पारस पत्थर साइकॉलॉजिकल कन्सेप्ट है; फिजिकल कन्सेप्ट नही।
आप किसी भी क्षेत्र में लें – ब्लॉगरी में ही ले लें। कई पारस पत्थर मिलेंगे। माटी में दबे या पटखनी खाये!
मै तिलस्म और विज्ञान के मध्य झूलता हूं। एटॉमिक संरचना की मानी जाये तो कोई ऐसा पारस पत्थर नहीं होता है जो लोहे को सोना बना दे। पर मुझे लोग मिले हैं जिनसे मिल कर निरन्तर सनसनी होती है। और हमारी सोच और कृतित्व में जबरदस्त परिवर्तन होते हैं। लोहा से सोना बनने के माफिक ट्रान्सफर्मेशन होता है।
हमारा नया माली आता है और उजड़े बगीचे को चमन बना देता है। वह तत्वीय विश्लेषण संश्लेषण के सिद्धान्त पर नहीं चलता। वह केवल गोल्डन टच देता है। पारस पत्थर का स्पर्श!
पारस पत्थर साइकॉलॉजिकल कन्सेप्ट है; फिजिकल कन्सेप्ट नही। कोई आश्चर्य नहीं कि अरस्तु मानते रह गये कि तत्व हवा-पानी-आग-मिट्टी के कॉम्बिनेशन से बने हैं। कालान्तर में उनकी इस सोच की हवा निकल गयी जब प्रोटान-न्यूट्रान और उनके सेटेलाइट के रूप में इलेक्ट्रान की परमाणवीय संरचना ने कीमियागरों की सोना बनाने की जद्दोजहद को महज शेखच्चिलीय हाइपॉथिसिस भर बना कर रख दिया।
आज के जमाने में मैं अरस्तू की आउट एण्ड आउट चेला गिरी तो नहीं, पर पारस पत्थर के आइडिया का मेनेजेरियल-स्पिरिचुअल प्रयोग अवश्य करता। या शायद कुछ सीमा में करता भी हूं।
मैं डिवाइन ग्रेस (ईश्वरीय कृपा) और मिराकेल्स (चमत्कार) पर यकीन करता हूं। वैसे ही जैसे भौतिकी-रसायन के सिद्धान्तों पर यकीन करता हूं। गायत्री मंत्र में भी शक्ति है और रदरफोर्ड के एटॉमिक मॉडल में भी। अपने लिये शब्द प्रयोग करूं तो होगा – दकियानूसी-आधुनिक!
बन्धु, आप किसी भी क्षेत्र में लें – ब्लॉगरी में ही ले लें। कई पारस पत्थर मिलेंगे। माटी में दबे या पटखनी खाये! हो सकता है निष्क्रिय हों सक्रियता क्रमांक ३०००+ पर। या अपनी पारभासित आत्मा की भयानक तस्वीर लगाये हों। उनसे प्वाइण्ट ब्लैंक पूछें तो कहेंगे – हेहेहे, हम कहां, वो तो फलाने हैं! वैसे पारस पत्थर आप बाहर ढ़ूंढ़ने की बजाय अन्दर भी ढ़ूंढ़ सकते हैं। शर्तिया वहां उसे पायेंगे!

पारस अंदर भी होता है और बाहर भी। अंदर जो कुछ लोहे की भांति होता है कोई बाह्य पदार्थ उसे उत्प्रेरित कर स्वर्ण में बदल देता है। लौह और स्वर्ण दोनों धातुएँ हैं, एक जैसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन और न्यूट्रॉन से बनी। बस संख्या और जमाव पद्यति का अंतर है। यदि इसी तरह लौह जसी बनावट के किसी प्राणी की अन्तर्वस्तुओं को कोई स्वर्ण जैसी सजावट दे दे तो हम उसे ही पारस कहेंगे। आप चमत्कार में विश्वास करते हों पर वाल्मिकी ने रामायण में स्वर्णमृग के पीछे जाने के पहले राम की सोच को अभिव्यक्त करते हुए कहा कि राम की समझ में कोई चीज चमत्कार नहीं होती। या तो वह प्रकृति के नियमों के अनुसार होती है अथवा छल होती है। उसी छल के अनुसंधान का कर्तव्य लिए राम स्वर्णमृग के पीछे गए और कर्तव्य के पीछे छल के शिकार हुए।
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डॉ माहेश्वरी को नमन ! अब बात आपके लिखे की ! गोल्डन टच तक तो मजा आया मगर तत्पश्चात अचानक ही यह मुझे मिथ्याविग्यानाभास कराने लगा ! मेरी अपनी सीमायें हैं काश हिमांशु जैसा मैं भी महसूस कर पाता ! अलौकिक और मन्त्र शक्ति के अपवाद सांयोगिक हैं और दृष्टि भेद हो सकते हैं -इन पर विश्वास करना इस जन्म में तो मेरे लिए संभव नहीं !
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लोहे से सोना बन सकता होगा लेकिन एक लम्बी प्रक्रिया के बाद . शायद छू भर देनेसे तो नहीं बन सकता . शायद जीवन मे सही राह दिखाने वाला ही हमारे लिए पारस हो
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निश्चित रूप से सत्य . कहा भी गया है कि- जापर कृपा राम कर होई तापर कृपा करई सब कोई .
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हमें तो आपमें भी पारस पत्थर दिखाई देता है ! सच कह रहे हैं !
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यह सच है। मैं भी अपने जीवन से कई व्यक्तियों से मिला जिन्होंने मेरा जीवन बदला, उसमें उत्साह भर दिया।
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बहुत सुन्दर ढ़ंग से मनोभाव अभिव्यक्त किए हैं.”बाहर ढ़ूंढ़ने की बजाय अन्दर भी ढ़ूंढ़ सकते हैं। शर्तिया वहां उसे पायेंगे….”–आप केस में तो दोनों ही उपलब्ध रहेगा. :)
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“बाहर ढ़ूंढ़ने की बजाय अन्दर भी ढ़ूंढ़ सकते हैं। शर्तिया वहां उसे पायेंगे….”सही कहा, इसलिये कहा है…”मुझको कहां ढुढे से बन्दे में तो तेरे भीतर हूँ….”
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अद्भुत अभिव्यक्ति । मैं कह सकता हूं कि मैंने कई दिनो बाद एक बेहद प्रभावी और सशक्त प्रविष्टि पढ़ी । ऐसी प्रविष्टि जिसे मैं नहीं लिख सकता और ऐसी भी जिसे मैं लिखना चाहता हूं ।मुझे मालूम नहीं यह मानसिक हलचल से उत्पन्न अभिव्यक्ति है अथवा मानसिक ध्यानावस्था की स्थिति में बिलोया हुआ नवनीत ।
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डा. एच. माहेश्वरी जी को प्रणाम – मेरे पापा जी भी ऐसे ही “पारस ” थे और हैँ ~~
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