ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति का माध्यम है। पर सार्वजनिक रूप से अपने को अभिव्यक्त करना आप पर जिम्मेदारी भी डालता है। लिहाजा, अगर आप वह लिखते हैं जो अप्रिय हो, तो धीरे धीरे अपने पाठक खो बैठते हैं।
यह समाज में इण्टरेक्शन जैसी ही बात है। भद्दा, भोंण्डा, कड़वा, अनर्गल या प्रसंगहीन कहना आपको धीरे धीरे समाज से काटने लगता है। लगभग वही बात ब्लॉग पर लागू होती है।
सम्प्रेषण का एक नियम होता है कि आप कहें कम, सुनें अधिक। ब्लॉगिंग में समीर लाल यही करते हैं। लिखते संयमित हैं, पर टिप्पणी बहुत करते हैं। टिप्पणियां यह अफर्मेशन है कि पढ़ रहे हैं, सुन रहे हैं।
तीव्र भावनायें व्यक्त करने में आनन-फानन में पोस्ट लिखना, उसे एडिट न करना और पब्लिश बटन दबाने की जल्दी दिखाना – यह निहित होता है।
अन्यथा अगर आपमें तीव्र भावनायें हैं, आप पोस्ट लिखते और बारम्बार सोचते हैं तो एडिट कर उसके शार्प एजेज (sharp edges) मुलायम करते हैं। और तब आपसे असहमत होने वाले भी उतने असहमत नहीं रहते। मैने यह कई बार अपनी पोस्टों में देखा है।
एक उदाहरण के रूप में अनिल रघुराज जी की पोस्टें हैं। नरेन्द्र भाई का एक सद्गुण तीव्र प्रतिक्रियात्मक पोस्ट थी। उसमें जल्दबाजी में यह भी ध्यान नहीं रखा गया कि संजय बेंगानी ने पांच नहीं, दस बिन्दु गिनाये थे। यह तीव्र प्रतिक्रियायें आमन्त्रित करती पोस्ट थी, सो आईं। और उसके बाद भी सिलसिला चला अगली पोस्ट दशानन के चेहरे में भी। यह सब करना गहन रिपल्सिव प्रतिक्रियायें दिला सकता है। पर इससे न सार्थक बहस हो सकती है और न ही एक भी व्यक्ति आपके विचारों की ओर विन-ओवर किया जा सकता है।
अपनी तीव्र भावनायें व्यक्त करने के लिये लिखी पोस्टों पर पब्लिश बटन दबाने के पहले पर्याप्त पुनर्विचार जरूरी है। कई बार ऐसा होगा कि आप पोस्ट डिलीट कर देंगे। कई बार उसका ऐसा रूपान्तरण होगा कि वह मूल ड्राफ्ट से कहीं अलग होगी। पर इससे सम्प्रेषण का आपका मूल अधिकार हनन नहीं होगा। अन्तर बस यही होगा कि आप और जिम्मेदार ब्लॉगर बन कर उभरेंगे।
जिम्मेदार ब्लॉगर? शब्दों में विरोधाभास तो नहीं है न?
| शायद समाधान स्लो-ब्लॉगिंग में है। स्लो-ब्लॉगिंग क्या है?
—- के. सविता, हैदराबाद| टाइम्स ऑफ इण्डिया के “ओपन स्पेस” कॉलम में। |

बहुत सुंदर…. गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं…!
