<<< ऑडीबल पर अज़दक की किताब >>>
मैं शायद अमेजन पर ट्रेवलॉग्स तलाश रहा था। कोई भी ट्रेवलॉग चीन से सम्बंधित। मैने पीटर हेसलर की ‘द रिवर टाउन’ खत्म की थी तो चीन के बारे में ही कुछ नया तलाश रहा था। अमेजन और गुडरीड्स ने मेरे पास प्रमोद सिन्ह की किताब ‘बेहयाई के बहत्तर दिन’ ठेल दी। पुस्तक की टैग लाइन थी – पुरबिया संगीन, मोस्टली चीन, एक सफ़रनामा। मैं किताब शायद खरीद लेता, भले ही तीन सौ रुपये खर्च करने पड़ते, पर यह पेपरबैक में थी, किंडल पर नहीं। हाथ खरीद क्लिक करते रुक गया।
मेरे लिये प्रमोद सिंह, प्रमोद सिंह नहीं अज़दक हैं। अज़दक उनका ब्लॉग है। अज़दक नाम उन्होने बर्तोल्त ब्रेख्त के नाटक के एक पात्र पर रखा है।
ब्लॉग के शुरुआती दौर में उनसे परिचय हुआ था। वे सेकुलरहे खेमे के हैं और मैं दखिनहा। जमा नहीं था उनका साथ। उनका लिखा अच्छा तो लगता था, ललचाता भी था, पर यह हमेशा मन में बना रहा कि यह बंदा जबरी स्नॉब बनता है। एक बार शायद प्रमोद सिंह का फोन भी आया था, किसी ट्रेन में रिजर्वेशन के लिये। पर वह नम्बर मोबाइल बदलने या पुराना पड़ने के कारण डिलीट हो गया है। उस बात को भी डेढ़ दशक हो गये। अब अचानक अमेजन ने प्रमोद सिंह ‘अज़दक’ को मेरी ओर ठेला।
मैने ‘बेहयाई के बहत्तर दिन’ तो नहीं खरीदी पर प्रमोद सिंह की दूसरी किताब – अजाने मेलों में – ऑडीबल पर और किंडल पर सजा ली। मेरे पास दोनो के अकाउंट हैं और अजाने मेलों में ऑडीबल पर फ्री है किंडल अनलिमिटेड पर भी उपलब्ध है; सो मुझे एक छदाम भी खर्च नहीं करना पड़ा।
आज सवेरे कोहरे की गलन में मैने सवेरे की सैर के दौरान अजाने मेलों में को ऑडीबल पर ऑन कर दिया। आठ साल में पहली दफा घर के बाहर घूमने निकल गया। और मेरे लिये यह बड़ा सरप्राइज था कि पुस्तक मुझे पसंद आई। बहुत पसंद आई। ऑडीबल पर इसे किन्ही नचिकेत देवस्थली जी ने सुनाया है और बढ़िया सुनाया है। सामान्यत: हिंदी पुस्तकें ऑडीबल पर उतने स्तरीय आवाजों में नहीं हैं, जितनी अपेक्षा होती है। नचिकेत ने बढ़िया वाचन किया है।
ब्लॉगिंग के दौरान तो अज़दक जी से छत्तीस का आंकड़ा था। उन्हें और अभय तिवारी को मैं स्नॉब ही समझता रहा। यूं शायद मैं भी दूसरी ओर का स्नॉब ही रहा होऊं। अब उनकी किताब सुन रहा हूं तो अच्छा लग रहा है। उनका तो पता नहीं, मेरी अपनी रेल अफसरी की स्नॉबरी भी तो अब नहीं है। अब भगेलू की गईया के पगुराने तक को जब मैं प्रोफाउंड दार्शनिक अंदाज से देख सकता हूं तो अज़दक तो एक जबरदस्त लिक्खाड़, यायावर, दार्शनिक, सिनेमा वाले और केरीकेचर बनाने वाले (और भी जो मुझे मालुम नहीं) जैसी हस्ती हैं; तो उनसे काहे का पंगा!
