एस्केलेटर चढ़ने की झिझक


Escalator एस्केलेटर के पास खड़े होकर लोगों को देखना एक नॉन-बौद्धिक कौतूहल पैदा करता है। बौद्धिक कौतूहल वह जो आपको रचनात्मकता की दिशा में सहायता करे। नॉन-बौद्धिक कौतूहल वह जो आपको पोस्ट ठेलने को प्रेरित करे। विशुद्ध पोस्ट ठेलक खुजली जेनरेट हुई बाजार में उस एस्केलेटर पर होने वाली गतिविधियां देख कर।

सुना है इलाहाबाद महानगर छाप हो रहा है। पर एस्केलेटर पर लोग ऐसे चढ़ते हैं मानो एक अजूबा हो। एक लड़की झिझक में अपने मित्रों से पीछे छूट गयी है। उसके साथ वाली आगे चढ़ गयीं और वह वैतरणी कैसे पार करे वाला असमंजस लिये है। मेरी पत्नी से वह लड़की आग्रह करती है – आण्टीजी मुझे अपने साथ पार करा दो। मेरी पत्नीजी स्वयं असमंजस में हैं, वे कहती हैं – मैं तो खुद हिम्मत बना कर चढ़ रही हूं; तुम्हें क्या साथ ले चलूं! इतने में उसकी सहेली वापस आ कर उसे साथ ले चलने को तत्पर हो जाती है।

कुछ स्त्रियां और बच्चे धड़ाके से चढ़ते हैं। बावजूद इसके कि स्त्रियां नकाब में हैं। मैं उनके आत्मविश्वास से प्रभावित होता हूं। शायद इस शॉपिंग मॉल में रेगुलर आने वाले जीव हैं ये। बच्चे तो एस्केलेटर में भी चहलकदमी में एक दो सीढ़ियां फलांगते नजर आते हैं।

एक मोटी सी औरत एक पतले से हसबेण्ड (जाहिर है, उसी का है) का हाथ कस कर थामे एस्केलेटर में चढ़ती आती नजर आती है। विशुद्ध फिल्मी सीन है – रोमांटिक या कॉमिक – यह आप तय करें। औरत के भय और झिझक को देख कर मन होता है कि उनका फोटो ले लिया जाये। पर मैं महिला का कद्दावर शरीर देख अपने आपको कण्टोल करता हूं। उनके पीछे ढेरों चहकती बालिकायें हैं। किसी स्पोर्ट्स टीम की सदस्य सदस्यायें। कुछ जीन्स में हैं, कुछ निक्कर छाप चीज में। कोई झिझक नहीं उनमें। गजब का आत्मविश्वास और फुर्ती है। मुझे फोटो खींचना याद ही नहीं रहता।

मन होता है कि इस जगह को दो साल बाद भी देखूं। आज से उस समय की एस्केलेटर चढ़ने की तुलना बतायेगी कि शहर कितना और शहरी बना!

(घर आ कर अपनी अम्माजी से चर्चा करता हूं, तो उनसे एक और असमंजस व्यक्त करता रिस्पॉन्स मिलता है – के जाइ ओहमें! फंसि जाइ त ओही में पेराइ जाइ! (कौन जाये उस एस्केलेटर पर। फंस जाये तो मशीन वहीं पेर दे शरीर को!))  


अनूप शुक्ल की टिप्पणी

लोग न जाने आपको क्यों बदनाम किये हैं कि आप विविधता वाली पोस्ट लिखते हैं। हम तो ये देखते हैं कि जैसे लोग देश की सारी गड़बड़ी का ठीकरा फ़ोड़ने के लिये नेता का सर तलाशते हैं वैसे ही आजकल आप इधर-उधर न जाने किधर-किधर से तार जोड़कर ब्लागिंग के मेन स्विच में घुसा दे रहे हैं।

प्रति टिप्पणी – ब्लॉगिंग के मेन स्विच का फ्यूज तो नहीं उड़ रहा न उससे! जब फ्यूज इण्टैक्ट है तो क्या फिक्र कि लोड कितना और कैसा है। यह कहां से तय हुआ कि पारम्परिक, प्री-डिफाइण्ड लोड ही डाला जायेगा ब्लॉगिंग सरक्यूट पर? 
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danish एक भूतपूर्व सिमी के संस्थापक सदस्य और आज के हमदर्द विश्वविद्यालय के अध्यापक श्री इश्तियाक दानिश का टाइम्स ऑफ इण्डिया में कथन:

हिन्दू-मुसलमानों में सबसे बड़ा रोग है – एक दूसरे के धर्म और संस्कृति के बारे में बराबर की पाली गयी अज्ञानता।

