आप रोज ३०-४० ब्लॉग पढ़ते हैं। उनमें से पचास फीसदी पर तो टिप्पणी करते हैं ही। रोज आप को ऐसा कम ही मिलता है कि ब्लॉगर रूपांतरित हो रहे हों।
एक ब्लॉगर संवेदनशील कवि है, तो वह उसी संवेदना की कवितायें ठेलता जाता है। फुरसतिया समय की कमी के बावजूद रूपांतरित नहीं होते। उनके दिमाग में, बाई डिफाल्ट लम्बी पोस्टें ही आती हैं (कुछ बदलाव है क्या आजकल?)। चोंच लड़ाने वाले उसी तरह की खुराफात किये चले जा रहे हैं। फलाने जी अपने स्टाइल में अपनी श्रेष्ठता से मुग्ध हैं और समझ नहीं पा रहे कि ब्लॉगजगत उनके अनुसार क्यों नहीं चलता।
लोगों को ब्लॉग अभिव्यक्ति का अद्भुत माध्यम मिला है और वे सरपट, बिना समय गंवाये अपने को अभिव्यक्त किये जा रहे हैं। वे इसको अपने रूपांतरण का चेतन माध्यम नहीं मान रहे।
आपको अपने को सतत रूपान्तरित (री-क्रीयेट) करना होता है। और रूपान्तरण (री-क्रियेशन) में केवल अभिव्यक्ति के माध्यम का प्रयोग कर आत्म-मुग्ध होना ही नहीं आता। आपको बड़े समझ बूझ से अपना चैत्य, अपना पर्सोना बदलना होता है। रूपांतरण, ट्रांसफार्मेशन की मांग आपका स्वत्व (इनर सेल्फ) करता है। अमूमन आप वह मांग अनसुनी करते हैं।
आपको एक कविता, एक पोस्ट, एक प्रयोग पर वाह, वाह मिलती है। (यकीन मानिये कि आप रद्दी भी लिखते तो भी आपको वाह-वाह मिलने के चांस ज्यादा थे!) और आप वाह वाह के वशीभूत उसी प्रकार का लेखन/कविता/पॉडकास्ट और ठेले चले जाते हैं।
रूपांतरण कहां है मित्रों! जरा देखें, आप स्टेल तो नहीं बनते जा रहे! मैं भी देखता हूं अपने आप में।
| रूपान्तरण: ग्रीक सागर का देवता प्रोटेअस की सारी ताकत इस बात में निहित थी कि वह अपना रूप और आकार अपने सोच के अनुसार बदल सकता था। जब अगमेम्नॉन उसे पकड़ने लगा तो वह पहले शेर में रूपांतरित हो गया, फिर सांप, जंगली सूअर, झरने और अन्तत: एक पेड़ की पत्ती में। रूपांतरण की तो यह पराकाष्ठा है; व्यक्तित्व परिवर्तन, परिवर्धन और सर्वाइवल हेतु। हम कुछ तो सतत बदल ही सकते हैं – पूरी चेतनता के साथ! |
(इसे आस्था-चैनलात्मक पोस्ट न माना जाये। यह मैने मेरे अपने उपयोग के लिये भी लिखा है!
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समय और परिस्थिति के साथ रूपांतरण अवश्यंभावी जान पड़ता है।चलिये, आपकी इसी पोस्ट के बहाने हम भी अपने पुराने मृतप्राय: ब्लॉग को पुनर्जीवित करते हैं।
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हमें तो लगता है कि अभी इस जगत में बहुत कुछ सीखना है. सच में हमें तो कभी कभी लगता है कि इतने विद्वानों के बीच हम क्या कर रहे हैं लेकिन जानने की स्वाभाविक इच्छा यहाँ बनाए रखती है.