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हॉस्टल में या किसी चाय के ढाबे पर अक्सर होता है कि बात की बात में बात कटने पर कुछ मित्र तमतमा जाते हैं. ब्लॉगर्स के बीच, बीच-बीच में मचने वाला बवाल भी कुछ ऐसा ही. कुछ समय नाराजगी फिर ताल ठोंक कर जुट जाते है ब्लॉगरी के बांके. जैसे स्लम डॉग पर आपके मित्र से कई जगह सहमत नहीं हूं. तमतमाने या तिलमिलाने के बजाय, ताली बजाने का मजा ही कुछ और है. स्लम डॉग पर मेरी राय….स्लम, शिट, स्मेल…जय होआई एम प्राउड ऑफ स्लमडॉग मिलिनेयर, जय हो! आई एम प्राउड आफ इंडियन सिनेमा, जय हो! एक सच्चे भारतीय की तरह मुझे भी खुशी हो रही है कि भरतीय परिवेश पर बनी फिल्म स्लमडॉग मिलिनेयर ने गोलडेन ग्लोब अवार्ड जीत लिया. एक पेट्रियाटिक इंडियन की तरह इस खबर से और एक्साइटेड हूं कि ऑस्कर अवार्ड की दस कैटेगरीज के लिए इस फिल्म को नॉमिनेट किया गया है और इसमें तीन कैटेगरीज में एआर रहमान है. कैसा संयोग है कि रिपब्लिक डे मना रहे हैं और किसी भारतीय संगीतकार का डंका ऑस्कर अवाड्र्स के लिए बज रहा है. ये देख कर अच्छा महसूस हो रहा है मीडिया में २६/११ की खौफनाक खबरों के बाद नए साल में कुछ अच्छी खबरें आ रही हैं. इंडियन मीडिया में अब स्लमडॉग् मिलिनेयर की धूम मची हुई है. अखबार-टीवी पर इसकी जय हो रही है. होनी भी चाहिए. लेकिन एक बात थेाड़ी खटकती है. देश में अच्छी फित्म बनाने वालों की कमी नहीं है. रंग दे बसंती, चक दे इंडिया, तारे जमीं पर, गज़नी.. इधर बीच कई अच्छी फिल्में आईं. इनके रिलीज होने से पहले इन पर काफी चर्चा हुई, शोर हुआ हर कोई जान गया कि फलां फिल्म बड़ी जोरदार. इनमें से कुछ ने ऑस्कर में नॉमिनेशन के लिए दस्तक भी दी लेकिन सफलता नहीं मिली. लेकिन स्लमडॉग मिलिनेयर एक बहुत ही शानदार फिल्म है, इसका म्यूजिक लाजवाब है, इसका पता हमें बाहर से तब चलता है विदेशों में इसकी जय होती है. ठीक है फिल्म वल्र्ड के लोग और क्रिटिक इसके बारे में जानते होंगे लेकिन आम आदमी को इसके बारें में बहुत नहीं पता था. न इंडियन मीडिया में इसका कोई शोर था. लोगों का ध्यान तब गया जब इसने गोल्डेन ग्लोब अवार्ड जीता. मैंने स्लमडॉग मिलिनेयर देखी, एक फिल्म की तरह बहुत अच्छी लगी. कुछ लोगों अच्छा नहीं लगा कि भारत के स्लम, शिट, स्मेल को सिल्वर फ्वॉयल में लपेट कर वाह वाही लूटी जा रही है. फिल्म देखते समय मुझे कभी अमिताभ, कभी दीवार, कभी कभी जैकी श्राफ याद आ रहे थे और तो कभी मोहल्ले की बमपुलिस (सुलभ शौचालय का पुराना मॉडल…अमिताभ बच्चन ने यह नाम जरूर सुना होगा) के बाहर क्रिकेट खेलते बच्चे. मुझे तो फिल्म में गड़बड़ नहीं दिखी. बाकी तो लोकतंत्र है. यह आप पर है कि स्लम के स्मेलिंग शिट और गारबेज पर नाक दबा कर निकल जाएं या उसके कम्पोस्ट में कमल खिलाने का जतन करें.
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केवल जय जय और वाह वाह करती पोस्ट लिखना ब्लॉगिंग की मूल भावना के विरूद्ध है. मुझे सदा अफसोस रहेगा कि हाय-हल्ले में मैं पोस्ट के माध्यम से जो बात कहना चाहता था, वह संप्रेषित ही नहीं हुई. यह बात बहूत बार लिखी गई है कि लिखने के बाद तुरंत प्रकाशित न करें. कुछ देर या एक दिन ठहर कर पूनः पढ़े व पोस्ट करें. मगर मैं भी ज्यातर समय ऐसा नहीं करता. आपने सीधे सीधे लूहार का हथौड़ा मानी गई रघुरायजी की पोस्ट का जिक्र कर आपनी बात कही है. किसी को बूरा लग सकता है. :)
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आपने बहुत सु्दर सलाह दी है. काश सभी इसको थोडा बहुत भी माने तो यह स्वरुप काफ़ी कुछ बदल सकता है. पर समाज मे जिम्मेदार हैं तो तुनक मिजाजों की भी कमी नही है. वैसे आप यह बिल्कुल सही कह रहे हैं कि अपने लिखे को बार बार पढा जाये तो कटुता मित्रता मे बदल जाती है. ऐसा ही एक वाकया मै्ने स्वेट मार्डन के बारे मे पढा था कि कैसे उन्होने जिस महिला को तल्ख पत्र लिखा था औए एडिट करते २ मूल तल्खी अलग रह गई और उसको निमंत्रित कर बैठे..अंतोतगत्वा शादी..:)गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाऎं, और घणी रामराम.
