यह पोस्ट श्रीमती रीता पाण्डेय (मेरी पत्नी) ने लिखी है। मैं उसे जस का तस प्रस्तुत कर रहा हूं:
मास्टर नाना थे मेरे नाना जी के बड़े भाई। कुल तीन भाई थे – पं. रामनाथ धर दुबे (मास्टर नाना), पं. सोम नाथ धर दुबे (स्वामी नाना) व पं. देव नाथ धर दुबे (दारोगा जी, जो डी.एस.पी. बन रिटायर हुये – मेरे नाना जी)। नानाजी लोग एक बड़े जम्मींदार परिवार से सम्बन्ध रखते थे। मास्टर नाना अपनी पीढ़ी के सबसे बड़े लड़के थे – सर्वथा योग्य और सबसे बड़े होने लायक। वे जम्मींदारी के कर्तव्यों के साथ साथ अपनी पढ़ाई भी पूरी मेहनत से करते थे। मेरी नानीजी ने बताया था कि वे पूरे इलाके में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया था। परिवार को इसपर बहुत गर्व था।
न जाने किस घड़ी में उन्होंने बनारस के एक स्कूल में अध्यापकी की अर्जी दे दी। नौकरी तो मिलनी ही थी, सो मिल गयी। पर घर में बड़ा कोहराम मचा – "सरकारी गुलामी करेगा, दूसरों के टुकड़ों पर जियेगा, अपना काम नहीं करते बनता, आदि।" पर मास्टर नाना ने सबको बड़े धैर्य से समझाया कि शिक्षक की नौकरी है। उस समय शिक्षक की समाज में बहुत इज्जत थी। पारिवारिक विरोध धीरे-धीरे समाप्त हो गया। नानीजी बताती थीं कि मास्टर नाना ने ४० रुपये से नौकरी प्रारम्भ की और और ४००० रुपये पर रिटायर हुये। पता नहीं यह तुकबन्दी थी या सच्चाई। पर यह जरूर है कि उनकी स्थिति सम्मानजनक अवश्य रही होगी।
मास्टर नाना को मैने हमेशा लाल रंग के खादी के कुर्ता, सफेद धोती और गांधी टोपी पहने देखा था। वे और उनके बच्चे बहुत सम्पन्न थे पर मैने उन्हे हमेशा साइकल की सवारी करते देखा। रोज गंगापुर से बनारस और बनारस से गंगापुर साइकल से आते जाते थे। उनकी दिनचर्या बड़ी आकर्षक थी। सवेरे त्रिफला के पानी से आंख धोते। नाक साफ कर एक ग्लास पानी नाक से पीते। अप्ने हाथ से दातुन तोड़ कर दांत साफ करते। तांबे के घड़े को अपने हांथ से मांजते और कुंये से पानी निकाल शिवाला धोते। नहाने और पूजा करने के बाद एक घड़ा जल अपने पीने के लिये इन्दारा से निकाल कर रखते। कहते थे कि तांबा पानी को फिल्टर करता है।
मास्टर नाना के पास बोर्ड की कापियां जांचने को आती थीं। वे उन्हे बिना पारिश्रमिक के जांचते थे। नयी पीढ़ी के लोग उनके इस कार्य को मूर्खता कहते थे। मुझे याद है कि श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अब स्वतन्त्रता सेनानियों को पेंशन देना प्रारम्भ किया था, तब मास्टर नाना ने उसे अस्वीकार कर दिया था। सन बयालीस के आन्दोलन में मेरे तीनों नाना और उनके दो चाचा लोग कई महीने जेल में थे। उसका पूरा रिकार्ड भी है। पर मास्टर नाना ने कहा कि जेल वे अपनी मर्जी से गये थे। ईनाम ही लेना होता तो अंग्रेज सरकार से माफी मांग कर पा लिये होते। यह सरकार उसका क्या मोल लगायेगी! लोगों ने फिर एलान किया कि मास्टर साहब सठिया गये हैं।
मास्टर नाना कई काम इस प्रकार के करते थे जो सामान्य समझ में पागलपन थे। मेरी मां मेरे नाना-नानी की इकलौती संतान हैं। लड़का न होना उस समय एक सामाजिक कलंक माना जाता था। इस आशय की किसी बुजुर्ग महिला की मेरी नानी के प्रति की टिप्पणी पर मास्टर नाना भड़क गये थे। घर में तब तक खाना नहीं बना जब तक उस महिला ने मेरी नानी से माफी न मांग ली। इस तरह कुछ महिलाओं का मत था कि गणेश चौथ की पूजा केवल लड़के के भले के लिये की जाती है। मास्टर नाना ने यह एलान किया कि यह पूजा लड़कियों के लिये भी की जाये और मेरी नानी यह पूजा अवश्य करें!