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बात में दम है मगर अपन मैं नहीं। :)ऐसा ही कुछ है जिसकी ओर आप इंगित कर रहे हैं। ज़्यादातर ब्लोगेर स्वांत: सुखाय ही लिखते हैं और जो चीज़ उन्हे धकेलती है लिखने के लिये वह होती है टिप्पणियाँ। आप ही बताइये कितने लोग ब्लोग पर सार्थक लिखते हैं? जो लिखते हैं उनसे शायद आपकी यह उम्मीद सही ठहरती है और जो नहीं लिखते (लिख नहीं सकते) उनसे वैसे भी कोई उम्मीद व्यर्थ है और मुझे नहीं मालूम उनमें से कितने “रूपांतरण का चेतन माध्यम” का मतलब समझेंगे। वाह-वाह पर तो पूरे ब्लोगजगत का कारोबार चल रहा है।पाठक ही कितनी रचनात्मकता दिखाता है एक ब्लोगर के विकास में? मैनें आजतक कहीं एक ऐसी टिप्पणी नहीं देखी जो स्पष्ट रूप से किसी पोस्ट की कमज़ोरियों की ओर इंगित करती हो। कोई खतरा मोल ही नहीं लेना चाहता। सबको अपनी दुकान ठेले जाने का डर बना रहता है। और वाह वाही भी इसलिये की जाती है कि लोग पलटकर आपके ब्लोग पर भी आयें। रूपांतरण में पाठक की सहभागिता भी उतनी ही ज़रूरी है।और हाँ, एक रचनाकार का characteristics उसकी रचना में अवश्यम्भावी झलकेगा और उसके व्यक्तित्व के बदलने तक नहीं बदलेगा। जैसे जैनेन्द्र और निर्मल वर्मा की लिखी एक लाईन पढकर बताया जा सकता है कि ये उनकी पंक्तियाँ है, फ़िर चाहे उन्ही की दो पंक्तियों में चालीस साल का अंतर हो। वहाँ परिवर्तन बहुत धीमा होता है। इतना धीमा कि हम नोट भी न कर पाएँ।
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परिवर्तन एक सहज और सतत प्रक्रिया है..जो जिंदगी भर चलती रहती है!हम चाहे या न चाहे हम बदलते हैं और कभी अपना विश्लेषण करने बैठे तो इस बदलाव को समझ भी पाते हैं…लेकिन ये ज़रूरी है की परिवर्तन सकारात्मक हो तो हमारे व्यक्तित्व में भी निखार आता है! ब्लोगिंग खुद को अभिव्यक्त करने का ही एक माध्यम है और इसी अभिव्यक्ति के दौरान हम बदलते जाते हैं और ये बदलाव हमारे लेखन में भी दिखाई देता है!
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“…वे सरपट, बिना समय गंवाये अपने को अभिव्यक्त किये जा रहे हैं। वे इसको (ब्लॉगरी को) अपने रूपांतरण का चेतन माध्यम नहीं मान रहे। रूपांतरण, ट्रांसफार्मेशन की मांग आपका स्वत्व (इनर सेल्फ) करता है। अमूमन आप वह मांग अनसुनी करते हैं। …आपको बड़े समझ बूझ से अपना चैत्य, अपना पर्सोना बदलना होता है।”गुरुदेव, आप जिस चिन्ता से ग्रस्त दिख रहे हैं उसमें मुझे निष्कर्ष पर पहुँचने की जल्दबाजी ज्यादा दिख रही है। और वस्तुस्थिति का बेज़ा सामान्यीकरण भी कर लिया गया दिखता है। शायद सबको अपने जैसा चिन्तनशील और समर्पित देखना चाहते हैं आप!मेरे ख़्याल से इस ब्लॉग जगत के महासागर में ढेर सारा कचरा तो है लेकिन अनेक अलग-अलग किस्म के ‘सजीव’ रत्न भी हैं जिनकी अपनी विशिष्टता है, पहचान है। लेकिन सजीव होना अपने आप में सतत् परिवर्तनशील होने की गारण्टी भी है। यदि विचारों के निरन्तर प्रवाह के बीच वह अप्रभावित सा निस्पृह खड़ा है तो वह प्रायः मरे के समान है। ‘व्यक्तित्व’ तो किसी व्यक्ति के स्थाई गुणों का समुच्चय ही है जिससे उसकी पहचान होती है। इसमें परिवर्तन शनैः शनैः ही होता है, आमूल-चूल परिवर्तन कदाचित नहीं हो सकता। यह उसका आन्तरिक ‘हार्डवेयर’ है जो आनुवांशिक और प्रकृति-प्रदत्त है। जो रूपान्तरित होता है वह है उसके मान्सपटल का ‘कंटेन्ट’ यानि कि सॉफ्टवेयर। यह चेतन(conscious) और अव-चेतन(sub-conscious) दोनो प्रकार से बदलता रहता है। इसके संवेदक(receptors) अपना काम करते ही रहते हैं। सूचनाओं का संचयन और परिमार्जन (data recording & moderation) स्वयमेव होता रहता है। हम जब भी कुछ लिखते हैं तो इस संचित कोष से input लेते ही रहते हैं।
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