मेरी ब्लॉग पोस्टों में शायद शब्द का बहुत प्रयोग है। पुख्ता सोच का अभाव रहा है। लिखते समय, जब कभी लगा है कि भविष्य में अमुक विषय में अपनी सोच को स्पष्टता दूंगा (सोच को फ़र्म-अप करूंगा), तो शायद का प्रयोग करता रहा हूं। बतौर एक टैग के।
अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई में प्रॉबेबिल्टी और सांख्यिकी (Probability & Statistics) मेरा प्रिय विषय रहा है। समय के साथ इन्जीनियरिंग भुला दी, पर हर परिस्थिति में अपने विचार को तोल कर उसे एक प्रॉबेबिल अंक देने की प्रवृत्ति बनी है – आज भी। अत: जब यह लिख रहा हूं कि “मैं लेखक नहीं हूं” तो उसको तोल रहा हूं कि कितने प्रतिशत लेखक हूं मैं – और वह अंक 50% से कम ही बन रहा है।
रिटायरमेंट के समय मन में था कि बहुत कुछ लिखूंगा। अब सवा साल होने को है और लेखन के नाम पर लगभग शून्य है। पहले यह था कि इंटरनेट की दशा खराब थी घर में। ब्लॉग पर जो पहले लिखा था, उसका अवलोकन और सम्पादन नहीं हो पा रहा था। सो ब्लॉग से मन उचट गया। यद्यपि समय का उपयोग पढने और साइकल ले कर अपना गंवई परिवेश देखने में बहुत हुआ। वह अनुभव कम ही लोगों को होता होगा। उस दौरान सोचा भी बहुत। लगता था कि अगर वह सब लिखा जाये तो महत्वपूर्ण दस्तावेज – पुस्तक – बन सकता है। ऐसी पुस्तक जिसे शायद अच्छी खासी संख्या में पाठक मिल सकें।
पर लिखा कुछ भी नहीं।
सो, तकसंगत तरीके से कहूं तो मैं लेखक नहीं हूं। पर मैं यह भी जानता हूं कि जिन्दगी; जो कुछ भी है; तर्कसंगत जैसी कोई चीज नहीं है। जिन्दगी स्पोरेडिक, जर्की, मनमौजी और जुनूनी चीज है। कब कैसी निकलेगी; कब कौन सी राह पकड़ लेगी; कहा नहीं जा सकता। सो पोस्ट की हेडिंग में शायद शब्द का प्रयोग किया है मैने।
यह भी अहसास होता है कि जिन्दगी की दूसरी पारी में समय पहली पारी जितना नहीं है। पहली पारी से अधिक अनुभव है। पर पहली पारी की ऊर्जा नहीं है शायद। और ऊर्जा ऑवर-ग्लास से बहुत ज्यादा झर जाये, उसके पहले उसका पर्याप्त दोहन कर लेना चाहिये।
मैं ट्विटर पर अपनी पिन की हुई ट्वीट पर एक नजर फिर डालता हूं –
“अभी तो इस बाज की असली उड़ान बाकी है। अभी तो इस परिन्दे का इम्तिहान बाकी है। अभी अभी मैने लांघा है समन्दर को। अभी तो पूरा आसमान बाकी है।”
दूसरी पारी के आसमान पर बहुत कुछ लिखना है। पर कैसे लिखोगे जीडी, अगर लेखक नहीं हो? तुम्हारे शब्दकोष में मात्र कुछ हजार शब्द हैं। शायद दो हजार से कम। तुम्हारी एकाग्रता – कंसन्ट्रेशन भी गौरैय्या की तरह है। इधर उधर फुदकती है। पहले अपना व्यक्तित्व बदलो बन्धु।
यह लिख रहा हूं कि शायद इसी से व्यक्तित्व की शायदीयता खत्म हो सके। शायद विचार फुदकने की बजाय फर्म-अप होने लगें।
लिखना है। बाज को उडान भरनी है। शायद।
वैचारिक रूप से किसी विषय में अंतर्द्वंद हो इस चमत्कारिक शब्द का बहुधा उपयोग होता आया है।
और अगर सकारात्मक रूप से लें तो शायद लगाकर हम विनम्रता का परिचय भी दे देते हैं।
आम भाषा में गली तलाश कर लेना….
