पिछले सप्ताह के मेरे कोविड19 विषयक ट्वीट्स

बाईस मार्च को मन में यह था कि कोरोना वायरस शहरी फिनॉमिना है और गांव में रहते हुए उससे बेहतर तरीके से बचा जा सकता है। यह ट्वीट थी उस दिन –

उस दिन जनता कर्फ्यू था। शाम के समय हमने ताली, थाली, घण्टी और शंख बजाया।

अगले ही दिन खबर मिली कि बम्बई से किराये पर एसयूवी ले लोग उसमें ठुंस कर आये हैं गांव वापस। और तब लगने लगा कि गांव शायद उतना सुरक्षित नहीं, जितना सोचता था। शहर का वायरस गांव में भी फैलेगा और यहां शहर जैसी स्वास्थ्य सुविधाएं सोची भी नहीं जा सकतीं।

चौबीस मार्च को शाम प्रधान मंत्री जी ने सम्बोधन किया। इक्कीस दिन के राष्ट्रीय लॉकडाउन की घोषणा की। उसके बाद तुरंत हम अपना घर अलग थलग करने और अपना काम खुद करने की योजना बनाने में लग गये।

कई तरह के विचार थे। कई तरह के पूर्वाग्रह। भारत में कोरोना का संक्रमण का असर कम होगा। काशी-विंध्याचल-प्रयाग की यह पावन(?) धरती अछूती रहेगी कोरोना से। और गर्मी में कोरोना अपने आप भस्म हो जायेगा। ये सभी ख्याली पुलाव थे।

पच्चीस मार्च को शाम घूमने निकला मैं। गंगा किनारे तक गया। अकेले और सोशल डिस्टेंस बनाये हुये। पर परिवार और बोकारो से मेरी बिटिया वाणी ने इस एडवेंचर का कड़ा विरोध किया।

कोरोना के कारण घर में बाहरी लोगों का प्रवेश बंद कर दिया। काम करने वाली महिलायें भी वर्जित। घर की साफसफाई परिवार वाले ही करने लगे। मेरी पत्नीजी का काम बढ़ गया। पर उसके साथ उन्होने रोज आधे घण्टे का समय निकाल अतिथि ब्लॉग पोस्ट लिखना प्रारम्भ किया। वे लगभग नियमित हैं इस कार्य में।

मेरे पठन के साथ नेटफ्लिक्स पर मूवी देखने का काम भी जुड़ गया। लगभग एक फिल्म रोज देखने लगा मैं। कभी-कभी देर रात तक। सामाजिक या इमोशनल फ़िल्में नहीं; सस्पेंस और एक्शन वाली! 😁

राजन भाई (मेरे पहले साइकिल भ्रमण के संगी हुआ करते थे) मेरे घर शायद किसी पारिवारिक मनमुटाव के कारण नहीं आते थे। वे सुबह-शाम की चाय के समय आने लगे। दूर बैठते हैं। सामाजिक डिस्टेंस बना कर। उनसे गांव की खोज खबर मिलती रहती है!

सरकार ने सब्जी, फल, किराना आदि घर घर सप्लाई करने के लिये ठेले और छोटी गाड़ी वालों को परमिट जारी किये। उनके पास रेट लिस्ट भी लगी रहती है। उनसे नियमित आने से बड़ी राहत मिली।

दूरदर्शन ने लोगों को घर में बांधने के लिये रामायण, महाभारत आदि सीरियल फिर प्रारम्भ किये। लोगों को बांधने में ये पर्याप्त सफल प्रतीत हो रहे हैं।

गांव में सप्लाई करने वाले किराना वालों का सामान मन माफिक ब्राण्ड का नहीं है, फिर भी यह सेवा बहुत अच्छी लग रही है। कुछ नहीं से यह सेवा लाइफ लाइन सरीखी है।

उनके फोन नम्बर भी नोट करना प्रारम्भ कर दिये मैंने। किराना, दवा, सब्जी वालों के नम्बर अब मेरे फोन की कॉन्टेक्ट लिस्ट में हैं।

कोरोना का कहर चल रहा है। लोग भयभीत हैं। गांव में भी सड़केँ वीरान हैं। आधे से ज्यादा लोग किसी न किसी तरह का मॉस्क पहने हैं। पर प्रकृति कोरोना से बेखबर है। गेंहू की फसल हमेशा की तरह पक गयी है और आम के बौर टिकोरों को जन्म दे चुके हैं।

यह कठिन समय है और जिन्दगी भर याद रहेगा। भविष्य की ट्वीट्स इसी तरह ब्लॉग पर लम्बे समय के लिये रखने और बाद में आसानी से पाने करने की सहूलियत के लिये संजोता रहूंगा।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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