डाक्टर से वास्ता पड़ता है बीमार होने पर। उस समय आप (पढ़ें मरीज) केवल डाक्टर की दक्षता नहीं तलाशते। उनकी उपलब्धता, उनकी आपके प्रति सहानुभूति, प्रतिबद्धता, स्पष्टवादिता और उनका कॉमन सेंस – इन सब का समग्र तलाशते हैं।
पिछले दिनों हमें रेलवे ऑफीसर्स की फेडरेशन में कुछ डाक्टरों को सुनने का अवसर मिला। वे हमारे एक साथी विभागाध्यक्ष के असामयिक निधन पर उनकी बीमारी और उपचार के विषय में बता रहे थे। जैसा लाज़मी था, बात रेलवे के चिकित्सा सिस्टम की गुणवत्ता और उपयोगिता पर घूम गई।
कुछ अधिकारी यह कहते पाये गये कि अपने हिसाब से चिकित्सा कराते हैं – रेलवे प्रणाली के इतर। पर कुछ यह भी कह रहे थे कि उन्हे रेलवे की चिकित्सा व्यवस्था पर इतना विश्वास है कि वे रेलवे की चिकित्सा के अलावा कहीं और गये ही नहीं। यानी मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना! पर एक बात जरूर दिखी – जैसा किसी भी सर्विस से होता है – व्यापक असंतोष और आलोचना; वह रेलवे चिकित्सा व्यवस्था के बारे में इस ग्रूप ‘ए’ के अधिकारियों की बैठक में नहीं दिखी।
ऐसा नहीं है कि रेलवे अधिकारी अपनी बैठक में घोर आलोचना नहीं करते। कई मुद्दों पर विषय या व्यवस्था तो तार तार करने की सीमा तक आलोचना मैने देखी है। अत: यह मान कर चला जा सकता है कि बहुत से अधिकारी रेलवे चिकित्सा व्यवस्था को ठीक ठाक मान कर चलते हैं।
जैसे अधिकारी या कर्मचारी अलग अलग स्तर की गुणवत्ता के हैं, उसी तरह डाक्टर भी अलग अलग स्तर की गुणवत्ता के हैं। कई ऐसे हैं, जिनके पास कोई जाना नहीं चाहता। कई इतने दक्ष है कि उनके बराबर कोई शहर या प्रांत में नहीं होगा। यह दूसरे प्रकार के डाक्टर निश्चय ही बहुत व्यस्त रहते हैं।
ऐसे एक दक्ष डाक्टर हैं डा. विनीत अग्रवाल। चूंकि मैं पिछले डेढ़ साल से कई बार बीमार हो चुका हूं, मेरा उनके सम्पर्क में बहुधा आना हुआ है। और जब भी मैं उनके चेम्बर में सोफे पर बैठा अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुये उनका कार्य देखता हूं; मुझे अपने कार्य करने से उसकी तुलना करने का मन होता है।
ट्रेन परिचालन में समस्यायें इंतजार नहीं करतीं कई बार एक नहीं अनेक अनेक कोणों से आपके पास उपस्थित होती हैं। एक समस्या आप निपटा नहीं पाते, दूसरी सामने होती है। आपको बहुत तेजी से निर्णय लेने होते हैं और कभी एक्यूट एमरजेंसी हो गई – जैसे कोई दुर्घटना, तब अनेक निर्णय एक साथ लेने होते हैं। इस तरह की दशाओं से मैं एक दो बार नहीं, लगभग रोज गुजरता हूं।
डाक्टर विनीत अग्रवाल के कार्य को देख कर मुझे यह लगता है कि मेरा और उनका कार्य अलग अलग है, पर समस्या (या उनके मामले में अलग अलग प्रकार के मरीज) को निपटने में जो गुण चाहियें, वे लगभग एक से हैं। … और जैसे (यदाकदा) मैं अपनी दक्षता पर आत्म-मुग्ध होता हूं; डाक्टर अग्रवाल की मरीजों को टेकल करने की दक्षता देख कर उसी प्रकार मुग्ध होता हूं।
