँ कि कमेंट मिलने से खुशी होती है. पोस्ट पब्लिश करने के बाद मैं ज़रूर देखता हूँ कि लोगों ने कमेंट किए या नहीं. कमेंट चाहिए, इसीलिए मैंने बहुत सारे ब्लागर्स के आई डी और पासवर्ड उनसे ले लिए हैं. अगर कोई कमेंट नहीं कर सके तो उसके नाम का कमेंट मैं ख़ुद ही चढ़ा लेता हूँ….:-)
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अब सबने तो सब कुछ कह दिया हम क्या कहें। हमारा उद्धेश्य वैसे भी आपको खुश देखना है, सो आप हमें देख कर खुश हो जाइये।
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ज्ञान जी। इस आलेख में आप ने सही मर्म को पहचाना है। टिप्पणी को जरुरत बना लेना रोग है। टिप्पणी की चाह मुझे भी रहती है। लेकिन ठकुर-सुहाती बिलकुल नहीं सुहाती। अपने जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएं जुटा लेने के प्रयासों के उपरांत हमारा मूल मकसद तो मानव जीवन को और सुंदर, सुखद बनाना होना चाहिए, इस काम को करते हुए हमारा वर्तमान जीवन भी जितना सुन्दर, सुखद बन सके तो सोने में सुहागा है। अपने विचारों पर दृढ़ रहना, ठकुर-सुहाती के लिएउन में हेरफेर न करना, उन्हें स्पष्टता के साथ सब के सामने रखना ही ब्लॉग को जीवन प्रदान कर सकता है। वैचारिक मतभेदों के बावजूद मानवीय सम्बन्धों की संस्कृति को जीवित ऱखना भी उतना ही जरुरी है। विचार खुल कर प्रकट किए जाएंगे तो वे टकराएंगे भी और स्वतः ही यह अहसास भी जन्म लेगा कि मैं कहाँ गलत हूँ, कहाँ सुधार की आवश्यकता है। आत्मनिरीक्षण भी होगा और नए विचार जन्म लेंगे। व्यक्तित्व का विकास भी होगा। व्यक्तित्व का विकास होते रहना आवश्यक है। अन्यथा उसी क्षण ह्रास होना भी आरम्भ हो जाएगा जिस क्षण यह विकास रुक जाएगा। जैसे रुका हुआ पानी सड़ने लगता है।
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टिप्पणियां होनी चाहिएं. बेबाक होनी चाहिएं.कोरे स्वांत सुखाय की बात बेमानी लगती है. लेखन के पीछे एक मूल उददेश्य प्रतिक्रिया है. जिस लेख पर प्रतिक्रिया न हो वह म्रत लेखन है. टिप्पणी लेखक को आईना दिखलाती है.लेखन को गति प्रदान करती हैं.टिप्पणी प्रशंसात्मक हो अथवा निंदात्मक लेखक के लिए दोनों ही उपयोगी हैं. लेखक को चाहिए कि वह दोनों ही प्रकार की टिप्पणियों को समान भाव से स्वीकार करे. अच्छा लेखक प्रशंसा का मोहताज नहीं होता है, यह कोरा अहम है. प्रशंसा कौन नहीं चाहता. अपने दिल से पूछ कर बताओ क्या आप नहीं चाहते. बस प्रशंसा के साथ-साथ निंदा के लिए भी तैयार रहना चाहिए और उसी भाव से
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जिस तरह प्रेमिका सजधज कर, साज सिंगार करके तैयार होती है, उसे सिर्फ़ प्रेमी की झलक और ढेर सारी तारीफ़ की जरुरत होती है, उसी तरह ब्लॉगर भी होता है। एक आध अपवाद को छोड़कर, हर ब्लॉगर टिप्पणी(यों) की चाहत रखता है। हालांकि ये चाहत क्षणभंगुर होती है, लेकिन दिल को सकून देती है।लेकिन यदि मेरी माने तो इस चाहत को जरुरत मे तब्दील ना करें, अपनी मनमर्जी लिखें, लोग आएं पढे, तारीफ़/आलोचना करे, अच्छा आएं, ना आए, ना पढे, तब भी लिखते रहे, बिन्दास, बेपरवाह, यही ब्लॉगरी का मूल मंत्र है।एक और बात, पाठक आएंगे, ढूंढ कर आएंगे, आज नही कुछ साल बाद आएंगे। (उदाहरण के लिए मेरे तीन साल पुराने लेखों पर आज भी कमेन्ट मिल रहे है, ऐसे पाठकों को एग्रीगेटरों ने नही, बल्कि सर्च इंजनो ने भेजे है।)
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सच्चे लेखक किसी की प्रशंसा के मोहताज नहीं होते। वे इस मामले में आत्मनिर्भर होते हैं। वैसे शरद जोशीजी ने किसी संदर्भ में लिखा था कि लेखक बनने में अपने बारे में कई गलतफहमियों का योगदान होता है। लंबी दूरी का लेखन टिप्पणी और प्रशंसा के सहारे नहीं हो सकता। और लोग सहमत हों, यह बात जरुरी नहीं है। और लोग तारीफ हमेशा करें, यह भी जरुरी नहीं है। बस लगे रहिये। दिल को लगाये रहिये। मन का लिखना चाहिए। जीरो कमेंट के बावजूद। पर मन का स्वभाव है, उसे बदलने में टाइम लगता है।
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हम भी कुछ कहें? कहे से फर्क पड़ेगा? काकेश बाबू का कहा काफ़ी नै हुआ?
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“रहिमन ब्लोग बनाय के टिप्पणी पोस्ट करायेजिसको जितनी चाहिये कापी कर ले जाये”कबिरा ब्लोग टिपियाईये खुद का ग्रुप बनायेमेम्बर सूना ना रहे,ना पोस्ट ही सूनी जाये”:)
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