वर्षा – ग्रेजुयेट चायवाली

बनारस में मेरी पत्नीजी और मैं स्पेंसर के मॉल पर जा रहे थे। रामकटोरा और महमूरगंज के संधि स्थल पर हमारे वाहन चालक, अशोक ने हमें कार से उतारा और पार्किंग की जगह तलाशने लगा। पत्नीजी आगे बढ़ गयीं पर पीछे चलते मेरी निगाह एक ठेले पर पड़ी। लिखा था – ग्रेजुयेट चायवाली। कई ग्रेजुयेट चायवाले होंगे। पर चायवाली शायद ही हो। वह भी जो उस तथ्य का विज्ञापन करने में गुरेज न करती हो। मैं ठिठक गया।

ठेले के पीछे एक पीला स्वेटर पहने लड़की/महिला ने झुक कर मुझे देखते हुये पूछा – क्या देख रहे हैं अंकल जी?

“यही, ग्रेजुयेट चायवाली पढ़ रहा हूं।”

वह मेरे सामने आ कर बोली – “मैं ही हूं, ग्रेजुयेट चायवाली। अंकल एक मिनट, मैने पानी भरने के लिये बाल्टी लगा रखी है, वह ले कर आती हूं, फिर आपसे बात करती हूं।”

वह फुर्ती से नल पर लगी बाल्टी उठाकर ठेले के पास लाई और फिर मेरे पास आ कर अपनी राम कहानी बताने लगी। सन 2012 में ग्रेजुयेशन किया। फिर शादी हो गयी। दो बच्चे भी हो गये। अब उसे लगा कि अतिरिक्त आमदनी की जरूरत है। चाय बेचने की सोची। चूंकि ग्रेजुयेट थी तो वही साइनबोर्ड बना लिया।

मैने कभी विज्ञापन का एक नियम पढ़ा था कि अगर आपका प्रॉडक्ट उम्दा है और उसमें ग्राहकों की निगाह में कोई आभासी नुक्स है तो उसको छिपाना नहीं चाहिये। वह जाहिर हो ही जायेगा और छिपाने का खामियाजा हो सकता है। उस आभासी नुक्स को और बड़े फॉन्ट में दर्शाना चाहिये। यह महिला चाहे-अनचाहे उस विज्ञापनी नियम का पालन कर रही थी। महिला चाय बेचे, वह भी घर की देहरी पर नहीं ठेला लगा कर, सड़क के तिराहे पर – यह लोगों को अजीब लग सकता है। बनारस जैसे कंजरवेटिव शहर में और भी। पर यह महिला उस झिझक को बड़े मुखर अंदाज में ठेंगा दिखा कर चाय बेचने का उपक्रम कर रही थी। बहुत अच्छा लगा मुझे!

उसने अपना नाम बताया – वर्षा। अपनी फोटो लेने की भी सहर्ष अनुमति दे दी।

मेरी पत्नीजी काफी आगे बढ़ चुकी थीं। सड़क पार कर स्पेंसर के आउटलेट पर पंहुचने वाली थीं। उन्होने पीछे मुड़ कर मुझे देखा नहीं। वर्षा की तरह वे भी कॉन्फीडेण्ट महिला हैं। अन्यथा, यूपोरियन संस्कृति के अनुसार वे अपने पति के चार कदम पीछे चला करतीं! :lol:

मेरे पास और रुक कर वर्षा से बातचीत करने का अवसर नहीं था। अन्यथा बहुत से प्रश्न मन में थे। पति क्या करते हैं? बच्चे कितने बड़े हो गये हैं। घर का रहन सहन, स्तर कैसा है। आदतें मध्यवर्गीय हैं या वर्किंग क्लास की? परिवार के अन्य लोगों ने कैसे रियेक्ट किया चाय का ठेला लगाने में? किसने और कितना सपोर्ट किया और किसने कितनी आलोचना की? अनेकानेक प्रश्न…

पता नहीं, वर्षा से आगे कभी मुलाकात हो या न हो। उसे चाय का ठेला लगाये दो महीने हो गये हैं। उसकी बातों से और हाव भाव से स्पष्ट था कि उसमें आत्मविश्वास और जोश बहुत है। मैं शुभकामना करता हूं कि बरक्कत हो वर्षा के उद्यम में। आगे वह एक रेस्तराँ की, रेस्तराँ चेन की मालिकिन बने।

मैं पत्नीजी के पीछे तेजी से बढ़ गया।

वर्षा की जय हो। आगे कभी मिला तो उसके ठेले पर चाय पीयूंगा!

एक लम्बे अंतराल के बाद लिख रहा हूं मैं। लगता है लिखना भूल गया हूं। आज सवेरे सूर्योदय पूर्व घर के बाहर ध्यान करते विचार आया – और कुछ तुम कर नहीं सकते, लिखो, जीडी। आगे तीन दशक जीने की चाह रखते हो, तो वह बिना कुछ नियमित किये कैसे होगा? यह बताने के लिये कि जीवित-जीवंत हो, लिखो। … और फिर आज वही कर रहा हूं। :-)


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

12 thoughts on “वर्षा – ग्रेजुयेट चायवाली

  1. लिखते रहें, न लिख पाने की टीस बड़ी सालती है।

    यूपोरियन समृद्ध शब्द है, अनेकों अर्थ समेटे।

    सादर

    प्रवीण

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  2. आपकी लेखनी में महिला चरित्र कम दीखते थे, आज २-२ के बारे में पढ़ा (वर्षा और दीनानाथ की मेहरारू) तो अच्छा लगा. आप जैसे सहज लेखक को इनके बारे में और लिखना चाहिए – किसी फेमिनिज्म की अवधारणा के अंतर्गत नहीं बस यूं ही. एक पूरा gender का perspective अवहेलित क्यों रहे! आपकी झिझक भी समझ में आती है अतः रीताजी को साथ ले के जाना अच्छा आईडिया है!

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    1. टिप्पणी के लिये बहुत धन्यवाद आरती जी। पत्नीजी को साथ ले कर चलने के विचार को आपने बल दिया। अच्छा लगा। वैसे मैं लिखता अपनी पत्नीजी को दिखा कर ही हूं!
      महिलाओं के बारे में लिखा कई बार देख लेता हूं – कुछ अनुचित न लिखा जाये!

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  3. आपकी लेखनी में महिला चरित्र दीखते नहीं थे. (आपकी झिझक भी समझ में आती है.) पर आज बहुत दिनों बाद २-२ दिखे (वर्षा और दीनानाथ की मेहरारू) तो पढ़ कर बहुत अच्छा लगा. मैं ऐसी कई महिलाओं से मिली हूँ जिन्होंने पुरुष प्रधान क्षेत्रों में सफलता पाई, आसानी से नहीं बहुत मुश्किलों से. और बहुत मजबूरी में ही उन्होंने ऐसे क्षेत्रों में कदम रखा था, किसी फेमिनिज़्म की अवधारणा को प्रूव करने के लिए नहीं। आप जैसे सहज लेखकों को उन के बारे में लिखना चाहिए, और पत्नीजी को साथ ले के जाना भी अच्छा आईडिया है. आप एक बिलकुल नया perspective पाएंगे!

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  4. बहुत सुंदर। वर्षा जी को हमारी भी शुभकामनाएँ। बहुत दिनों बाद आप भी आए तो अच्छा लगा। लिखते रहिए। हम पढ़ते रहेंगे।

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    1. Graduate – हिंदी अशुद्ध लिखना व्यापक है! उसको पढ़ते समय अपने हिसाब से ठीक करना होता है। :-)

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