हनुमान जी भी इसी संशय में थे कि विस्तृत समंदर है शायद उसके परे माँ सीता हो।
जाम्बवन्त जी ने शायद रुपी बादल विच्छिन्न कर उनका मार्ग प्रशस्त कर दिया था।
आप पूर्ण लेखक हैं।
अब समंदर सा विशाल समय खंड आपके समक्ष है।
अपनी अधूरी लेखन क्षुधा को पूर्ण करें सर !!😀
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संभवतः आपमें और लेखक में फर्क सिर्फ इतना है कि… लेखकगण लिखना आरम्भ कर देते हैं सोचते नहीं हैं. और आपने सोचा बहुत अच्छा पर ‘लिखा कुछ भी नहीं’।. बिखरे विचार स्वयं फर्म-अप होने लगेंगे जब आप लिखना प्रारंभ कर दें. आप कई छपे लेखकों से बहुत अच्छा सोचते हैं. बहुत अच्छा लिखते हैं. मैं भी लेखक नहीं तो निश्चित रूप से नहीं कह सकता पर… आप लिखना शुरू कर दीजिये तो एक बात से दूसरी निकलते हुए प्रवाह बन जाएगा। आप अपनी लेखनी को लेकर जितना सोचते हैं उससे कई गुना बेहतर आप लिखेंगे (लिखते हैं).
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प्रेमचन्द का साहित्य पढ़ लें. उनकी पूरी रचनावली में दो हजार से अधिक शब्द शायद ही हों. मैंने उनकी किसी भी रचना में ऐसा नहीं पाया कि शब्दकोश उठाने की जहमत कभी किसी को पड़ी हो.
नाऊ यू नो!
(संकेत – कहीं अटक गए तो हिंग्लिश है ही!)
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जब भी सोचा कि अधिक लिखेंगे तो लिख नहीं पाया। मन नव सृजन के स्वप्न दिखा कर ढीला कर देता है। मन के अनुकूल सब होने लगे तो मन आलसी बना देता है। अनुशासन तो स्वयं पर निर्मम होकर थोपना पड़ता है। पुस्तक का संपादन डेढ़ वर्ष खिसक गया है अब तो।
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आज हर कोई अपनी किताब छपवाकर स्वयम् को लेखक घोषित करने की होड़ में लगा है, वहाँ आपका “शायद” नमनीय है! ईमानदारी से कहूँ तो आपके लेखन की सबसे बड़ी विशेषताऐं यह रहीं कि
1. आपका लेखन विषय का मोहताज नहीं रहा कभी. और जब आपने लिख दिया तो पाठक को सोचने पर विवश होना पड़ा कि यह तो कमाल का विषय है, मेरे मन में क्यों न आया.
2. आपकी लेखन शैली बात करने वाली है. चुँकि मैं इसी शैली में लिखने का प्रयास करता हूँ, इसलिए कह सकता हूँ कि बड़ी प्रभावशाली शैली है! बतियाते हुए, कितनी सहजता से अपनी बात कह जाते हैं आप, जो अलंकृत भाषा में भी संभव नहीं.
3. आपका ऑब्जरवेशन किसी भी साधारण घटना को असाधारण बना देता है. गंगा के कछार पर कितने ऐसे किरदार से आपने मिलाया, जो हमारे लिए विशेष बन गए!
जब आप रिटायर हुए और फेसबुक पर आपने लिखना शुरू किया, अपने गाँव का परिवेश, साइकिल सवारी, परम्पराएँ, अनुष्ठान आदि के बारे में तो मुझे लगा कि ‘मानसिक हलचल’ का नुकसान हो रहा है!
आपकी आगामी पुस्तक, जिसकी हम सब अपेक्षा रखते हैं, का प्राक्कथन यह पोस्ट है! मेरी बधाई स्वीकारें!
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बहुत खूब ।
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आपका किताब लिखने का समय बहुत पहले खतम हो चुका है। अब और देर न करिये। लिखना शुरु करिये। देरी करने पर ’पेलान्टी’ के लिये आप खुद जिम्मेदार होंगे ! 🙂
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यह शायद, यह संशय और यह विनम्रता अच्छी है और इधर यह एक विरल सद्गुण है पर लेखक के लिए यह एक हद तक ही ठीक है . आप लेखक हैं और अपने अनुभव-वैविध्य और पठनशीलता और भाषिक सामर्थ्य के चलते बहुत अच्छे लेखक हैं . अब यह किंतु-परंतु की बहानेबाजी छोड़िए और नया लिखने के साथ अब तक लिखे हुए को समेटिये-सहेजिये-सम्पादित कीजिए और प्रकाशित करवाइये . पाल्थी मारिये और तब तक साइकिल तनी कम चलाइये .
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