पौने तीन बजे नीद खुली और तीन बजे बिस्तर छोड़ दिया। रात भर बारिश होती रही, रुक रुक कर पर ऐसी कि वर्षा का अहसास सतत बना रहा। और अचानक इतनी तेज हुई कि डेढ़-दो घण्टे तक बिना सांस लिये पानी उंड़ेल दिया इंद्रदेव ने।
कमरे में टेबल लैम्प जलाया। एयरकंडीशनर का सेटिंग तीन डिग्री और बढ़ाया। एक कप बिना दूध की चाय बनाई और आज का अखबार पलटा – डिजिटल अखबार।

माधव गाडगिल की किताब – A Walk Up the Hill: Living with People and Nature का रिव्यू छपा है। माधव गाडगिल विख्यात पर्यावरणविद हैं। उनकी किताब का संक्षेप किण्डल पर उतारा। उनकी इस किताब का हिस्सा ऑडीबल पर भी सुना। मन ललच गया किताब खरीदने को। पर इस लालच के कारण कई पुस्तकें खरीद चुका हूं और बिना पढ़े अनेक पुस्तकें कतार में लग गयी हैं। यह भी वैसी हो जायेगी? पत्नीजी के साथ बात की। यह तय किया कि महीने का एक बजट होना चाहिये पुस्तकों का। उससे आगे जाना ही नहीं चाहिये।

अभी तय नहीं कर पाया हूं, पर करीब डेढ़ दो घण्टा इसी पुस्तक के रिव्यू पढ़ने और सार संक्षेप पलटने में लगा है। कई दिन भोर का समय इसी तरह की गतिविधि में जाता है। आज भी वैसा रहा।
पौने छ बजे घर से निकल बगीचे को झांका। सूर्योदय होने में अभी समय है। पर आज आसमान इतना भरा है बादलों से कि सूर्योदय दिखेगा ही नहीं। सारी वनस्पति, सारी प्रकृति नहा रही है। पानी के गिरने की अनवरत ध्वनि आ रही है।
इस साल एक अंतराल बिना वर्षा के रहा है और मेढ़क कर सोने चले गये थे। पर आज रात वे पुन: निकल कर टर्र टर्र करने लगे। इस साल मौसम की अनिश्चितता से बेचारे भ्रमित हो गये होंगे! और मेढ़क ही नहीं बहुत से अन्य जीवजंतु भी भ्रमित दीख रहे हैं।
अंधेरा है, पर मोबाइल कैमरे को नाइट मोड पर रख कर दो चार चित्र लेता हूं बगीचे के। सब कुछ पनीला है और हरा भी। दिन भी ऐसा ही रहने की सम्भावना है। अक्तूबर के हिसाब से बिल्कुल ही अलग प्रकार का मौसम।
बारिश हो रही है, फिर तेज और फिर और तेज। आज होती रहेगी। बाजार जाना है। शायद वह न हो पाये। सामान्य से अलग दिन ज्यादा अच्छा लगता है!
सवेरे तेज बारिश में चिड़ियों के पास बैठना आनंददायक नहीं रहा। कव्वे तो आये ही नहीं, और पितृपक्ष में वे पूर्वजों का प्रतिनिधित्व करते हैं – आज पूर्वजों ने भोजन नहीं किया। लंगड़ी मैंना और उसका मरसेधू जो यहीं रहते हैं और कहीं नहीं जाते; थे; पर वे भी बारिश से परेशान थे। चरखियां एक बार आयीं पर अपने भीगे पंख ही सम्भालती रह गयीं। रोटियां खाने वाले थे ही नहीं। बुलबुल, रॉबिन और गिलहरी की आज एबसेण्ट लग गयी।
नमकीन (या फीकीन चूंकि हमने उनकी किडनी खराब न हो, इसलिये विशेष रूप से फीकी नमकीन का इंतजाम किया है।) के ग्राहक भी बहुत कम थे। अतिवृष्टि से पेड़-पौधे तो शायद प्रसन्न हैं; पर पक्षी परेशानी में हैं।
… मैं फिर पुस्तक कर लौटता हूं। क्या किया जाये? माधव गाडगिल जी की किताब खरीद ली जाये?! पुस्तक की किण्डल पर संक्षेप से पता चलता है कि माधव गाडगिल जन्मना ब्राह्मण होने पर भी जातिगत श्रेष्ठता के हिमायती नहीं हैं। यद्यपि मैं भी नहीं हूं, पर जब अम्बेडकर वादी और तथाकथित समाजवादी (जो मूलत: घोर ब्राह्मणविरोधी जातिवादी हैं) ब्राह्मण और रामचरितमानस को गरियाते हैं तो मैं प्रतिक्रिया में दक्षिणपंथी खेमे में अपने को गया पाता हूं। इसलिये बहुत सम्भव है कि माधव जी का सारा लिखा न रुचे, पर किताब पढ़ने का मन तो हो ही रहा है।




amuman janmjat brahman aise nahi hote.. aapki tarah hi hote hain.. basharte ki naye naye na bane ho..
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