इस समय मेरे तीनो नाना-नानी दुनियां से जा चुके हैं। अब उनकी याद में मास्टर नाना सबसे विलक्षण लगते हैं। मेरी बेटी ने याद दिलाया कि आज शिक्षक दिवस है। अनायास ही यह सब याद आ गया।

प्रणाम करता हूँ नानाजी को.
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सुंदर शब्द चित्र ..एक युग पुरूष का.ऐसे लोग होते तो बिटिया को कलंक न समझा जाता.मेरी नानी को भी यह सब सुनना पड़ा क्योंकि उसकी लगातार ५ बेटियाँ हुयी .पर नाना जी ने हमेसा उनको जानवर समझकर दोयम दर्जे का व्यवहार किया.——————————————एक अपील – प्रकृति से छेड़छाड़ हर हालात में बुरी होती है.इसके दोहन की कीमत हमें चुकानी पड़ेगी,आज जरुरत है वापस उसकी ओर जाने की.
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शिक्षक दिवस की अनुपम भेंट के रूप में आया यह संस्मरण हमें अभिभूत कर गया। आदरणीया रीता जी को प्रणाम। नानाजी को श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ…।
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reeta di… bhaavuk kar gayaa apka sansmaran…mujhey merey badey yaad aaye…
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संस्मरण अच्छा लगा, धन्यवाद!
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रीताजी को धन्यवाद।मेरे दादाजी और नानाजी की याद दिला दी।दोनों शिक्षक थे।हमारे वंश के पहले दो व्यक्ति थे जो अंग्रेज़ी शिक्षा पाकर BA और उसके पश्चात LT की डिगरीयाँ हासिल की थीं।दोनों का नाम भी एक ही था (सुब्रह्मण्यम)दोनों केरळ के पालक्काड जिले में अपने अपने गावों के सरकारी स्कूलों के हेडमास्टर बनकर रिटायर हुए थे।गाँव के लोग उनके बहुत इज़्ज़त करते थे।उन दोनों का सबसे चहेता पोता था मैं।
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सुन्दर संस्मरण!
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आदरणीया श्रीमती पाण्डेय जी ने जिस कालखंड का खाका खीचा है वह अपने नैतिक मूल्यों और समाज के कुछ उन प्रगतिशील प्रकाश स्तंभों के लिए जाना जाता है जिनकी बदौलत ही आज जो कुछ भी समाज में अच्छा है कायम है !ऐसे प्रेरणा स्रोत महापुरुषों को नमन .अगर श्रीमती पाण्डेय जी के साथ आप भी उस काल खंड के अहसास की एक पुनर्खोज यात्रा पर निकलना चाहते हैं तो उन अतीत की पगडंडियों पर -वनारस से गंगा नगर तक के लिए कभी भी आप बनारस आयें मैं आपको ले चलूँगा !सादर ,
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ऐसे दो-तीन लोगों की कहानी सुनी है मैंने भी… जिनसे कुछ-कुछ बातें मिलती हैं. एक “सरकारी गुलामी करेगा” वाले तो हमारे बड़े पिताजी ही हैं. और बाकी बातें मेरी माँ के बाबा से बहुत मिलती हैं … ‘माला बाबा’ कहे जाते थे. बस सुना ही है…सुन के बस यही लगता है… वो भी क्या लोग हुआ करते थे.
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बड़ा अच्छा लगा मास्टर नान जी याद में लिखा यह संस्मरण.शिक्षक दिवस के अवसर पर समस्त गुरुजनों का हार्दिक अभिनन्दन एवं नमन.
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