एक बार जब वे मेरा रक्तचाप जांच रहे थे, उनके चेम्बर में एक मरीज को उसका सम्बन्धी लगभग घसीटते हुये ले कर दाखिल हुआ। वह मरीज अपने सीने पर हाथ रखे था और उसके चेहरे पर गहन पीड़ा स्पष्ट दीख रही थी। यह आकस्मिक आपात दशा थी। जितनी फुर्ती से डाक्टर विनीत ने उन सज्जन का ईसीजी किया, उनके लिये ह्वील चेयर का इंतजाम किया, आई.सी.यू. को साउण्ड किया और ईसीजी रिपोर्ट पढ़ कर मरीज को आई.सी.यू. भेजा वह मैं भूल नहीं पाता। कोई दूसरा होता तो जरूर हड़बड़ी में समय बर्बाद करता और देरी करता। पर डाक्टर अग्रवाल उस मरीज को देखने के बाद बिना विचलन के मेरा मामला देखने लगे। इस मामले में मैने इक्वानिमिटी (equanimity) का एक प्रत्यक्ष उदाहरण देखा।
मुझे यह नहीं मालुम कि रेलवे डा. विनीत जैसे अच्छे डाक्टरों को अपनी मैडीकल सेवा में भविष्य में रख पायेगी या नहीं। पर यह आशंका जरूर लगती है कि अच्छे डाक्टर (अच्छे अधिकारियों/मैनेजरों की तरह) सरकारी/रेलवे सेवाओं से विमुख होते जायेंगे। इस आशंका के चलते लगता है कि पोस्ट रिटायरमेण्ट चिकित्सा सम्बन्धी जरूरतों के लिये मुझे अपने और अपने परिवार के लिये रेलवे बैक-अप के साथ साथ एक ठीक ठाक मेडीक्लेम पॉलिसी जरूर ले लेनी चाहिये।
और मेडीक्लेम के बारे में सोचने वाला मैं अकेला रेल अधिकारी नहीं हूं!


हर पेशा अच्छे और खराब लोगों से भरा पड़ा है। अधिकारी, कर्मचारी, व्यापारी, पत्रकार, वकील और जज भी बहुत अच्छे और बहुत खराब मिल जाएंगे। आप भाग्यशाली हैं जो आपको अच्छे डॉक्टर से भेंट हुई। डॉ. विनीत अग्रवाल को हार्दिक शुभकामनाएँ।
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धन्यवाद।
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डाक्टर तो सारे ही अच्छे होते हैं जी…प्रागमैटिक होना आज के प्रोफ़ेशनल्स की अतितिक्त योग्यता भी है और अनिवार्यता भी।
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जी हां। अच्छे डाक्टर तो अच्छे होते ही हैं!
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यह जानकर अच्छा लगा की आपके यहाँ के डाक्टर बड़े कर्तव्यनिष्ट हैं. अग्रवाल जी को नमन. आपको मेडिक्लेम की आवश्यकता नहीं पड़ेगी ऐसी मेरी धारणा है और न पड़े यह कामना भी.
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भगवान करे मेडीक्लेम की जरूरत न पड़े। पर तैयार तो रहना ही होगा।
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yahan to aise doctor dekhe hain, jo mareej ki jaan chali jaaye lekin dekhne bhi nahi aate. achchhi baat hai vineet ji ki. lekin ek baat ye ki kahin aapke drm hone ke kaaran to aisa nahi. aur agar yahi vyavhaar inka khalasi ke saath bhi rahta hoga to nischit roop se ye aadarniya hain, anukarniya hain.
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पता नहीं, हिप्पोक्रेटिक ओथ क्या क्या करते हैं वे। अचार डालते हैं!
