कोई मुश्किल नही है इसका जवाब देना। आज लिखना बन्द कर दूं, या इर्रेगुलर हो जाऊं लिखने में तो लोगों को भूलने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। कई लोगों के ब्लॉग के बारे में यह देखा है।
वैसे भी दिख रहा है कि हिन्दी में दूसरे को लिंक करने की प्रथा नहीं है। सब अपना ओरीजनल लिखते हैं और मुग्ध रहते हैं। ज्यादा हुआ तो किसी ऑब्स्क्योर सी साइट को जिसमें कोई जूस वाली चीज छपी हो, को हाइपर लिंकित कर दिया। कुछ घेट्टो वाले ब्लॉग परस्पर लिंकित करते हैं। उनका महन्त सुनिश्चित करता है कि उसके रेवड़ के लोग परस्पर एक दूसरे की मुगली घुट्टी पियें। बाकी इण्डिपेण्डेण्ट ब्लॉगर को तो लोग लिंक भी कम करते हैं, और उसे भुलाने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।
हमारी दशा गुट निरपेक्ष वाली है। जैसे नॉन अलाइण्ड मूवमेंण्ट का कोई धरणी-धोरी नहीं, वैसे हम जैसे की भी डिस्पेंसिबिलिटी ज्यादा है।
हमारा सर्वाइवल तो हमारे ब्लॉग कण्टेण्ट और हमारी निरंतरता पर ही है।
चलिये “जरूरत” पर एक क्षेपक लिया जाये।
खैर, इस क्षेपक का हिन्दी ब्लॉगरी से कोई लेना देना नहीं है। यहां कोई मालिक नहीं और कोई किसी की खाल नहीं उतारने वाला।
पर जो बात मैं अण्डर लाइन करना चाहता हूं, वह यह है कि अपने कृतित्व से हमें औरों की नजर में अपनी जरूरत बनाये रखनी चाहिये। इस प्रतिस्पर्धात्मक युग में बचे रहने और आगे बढ़ने का वह एक अच्छा तरीका है।
आपकी इनडिस्पेंसिबिलिटी क्या है मित्र?! या इससे भी मूल सवाल – क्या आप इस बारे में सोचते हैं?

देखिये, हम तो अपने आप को चिट्ठाकार के बजाये चिटठक (बतर्ज पाठक) ही अधिक मानते हैं. तो आपका ये प्रश्न हमारे लिए कोई खास मायने नहीं रखता.और अभी बहुत कम ब्लॉग ऐसे हैं (आप निःसंदेह उनमें से एक हैं) जो अपने कंटेंट की वजह से पढ़े जाते हैं. ज्यादातर ब्लॉग तो लोग सिर्फ़ इसलिए पढ़ते हैं ताकि उनपर एक चलताऊ सी टिप्पणी छोड़ सकें, जो एक रिटर्न टिप्पणी का इंतजाम कर दे. ९०% तो कचरा ही है.
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ब्लागिंग तो स्वांत: सुखाय ही है न तो अपरिहार्यता का प्रश्न कैसा? घेटो वाली आपकी बात तो सही है, यह तो मैनें भी देखा है और अकसर वही कुछ नाम हर जगह छाये रहते हैं। मगर साथ ही मैनें कुछ ब्लोगर्स ऐसे भी देखे हैं जो पूरी तरह से एकला चलो रे पर विश्वास करते हैं। यह विश्वास अपने काम की सार्थकता से आता होगा उन्हे। ऐसे लोगों को अपने रोल में जोड़ने में देर नहीं लगती मुझे। ये वे घोड़े हैं जो अपने कंधों पर ब्लोगजगत का अतिरिक्त कचरा भी ढो रहे हैं सो इनकी अपरिहार्यता तो मुझे दिखती है मगर तभी तक जबतक वे ब्लोगजगत में डटे रहें। इससे अधिक की आशा तो ठीक नहीं। कर्म नहीं तो अटल बिहारी वाजपेयी भी ओब्स्लीट हो जाते हैं फ़िर एक अदना ब्लोगर की बिसात ही क्या?शुभम।
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क्या आप इस बारे में सोचते हैं?दादा ,अभी तक तो नहीं सोचा था पर आपने याद दिला ही दिया तो सोचना ही पडेगा।
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chintan to achha hai….aur padhne ka man tha is par…
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शून्य !