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कल मैं अपने एक मित्र से इसी स्लो ब्लोगिंग का ज़िक्र कर रहा था,सन्डे टाईम्स के इसी ओपन स्पेस स्तम्भ में आए एक प्रश्नोत्तर को पढ़ कर. अपने बिल्कुल सही कहा की पब्लिश बटन दबाने की ज़ल्दी नही करें.इसे मैं अपने लिए भी सीख मानकर ध्यान रखूँगा.मेरी ताज़ा पोस्ट में एसा ही हुआ जो मुझे बाद में पता चला.जोधपुर में महेश शिक्षण संस्थान आज जोधपुर का प्रतिष्ठित संस्थान है जो उच्च और व्यावसायिक शिक्षण में भी आज यहाँ शीर्ष दर्जा रखता है.जोधपुर में अपने स्कूलिंग के दिनों को आप आज भी मोह से याद करते है ऐसा अनुभव कर अच्छा लगा.
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ब्लाग विधा को लेकर अच्छा विमर्श है। यदि संयम,विवेक और जिम्म्ेदारी की भावना न हो तो,लिखना हो या बोलना अन्तत: सबेक लिए घातक होता है।लिख/बोल कर सोचने की अपेक्षा सोच कर लिखना/बोलना ही श्रेयस्कर है-फिर भले ही ‘स्लो’ हो या ‘फास्ट’।यदि आप प्रतिदिन नजर नहीं आते हैं तो लोग भूलने लगते हैं-‘आउट आफ साइट, आउट आफ माइण्ड’ को चरिर्ता करते हुए। सम्भवत: इसीलिए, अचेतन में व्याप्त चिन्ता के अधीन नियमितता के साथ ही साथ ‘फास्टनेस’ अपने आप चली आती होगी।बहरहाल, मुद्दा प्रासंगिक और सामयिक होने के साथ ही साथ औचित्यपूर्ण भी अनुभव होता है।आपने अच्छी बात उठाई।
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आदरणीय भाई ज्ञान्दत्त जी आपको गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं.इससे न सार्थक बहस हो सकती है और न ही एक भी व्यक्ति आपके विचारों की ओर विन-ओवर किया जा सकता है।बिलकुल सही बात है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ज़रूरी है, पर उसकी एक सीमा तो है. सच तो यह है कि इसकी सार्थकता भी इसकी सीमाओं के सम्मान में निहित है.-
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शायद इसीलिये हमारे डैशबोर्ड के ड्राफ़्ट में १५ लेख पडे हैं जो अब आऊट आफ़ काण्टेक्स्ट हो चुके हैं। जोश में लिखा फ़िर छापने में परहेज कर गये।
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गणतंत्र दिवस की आपको ढेर सारी शुभकामनाएं.
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कुछ लोग बिलकुल सोच समझ कर कीचड़ में पत्थर फेंकते हैं, और तमाशा देखते हैं। कुछ बिना विचारे इस काम को करते हैं। कीचड़ का उन्मूलन दोनों से नही होता। दोनों ही अनुचित कृत्य हैं। मैं धीमी ब्लागरी से सहमत नहीं, हाँ नियमित ब्लागरी से सहमति है। यदि कोई ब्लागर नियमित, गंभीर और तेज ब्लागरी करने में सक्षम है तो अवश्य की जानी चाहिए, पर यह काम पूर्णकालिक प्रोफेशन के रुप में ही किया जा सकता है। जिस की संभावनाए हिन्दी ब्लागरी में अभी आय की संभावना नहीं होने से नहीं है। लेकिन इन संभावनाओं को हासिल किया जा सकता है।
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