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कई डॉक्टरों के बारे में प्रचलित है कि वे आधी बीमारी तो अपने बातों से ही कम कर देते हैं और मेरा इस बात में पूरा विश्वास है क्योंकि देखा है कि कुछ डॉक्टर रिपोर्ट देखकर एकदम से चिंतित हो जाएंगे, फिक्रमंद रहकर सलाह देंगे कि ये कर लो, वो टेस्ट कर लो…..मरीज और परेशान, उसके घरवाले और परेशान।
वहीं कुछ डॉक्टर हंसते हुए कहेंगे – कुछ नहीं, जाओ हंसते हंसते टेस्ट करवा लो, कुछ निकलेगा तो नहीं लेकिन करवा लोगे तो अच्छा रहेगा।
जल्दी करवाओगे तो अच्छा रिजल्ट मिलेगा, बीमारी अगर होगी भी तो पकड़ में आ जायेगी वरना बाद में करवाने पर और दो चार टेस्ट करवाने पड़ेंगे….. खर्चा बढ़ेगा।
हाँ, इस तरह के व्यवहार कुशल डॉक्टर कम मिलते हैं लेकिन मिलते हैं।
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ओह, डाक्टर विनीत आपको एश्योर तो करते हैं; पर उनके सेंस ऑफ ह्यूमर को मैं औसत से ज्यादा नहीं मानूंगा! :-)
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प्रतिक्रिया अपने अपने अनुभव के अनुसार होती है। मेरा अनुभव भी ऐसा ही है। परन्तु हिमांशु मोहन के आकस्मिक निधन से रेलवे कर्मचारियों के मन में रेलवे अस्पताल की आकस्मिक परिस्थितियों से निबटने की क्षमता पर संदेह भय पैदा कर दिया है ।
रेलवे कर्मचारी के मन में भय पैदा हो गया है और रेलवे अस्पताल की क्षमता पर सवाल।
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भय लाज़मी है।
हिमांशु मोहन हमारे प्रिय मित्र थे। उनको सदैव प्रसन्न और स्वस्थ पाया है। आकस्मिक निधन तो विषादग्रस्त करता ही है। वह विषाद मुझे भी बहुत समय तक विदग्ध करता रहा।
समस्या यह है कि सतत भय, सन्देह और आशंका के चंगुल में जिया जाये? या इस भय/शंका/आशंका का सार्थक उपयोग किया जाये!
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@और मेडीक्लेम के बारे में सोचने वाला मैं अकेला रेल अधिकारी नहीं हूं!
ये मेडीक्लेम/शालेम खुद ही बुरी बिमारी है … सभी कुछ हमारे हाथ रहा तो राम जी क्या करेंगे ..:) दूर ही रहिये जी .
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पोस्ट रिटायरमेण्ट चिकित्सा कवरेज को कुछ पुख्ता इंतजाम होना चाहिये। भारत में अमूमन इसकी प्लानिंग नहीं करते लोग।
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आपकी सोच से पूर्ण सहमति है। शरीरमाध्यमखलु धर्मसाधनम!
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इन बातों को इतनी गंभीरता से क्या सोचना -जब परमिट कट जाएगा चल देगें अनन्त यात्रा पर ….
वह तो अपरिहार्य है ….
डाक्टर साहब निश्चय ही काबिल है और अपना कम जानते हैं …..
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परमिट कटे और चल दें, अच्छा है। पर जब परमिट तिल तिल कर कटे, तब परेशानी होती है। :-(
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हैदराबाद के लालागुडा रेलवे अस्पताल का अच्छी ख्याति है। यहां की कुछ बिल्डिंगे अंग्रेज़ों के ज़माने की है और देखने लायक है। साथ ही आधुनिक बिल्डिंगे भी हैं। बहुत बडा परिसर है।
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हम तो स्वस्थ्य रहने की कामना करेंगे, दुश्मन को भी न देखनी पड़े डाक्टर की सूरत.
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ईश्वर ही आरोग्य देते हैं और ईश्वर ही आयुर्वेद!
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सुन्दर!
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