गालिब या मीर – मुझे तो लोग जमे ब्लॉगरी-ए-हिन्दी में!


शिवकुमार मिश्र लिखते हैं एक पोस्ट – तुम मीर हो या गालिब? और लगता है कि हम लोग जनाब राजेश रोशन जी को अहो रूपम- अहो ध्वनि वाले लगते हैं!
अर हम लोग हैं भी! नहीं तो इस ब्लॉगरी में समय लगाने कौन आये! मैं अपनी कई पोस्टों में इस फिनॉमिना के बारे में लिख चुका हूं। ब्लॉगिंग में आपको सोशल लिंकिंग के साथ पोस्ट वैल्यू देनी है जो आपको प्रसारित करे। और आप जितनी पोस्टें लिखते हैं – जिनकी कुछ टेन्जिबल हाफ लाइफ होती है, उतनी आपकी ब्लॉग वैल्यू बढ़ती है।

बाकी गालिब या मीर जायें जहां को वे बिलांग करते हों। और विवाद-प्रियता भी अपने जेब में धर लें!
शिवकुमार मिश्र, न मीर हैं न गालिब – मैं उन्हे तब से जानता हूं जब वे रोमनागरी में लिखते थे। और अब उनकी दुर्योधन की ड़ायरी पढ़ कर सटायर की उत्कृष्टता पर दांतों उंगली दबाता हूं। यही हाल काकेश, जीतेन्द्र और अनूप सुकुल के लेखन से होता है। ये लोग भी ये लोग हैं – न मीर हैं न गालिब। और ये सभी जबरदस्त हैं अपने ब्लॉग लेखन में!
आपसी लगाव और प्रशंसा, यदा कदा अच्छा न लगने पर साफ कह देने की क्षमता – यह होनी चाहिये। बाकी क्या लेना देना है जी!     


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

20 thoughts on “गालिब या मीर – मुझे तो लोग जमे ब्लॉगरी-ए-हिन्दी में!

  1. इस समय आपकी पोस्ट देखकर कुछ आश्चर्य हुआ पर पढने के बाद आश्चर्य ना रहा। :)

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  2. “आपसी लगाव और प्रशंसा, यदा कदा अच्छा न लगने पर साफ कह देने की क्षमता – यह होनी चाहिये। बाकी क्या लेना देना है जी! “आपसी लगाव और साफ कह देने की क्षमता तो ठीक है पर प्रसंसा मुझे लगता है की थोडी जरुरत से ज्यादा ही होती है हिन्दी-ब्लोग्गिंग में… लोग कुछ कहने के बजाय प्रसंसा कर के कल्टी मारने में ज्यादा भरोसा रखते हैं !

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  3. अरे हम ब्लॉगर मीर-ओ-गालिब न भी हों तो भी कुछ न कुछ रच तो रहे हैं . अपने को अभिव्यक्त तो कर रहे हैं . बाकी इस बंजर होते समय और समाज का शून्य बटा सन्नाटा तो नहीं ही हैं . और अगर साथी लोगों को लिखा हुआ पसंद आ जाए तथा वे टिप्पणी देकर हौसला बढा दें तब तो सोने में सुहागा .अब अगर हिंदी ब्लॉग न होता और उसमें संगम के घाट पर बैठकर आचार्य ज्ञानदत्त पाण्डे ब्लॉग न लिखते और खाली-पीली लालूजी की रेल के लदान की खाता-बही व व्यवस्था में ही मगन रहते तो बोलिए घाटा किसका होता हमारा कि उनका . पहले तो विविध विषयों पर अन्तर्दृष्टिपरक कसी हुई पोस्ट पढो,फिर लगे हाथों थोड़ी-बहुत आत्मोन्नति कर लो और तब भी मन न भरे तो उनके स्टार-चयन में से कोई और मोती तलाश लो . अब बताइए मामला हूबहू मीर-ओ-गालिब का न भी हो तो उनके आस-पास का है कि नहीं .अपने शिवकुमार मिश्र तो ‘ब्लॉग-ट्वेंटी-ट्वेंटी’ के यूसुफ़ पठान हैं ही . राजेश रोशन प्रतीक्षा करें . ब्लॉग अपने ढंग के मीर-ओ-गालिब तैयार कर रहा है . प्रक्रिया चालू आहे .(आपकी अंतिम दो पंक्तियां तो आदर्श टिप्पणीकार का ध्येय-वाक्य हो सकती हैं.)

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  4. सर जी.. हम ना तो वहां हैं और ना ही यहां.. हमें तो अब सबसे ईर्ष्या हो रही है.. :D

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  5. @ अरुण – पंगेबाज से कौन पंगा लेगा। पर पंगेबाज तो दूसरी केटेगरी में हैं रोशन जी की साइट पर। वो तो घणे विशिष्ट व्यक्ति हैं! :)

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  6. देखिये हम नही चाहते कि आप अपनी उंगली खुद ही काट ले, लेकिन आप हमारा नाम भूल कर पंगा काहे ले रहे है ? :)

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  7. “आपसी लगाव और प्रशंसा, यदा कदा अच्छा न लगने पर साफ कह देने की क्षमता – यह होनी चाहिये।” यह सही कहा है आपने.

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