मैं इस कथन से तनिक भी कम सहमत नहीं हो सकता। पर इसका अर्थ यह न लगाया जाये कि मैं दानिश जी का मुरीद हूं।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

27 thoughts on “एस्केलेटर चढ़ने की झिझक

  1. देर आये पर दुरूस्त आये कि तर्ज पर टिप्पणी कर रहा हूँ :-)आज से लगभग १६-१८ वर्ष पहले (जब हम कक्षा ४-६ में हुआ करते होंगे) का किस्सा है । हर साल गर्मियों की छुट्टियों में मथुरा जाना होता था और वहाँ कृष्ण जन्मभूमि मंदिर में केनरा बैंक के पास लिफ़्ट लगी हुयी थी । वो शायद ३-४ मंजिल तक जाती थी और कुल पचास पैसे का टिकट था । मैं और मेरी बहन भी कई बार शौक शौक में गये । कई बार माताजी ने किस्से भी सुनाये कि कैसे बिजली चले जाने पर बीच में फ़ंसे रह जाते हैं लेकिन हम डरे नहीं :-) उस समय बहुत से लोग कौतूहल से टिकट लेकर देखते थे कि क्या बला है । पता नहीं अब भी देखते होंगे क्या?एक और किस्सा भी याद आ रहा है । लगभग १८ साल पहले जब मेरे मामाजी लंदन गये थे तो दिल्ली हवाई अड्डे पर उन्हे छोडने हम सब गये थे । और वहाँ अपने ममेरे भाई बहनों के साथ हम लोगों ने लिफ़्ट की बोले तो रेल बना दी थी :-) नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे । इसी से याद आया तब कितना खाली था हवाई अड्डा, बहुत कम लोग थे ।एस्केलेटर से लगता है फ़्रेंच लोग बहुत डरते हैं, कारण है कि दो बार पेरिस हवाई अड्डे पर एस्केलेटर बन्द दिखे, सीढी चढ के जाना पडा । ये भी हो सकता है कि बिजली चली गयी हो :-)हमारी एस्केलेटर पर चढ के सीढियाँ चढने की आदत अभी भी नहीं गयी है । नार्मल सीढियों पर एक के बदले दो सीढियाँ चढने की आदत भी अभी कायम है । तीसरी आदत जो ३-४ सीढियाँ बाकी रहते (नीचे आते समय) छलांग लगाने की थी अब नियंत्रण में है लेकिन ४-६ महीने में एक बार उसे भी पूरा कर ही लेते हैं ।काफ़ी लम्बी टिप्पणी हो गयी है लेकिन नियमित पाठकों को इतनी छूट तो होगी ही :-)

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  2. दानिशजी का मुरीद होने में कोई बुराई नहीं । जैसे ही उन्‍होंने देखा कि ‘सिमी’ अपने लक्ष्‍य से भटक गया है और वे उस पर से अपना नियन्‍त्रण खो चुके हैं, उन्‍होंने अपने आप को ‘सिमी’ से अलग कर दिया – विधिवत घोषणा करते हुए । धर्मान्‍धता के लिए बदनाम हो चुके इस्‍लाम में यह अपने आप में अत्‍यधिक साहस भर कदम है ।

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  3. @ विष्णु बैरागी जी – आपने जो कहा, वह सही है। मैं त्रुटि सुधार कर रहा हूं। धन्यवाद।

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  4. चूंकि आप ‘ब्‍लाग गुरु’ हैं और भाई लोग, जाने-अनजाने ही आपकी बनाई पगडण्‍डी पर चलते हैं इसलिए पोस्‍ट की विषय वस्‍तु से अलग हट कर एक निवेदन करने का मुर्खतापूर्ण दुस्‍साहस कर रहा हूं । आपने ‘सदस्‍याएं’ शब्‍द प्रयुक्‍त किया है । कृपया ऐसे उपयोग पर पुनर्विचार करने का उपकार करें । तनिक विचार कर देखिएगा -‘सदस्‍य’ होता तो अधिक ठीक होता । अन्‍यथा लगे तो इस ‘नौसिखिया ब्‍लागर’ को क्षमा करने की उदारता बरतिएगा ।

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  5. ammaaji ne sahee to kahaaघर आ कर अपनी अम्माजी से चर्चा करता हूं, तो उनसे एक और असमंजस व्यक्त करता रिस्पॉन्स मिलता है – के जाइ ओहमें! फंसि जाइ त ओही में पेराइ जाइ! (कौन जाये उस एस्केलेटर पर। फंस जाये तो मशीन वहीं पेर दे शरीर को!))

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