मैं अढ़सठ साल का हो चुका हूं। छ महीने में उनहत्तर का हो जाऊंगा। मेरी कैरीयर की जद्दोजहद का काल पूरा हो चुका है। मैं अपनी कॉलिंग की छटपटाहट अनुभव करता हूं। कॉलिंग जिसमें रुचि हो, ध्येय हो और जिसमें अर्थ कम परमार्थ अधिक हो। साइकिल चलाना और घर में गोल गोल चलाते हुये पुस्तक सुनना उसी का एक हिस्सा है। अपना स्वास्थ्य सुधार कर शरीर और मन को आने वाले समय के लिये तैयार करना उसी तैयारी का भाग है। पर वह कॉलिंग क्या है?
मैं बचपन से ही सोचना और लिखना चाहता था। पर करीयर में जो काम मिला उसमें रुक्षता थी। भाषा का खुरदरापन था। कभी कभी ऐसा भी कहता था कि उस भाषा से पुलीस का हवलदार या थानेदार भी सकुचा जाये। मुझे अपनी भाषा को सुधारने में बहुत मशक्कत करनी पड़ी। भाषा सुधार की प्रक्रिया में अपनी प्रकृति में भी परिवर्तन करने पड़े। जो हुआ वह अच्छे के लिये हुआ। मेरे ब्लॉग ने उस प्रक्रिया में सार्थक भूमिका निभाई।
अब, पिछले साल भर से एक ठहराव फिर आ गया है। मानसिक हलचल चलती है पर उसकी अभिव्यक्ति सूखती सी प्रतीत होती है। यह पूरी तरह आंतरिक प्रतिक्रिया है। पर उस सूखे और अभिव्यक्ति के अकाल से उबरना पड़ेगा ही!
आज सवेरे भोर में जब नींद खुली तो विचार मन में था – ज्ञानदत्त, चाय की एक दुकान खोल लो।
चाय की दुकान कोई यूं ही आया विचार नहीं है। चाय बनाना पाकशास्त्र मेंं सबसे आसान चीज है। किसी को कुछ नहीं आता तो चाय तो बना ही सकता है। मैं भी वह कर लेता हूं। चाय के साथ विविध प्रयोग भी मैने कर लिये हैं। घड़ी सामने रख कर यह भी तय कर लिया है कि कितना खौलाना है। अदरक, कालीमिर्च, चायमसाला और चायपत्ती प्रति कप कितनी मिलानी है और दूध का प्रयोग किस प्रकार करना है कि दूध फटे नहीं — यह सब इतना कर लिया है कि एक थीसिस लिख सकता हूं। और बात केवल चाय बना सकने की नहीं है। चाय प्रेम भी प्रकृति प्रेम से कम नहीं है। एक दो दिन उपवास करना हो और चाय निरंतर मिलती रहे तो वह कष्टप्रद नहीं लगेगा। अकाल तख्त वाले दर्शन सिंह फेरुमान जो 65 दिन भूख हड़ताल के बाद वाहेगुरू को प्यारे हुये थे, और जो दिन में एक बार कड़ा-प्रसाद का भोग भर लगाते थे, अगर साथ में चाय की प्रॉपर सप्लाई का सेवन भी करते रहते तो अनशन का सैंकड़ा लगा जाते! भारत में एक बड़ी जनसंख्या चाय सेवन को उपवास में बाधा नहीं मानती है।
बिट्स पिलानी के दिनों में नूतन मार्केट की चाय की दुकानें हम जैसे चाय वीरों के बल पर ही फल फूल रही थीं। सो चाय के साथ आधी शताब्दी से नाता है! :lol:
बहुत पहले से मन में एक साध पली हुई है कि बारिश का मौसम हो, उमस न हो और खपरैल की छत वाली चायकी चट्टी पर कोने के बेंच मेरे लिये रिजर्व हो। वहां बैठे घंटों गुजारे जायें। वही नोश्टॉल्जिया स्वप्न में प्रेरित कर रहा होगा कि “ज्ञानदत्त, चाय की एक दुकान खोल लो।”

चाय या समोसे जैसी ‘तुच्छ’ वस्तु की दुकान वाले उसे लुभावना शीर्षक देते हैं। मसलन वह चाय का ठेला लगाने वाली महिला ग्रेजुयेट चायवाली का होर्डिंग लगाये थी। उसी तर्ज पर भोर में उठते हुये मेरे मन में चाय की दुकान का शीर्षक भी कौंध गया था – गजटेड/राजपत्रित चाय की दुकान।
राजपत्रित रिटायर्ड लोग किसी हिल स्टेशन या फिर बैंगलुरू, पुणे या किसी बड़े शहर में रहते हुये पॉश लोकेशन के अपार्टमेण्ट की आर.ड्ब्ल्यू.ए के मैनेजमेण्ट में घुसे हुये अपना प्रोफेशनल ज्ञान उंडेलते रहते हैं। कोई मेरी तरह नहीं होता होगा जो कटका जैसे छोटे रेलवे स्टेशन के बगल में चाय की चट्टी खोल कर बैठने की सोचे। एक डाउन-टू-अर्थ चाय की चट्टी पर राजपत्रित का उपसर्ग लगाने से दुकान आने जाने वालों का ध्यान खींचेगी और एकबारगी लोग चाय पीने आ ही जायेंगे।
मेरे साले लोगों का एक पेट्रोल पम्प गांव में खुला है और उनकी मेहनत के कारण खूब चलता है। बगल में ही वे एक ढाबा भी बनवा रहे हैं। ढाबा ट्रक और कार वालों को सर्व करेगा। उन्ही की पिग्गी-बैकिंग करता हुआ मैं एक ओर चाय की चट्टी बना सकता हूं – “मानसिक हलचल। राजपत्रित चाय की दुकान।” चाय बेचने के साथ साथ मैं वहां अपने ब्लॉग के बारे में भी आने जाने वाले पथिक लोगों से इण्टरेक्ट कर सकता हूं। अस्सी घाट की काशीनाथ सिंह वाली पप्पू चाय की दुकान की टक्कर की चीज कायम की जा सकती है। क्या पता, चाय की दुकान जितनी चले उससे ज्यादा मेरे की-बोर्ड से “काशी का अस्सी” छाप कोई कालजयी कृति निकल आये।
अभी बहुत सी पृष्ठभूमि का काम करने की जरूरत है। दस पंद्रह दिन तो चाय बनाने के बारे में यूट्यूब पर वीडियो देखने हैं। कुछ चाय विषयक पुस्तकें तलाश कर पढ़नी हैं। चाय का समा बांधने के लिये आधा दर्जन ब्लॉग पोस्टें ठेलनी हैं। कुछ चाय प्रेमी चरित्र तलाशने हैं। चाय बनाने के अलावा वह सब कुछ चाय की चट्टी के पेरीफेरल करना है जिसमें मन लगता है। … आप शर्त लगा सकते हैं की राजपत्रित चाय की दुकान मूर्तरूप लेगी या नहीं। अभी तो भोर का सपना/विचार था, वह आपको बता दिया!
