शराफत अली नहीं मिले!


पुरानी पोस्ट: शराफत अली ताला चाभी वर्क्सSharafat Aliमैने शराफत अली को देखा नहीं है। सुलेम सराय/धूमन गंज से उत्तर-मध्य रेलवे के दफ्तर की ओर जो सड़क मुड़ती है, उसपर एक प्राइम लोकेशन पर शराफत अली की औजार पेटी एक मेज नुमा तख्ते पर रखी रहती है। उसकी बगल में टीन का बोर्ड टिका रहता है जिसपर भंगार जैसे ताला-चाभी टंगे रहते हैं। उसके ऊपर लिखा है – शराफत अली ताला चाभी वर्क्स।

जब शराफत अली बैठते नहीं अपनी सीट पर; और उनकी फैक्टरी देख कर लगता है कि तीन शिफ्ट चले, तो भी टर्नओवर बहुत इम्प्रेसिव नहीं हो सकता; तब शराफत अली का गुजारा कैसे चलता होगा?

गरीबी पर्याप्त है और आबादी भी ढ़ेर इस इलाके में। मैं शराफत अली से सिम्पैथियाना चाहता हूं। कल्पना करता हूं कि शराफत अली, शराफत की तरह छुई-मुई सा, पतला दुबला इंसान होगा। — पर तभी मुझे यह खयाल आता है कि इतने प्राइम कॉर्नर पर अगर शराफत अली की चौकी सालों से बरकरार है, तो यह बिजनेस शराफत अली का फसाड होगा। और खूंखार सा आदमी होगा वह!
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पता नहीं, कौन है शराफत अली! एक अदद चौकी की फोटो और अण्ट-शण्ट विचार लिये ठेले जा रहा हूं पोस्ट। फिर कहूंगा कि यही ब्लॉगिंग है!

मेरे दफ्तर में यातायात निरीक्षक श्री राजेश ने शराफत अली जी वाली पोस्ट पढ़ी। वे कौतूहल वश शराफत अली जी को ढ़ूंढने चले गये।

जैसा निशांत मिश्र ने कयास लगाया था, शराफत अली घुमंतू जीव निकले। वे और उनका भाई यह व्यवसाय (शराफत अली ताला चाभी वर्क्स)  देखते हैं। पिताजी का सिखाया हुनर है। राजेश के अनुसार शराफत अली ठीक ठाक कद काठी के और प्रसन्नमन जीव दीखे – कृषकाय और मरीज से नहीं। पान खाये थे। राजेश ने उन्हे बताया कि उनके साहब (अर्थात मैं) उनसे से मिलना चाहेंगे।

एक बार राजेश और गये शराफत जी को लिवाने तो पता चला कि शराफत अली बम्हरौली गये हैं – वहां कोई ताला खोलने का काम है।

मैने राजेश को अपनी शराफत अली वाली ब्लॉग पोस्ट का प्रिण्ट आउट दिया – शराफत जी को देने का अनुरोध कर। सोचा कि यह पढ़ कर शराफत अली को सन्दर्भ समझ आ जायेगा और वे कौतूहल वश शायद मुझसे मिलने आ जायें दफ्तर। पर उस प्रिण्ट-आउट ने अजब गुड़-गोबर कर दिया।

कागज देख शराफत अली को लगा कि कोई बड़ा लफड़ा हो गया है। उसमें लिखा था कि शराफत अली खूंखार टाइप आदमी है। जरूर उन्हे सड़क के इस किनारे से बे दखल कर दिया जायेगा। वे राजेश को बार बार हाथ जोड़ने लगे कि उन्होने कोई गलती तो नहीं कर दी!

इसी बीच शराफत जी ने शायद किसी छुटभैये नेता से भी सलाह ले ली। सलाह यही थी कि कहां रेलवे के बड़े साहब लोगों के चक्कर में आ रहे हो। दूर रहो, वर्ना किसी मुसीबत में फंस जाओगे।

लिहाजा शराफत अली, जो प्रसन्नमन जीव थे, एक अजीब मानसिक उलझन का शिकार हो गये। बार बार सोचते और राजेश को हाथ जोड़ते। भंवर में फंस गया उनका मन।

और शराफत अली मुझसे मिलने को तैयार नहीं हुये।

साहबी और ब्लॉगरी एक साथ नहीं चल सकते!

[अब आते जाते कार से देखता हूं तो जहां पहले मात्र पेटी रखी होती थी, वहां, शराफत अली जी की चौकी पर एक दो लोग बैठे दीखते हैं। शायद आशंका हो रही हो कि कहीं कोई चौकी की जगह से बेदखल न कर दे!]

शराफत अली जी की चौकी पर अब धूप से बचने के लिये छाता भी लग गया है। और बहुधा कोई बैठा भी दीखता है वहां!

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

39 thoughts on “शराफत अली नहीं मिले!

  1. शराफ़त अली बडे शरीफ़ मालूम होते हैं।

    पर केरल में आपको ऐसे लोग नहीं मिलेंगे।
    सीना तानकर, मूँछें उपर करके आपका सामना करेंगे।
    अफ़सरों से ये लोग डरते नहीं।
    मेरे कई अनुभवें हैं इस संबन्ध में।
    कभी लिखेंगे इस विषय पर.
    शुभकामनाएं
    जी विश्वनाथ

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    1. मुझे भी लगता है कि यह उत्तर भारत में पुराने जमाने की लीगेसी है साहबी का रुतबा या भय होना। जहां शिक्षा ज्यादा है, वहां भय कम या नहीं है!

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  2. शराफत अली बस नाम के ही शराफत अली नहीं निकले…

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  3. ब्लागिंग का असर केवल ब्लॉगर पर ही नहीं पड़ता. जाने-अनजाने औरों के ऊपर भी पड़ सकता है.