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दिनेशरायजी कहते हैं:——————————-ज्ञान जी कुछ अधिक ही अति हो गई है। यह आप की अपिरिहार्यता ही है कि लोग आप तक पहुँच रहे हैं। लेकिन यह अंग्रेजी शब्दों की सहजता धीरे-धीरे अपाच्य होती जा रही है।——————————मैं भी दोषी हूँ।मेरे लेखों में भी अंग्रेज़ी के शब्द कुछ अधिक होते हैं।लाख कोशिश करने पर भी हमसे शुद्ध हिन्दी लिखी नहीं जाती।क्या करूँ? कभी मज़बूरी के कारण ऐसा होता है। चालीस साल तक लगातार अंग्रेज़ी में लिखते लिखते, हिन्दी में पहली बार एक साल पहले जब लिखने की कोशिश की, तो मन और उंगलियों को लकवग्रस्त पाया।आज एक साल के बाद, कुछ ढीलेपन का अनुभाव होने लगा है और हिन्दी में लिखने की क्षमता दिनोदिन सुधरती जा रही है। कभी कभी तो इधर उधर अंग्रेज़ी के शब्द ठूँस देता हूँ, वह इसलिए कि सही हिन्दी शब्द उस क्षण मन में आता नहीं और शब्दकोश पास नहीं होता या उस सन्दर्भ में मूल अंग्रेज़ी शब्द ही अधिक उपयुक्त, सहज या स्वाभाविक लगता है।जब अंग्रेज़ी शब्द का प्रयोग करता हूँ तो पहले उसे रोमन लिपि में लिखता था यह सोचकर के अंग्रेज़ी शब्द तो अंग्रेज़ी में लिखना उपयुक्त होगा।मैं देख रहा हूँ की ज्ञानजी अंग्रेज़ी के श्ब्द को देवनगरी में ही लिखते हैं।अवश्य, हिन्दी चिट्ठों में हिन्दी शब्दों का ही उपयोग हो तो यह सबसे अच्छा होगा। लेकन यदा कदा, अंग्रेज़ी के कुछ शब्द या वाक्य, सही और उपयुक्त सन्दर्भ में यदि हम प्रयोग करना चाहते हैं तो क्या उसे रोमन लिपि में लिखना चाहिए या देवनागरी में?कुछ और प्रश्न पूछना चाहता हूँ।क्या उर्दू के शब्दों का प्रयोग करना उपयुक्त होगा?यदि अंग्रेज़ी “नमक” है, क्या उर्दू को “मि़र्च” माना जाएगा?क्या संस्कृत के शब्दों को “शक्कर” माना जाए?इस टिप्पणी में एक भी अंग्रेज़ी शब्द नहीं है!आशा करता हूँ कि दिनेशरायजी इसे पचनीय टिप्पणी मानेंगे।शुभकामनाएंगोपालकृष्ण विश्वनाथ
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आपने सही कहा जब तक हम दूसरों की जरूरत बने रहते हैं, तभी तक वह हमें महत्व देता है।
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अपरिहार्य कोई नहीं. सब मजे से चलता रहेगा.
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the graveyard is full of those people, who thought that they were indispensible इस बात को तहे दिल से मानिये। लेखन, ब्लागिंग स्वांत सुखाय होती है। किसी को पसंद आ जाये, अलग बात है। स्वांत सुखाय काम ही लंबी इनिंग के लिए प्रेरित करता है। बाकी चाहने वालों का क्या, आज हैं, कल नहीं हैं। कमेंट दिन भंगुर से आइटम हैं। आज हैं, कल नहीं हैं। कमेंट दूसरों के होते हैं, रोज लिखने की बेशर्मी, हिम्मत ब्लागर को खुद अर्जित करनी पडती है। वही आखिर में काम आती है। गालिब जैसे शायर बरसों पहले लिख गये हैं-गालिब ए खस्ता के बगैर कौन से काम बंद हैंरोईये जार जार क्या, कीजिये हाय हाय क्यूं
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Interesting writings.-Harshad JanglaAtlanta, USA
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