    हो सके तो शराफत अली जी से आते-जाते एक बार खुद मिल लीजिये. कम से कम वे समझ तो पायेंगे
    कि डरने वाली बात नहीं है. साथ में अपना धंधा ठीक से कर पायेंगे.

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    1. हां यह कर लेना चाहिये। बस; सवेरे दफ्तर जाते दफ्तर पंहुचने की जल्दी होती है और शाम को अगर उस जगह वाहन रोक शराफत जी से मिलने लगे तो पीछे ट्रैफिक जाम लगने का खतरा है।
      पर शराफत जी से मिलना जरूर है!

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  4. साहबी और ब्लॉगरी एक साथ नहीं चल सकते!- चलो, शराफत अली मार्फत ही सही- आप समझे तो. हम कई बार इन्डारेक्ट हिन्ट किये मगर आप कि मानने ही नहीं तैयार!! सो ही आपके अनूप शुक्ल हैं….उनको भी भगवान करे, कोई शराफत अली मिले तो बाज आयें. :)

    शराफत को शराफत के साथ साधुवाद,,,,इस गुढ़ समझाईश के लिए!!

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      1. क्या ये वही समीरलाल हैं जो ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी पर आहत हो गये थे कि लिखने लगे थे:

        किन्तु मेरा अब भी मानना है कि ऐसी बातें नेट पर दर्ज करना गलत है और इस तरह की हरकतों की चाहे वो टिप्पणी की माध्यम से ही हों, मैं घोर भर्तस्ना करता हूँ.
        इस पर ज्ञानदत्तजी ने लिखा:
        आपको अगर कष्ट हुआ तो बहुत क्षमा करें। मेरे लिखने का ध्येय भी यही था कि गूगल सर्च का आंकड़ा निकाल कर कुछ प्रमाणित करना निरर्थक है।

        हमें समीरलाल की टिप्पणी से कोई एतराज नहीं है।(खुश ही हुये कि हमारा चेला मजाक करना सीख रहा है) लेकिन बस डर यही है कि उनकी इस टिप्पणी से हमारा भी मन उनसे मौज लेने के लिये हुड़कने लगता है। और जब हम मजाक करते हैं तो फ़िर वे रोने लगते हैं। आखिरी टिप्पणी करने लगते हैं। :)

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    1. ब्लॉगरी में दुतरफा सम्प्रेषण है। साहबी में एक तरफा मामला है। साहब कहता है, मताहत (या प्रजा?) मुंडी हिलाते हैं। उस मायने में साहबी और ब्लॉगरी में मूलभूत वैमनस्य है।

      अन्यथा साथ साथ तो हिन्दी ब्लॉगरी में भीषण कॉम्बिनेशन चल रहे हैं। सबसे जबरदस्त कॉम्बिनेशन तो चिरकुटई और ब्लॉगरी का है। या स्पष्ट करें तो थेथरई और ब्लॉगरी का है। वरन यह लगने लगता है कि थेथरई सफल ब्लॉगर बनने के लिये एक अनिवार्य इनग्रेडियेण्ट है।

      समीर जी सही कह रहे/हिण्ट दे रहे हैं – बहुधा मन करता है दुकान बन्द करने का। पर फिर चढ़ा देते हैं एक पोस्ट। घसीटे जा रहे हैं ब्लॉगिंग। :(

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  5. जीवन भर लोहे लक्कड़ में डूबे मानुष को आपने कागज दे दिया, वह भी जिसमें उनका नाम लिखा था। अब समोसे आदि भेजिये तब नरम पड़ेंगे।

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  6. शराफ़त अली का डर ’ थ्रू प्रापर चैनल ’ का साइड इफ़ेक्ट है। आप उनकी दुकान पर उनसे मिलते तो शायद वे मिलने के बाद चहकने लगते।

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    1. निश्चय ही! यहां गंगा किनारे आदमियत फ्रण्ट फुट पर और साहबियत बैक फुट पर रहती है। और यहां जितने/जितने प्रकार के लोगों का सम्पर्क हुआ, वह रेलवे के वातावरण में कदापि न होता!

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    1. हां! इन सेवाओं में लड़का आ जाये तो अभिभावक मानते हैं कि सात पीढ़ियां तर गयीं!

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  7. अफ़सर के अगाडी और घोडे के पिछाडी तो जाना ही नही चाहिये खतरा रहता है . यही बात शराफ़त अली को समझ आ गई होगी

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    1. अफ़सर के अगाडी और घोडे के पिछाडी >> यही बात छोटा अफसर बड़े अफसर के बारे में कहता है।
      घोड़ा पता नहीं बोलेगा तो क्या बोलेगा! :)

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  8. शराफत अली की दुविधा बेवजह नहीं होगी …साहबों और नेताओं के बीच फंसे लोगों की दशा से घबराये होंगे !

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  9. @शराफत अली, जो प्रसन्नमन जीव थे, एक अजीब मानसिक उलझन का शिकार हो गये।
    जो आम आदमी साहब लोगों के चक्कर पडा, समझो गया काम से (व्यंग्य है – आजकल बताना ज़रूरी है।)
    दुखद बात है। (यह व्यंग्य नहीं, दिल से निकली बात है।)

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    1. यह प्रकरण बताता है कि गरीब या छोटा-मोटा कारोबार करने वाले के मन में अफसर की क्या ईमेज है – दानवीय है।
      पता नहीं, अंग्रेजों के जमाने की ईमेज है या बाद के सालों में बनी है।
      अफसरी भारत में इसी तरह की ईमेज से अपनी आभा (हवा-पानी) बनाती है! :)

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