सामान्यत: मुझे किसी का लिखा पसंद आता है तो मेरा एक (कमजोर) पक्ष उस व्यक्ति की भाषा, उसके विचार, उसकी शैली नकल करने लगता है। अब चूंकि प्रमोद सिंह जी की किताब सुनने के दौरान भी उस तरह के भाव मन में उट्ठे, तो माना जा सकता है कि उनकी पुस्तक (बहुत) पसंद आई। मजे की बात यह है कि यह अथवा इस जैसा बहुत कुछ प्रमोद जी के ब्लॉग पर भी उपलब्ध है। पर तब उसे ज्यादा तन्मयता से पढ़ा नहीं, जब वे ब्लॉग पर सक्रिय थे। पढ़ा तो अब भी नहीं, सुना है। पर शायद सुनने की प्रक्रिया प्रमोद के लेखन को ज्यादा ग्राह्य, ज्यादा प्रिय बना रही है।
मैने सवेरे की सैर के दौरान इस किताब से “किताबों की आलमारी” नामक कहानी और आधुनिक लोक कथा वाले खंड से आधा दर्जन आख्यान सुने हैं। मैं यह नहीं कहूंगा कि कहानी जैसे हम बचपन से सुनते आये हैं या जैसे अब भी सुनते हैं, वैसी हैं। ये तो वे हैं जैसे प्रमोद सिंह जैसा विद्वान अलर बलर कहे जा रहा हो और जिसके कहे में हम कुछ वाक्य, कुछ सोच, कुछ जिंदगी के हिस्से सुन कर अहो भाग्य पाते हैं। रसूल हम्जातोव की ‘मेरा दागिस्तान’ पढ़ कर मुझे लगता था कि मैं जो कुछ भी कहना चाहता हूं, रसूल हम्जातोव जैसी शानदार भाषा में कहूंगा। अब, प्रमोद सिंह को पढ़ (सॉरी, सुन) कर लग रहा है कि उनकी कलम चूम लूंं। उनके जैसा लिखने की योग्यता पा जाऊं। उनके स्टाइल में कहानी कहने का हुनर आ जाये मुझमें।
प्रमोद जी ने क्या नहीं किया। यात्रा की हैं, गद्य लिखा है, पतनशील साहित्य (क्या होता है?) लिखा है, सिनेमा स्क्रिप्ट में रोजीरोटी कमाई है, स्केच बनाये हैं, पॉडकास्टिंग में आवाज आजमाईश की है। क्रियेटिविटी के ऑलराउंडर!
“आदमी जीवन को नहीं पढ़ पाता तो किताब पढ़ने लगता है। सोचता है किताब पढ़ते-पढ़ते एक दिन जीवन को पढ़ने लगेगा।”, प्रमोद सिंह का एक जगह इस किताब में कहना है। सब तरह की विधाओं पर हाथ अजमाने वाले ये सज्जन लगता है किताबों और किताबों की अलमारी पर गहरे में फिदा हैं। उनको जीवन समझने का अचूक नुस्खा मानते हैं। कुछ कुछ मेरी तरह।
अभी छ घंटा की ऑडिबल पर यह पुस्तक बची है। पढ़ लूंगा तो तय करूंगा कि उनका चीन वाला ट्रेवलॉग खरीदा जाये या नहीं। खैर, उनका लेखन, अगर पतनशील लेखन है तो भी, मजेदार है!
अज़दक ब्लॉग का लिंक – http://azdak.blogspot.com/
[चित्र – अज़दक की ऑडीबल पर सुनी जा रही पुस्तक और उनका एक स्केच। दोनो के स्क्रीनशॉट्स हैं।]
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प्रमोद सिंह, अज़दक के बहाने कभी कभी याद आता है सन 2008 से 2012 तक का हिंदी ब्लॉगिंग का वह समय। सौ दो सौ लिखने वाले थे और तीन चार सौ पोस्टों पर टिपेरने वाले। उन तीन चार सौ में वे सौ दो सौ शामिल होते थे। और कितना गहन वार्तालाप हुआ करता था।
कहां गये वे सब चिठेरे (ब्लॉगर्स)?



अपन ब्लॉग जगत थे और अब भी आपका ब्लॉग पढ़ते हैं। भले ही टीपियाते कम हैं।
प्रमोदजी को पढ़ना तब भी लुभावना था। उन्हें पढ़ना माने नए शब्द और नए अर्थ जानना रहा। साथ ही शब्दों को एक नए अर्थ में पेश करने की कला भी उनकी लेखनी सिखाती रही।
उनके ब्लॉग के साथ ही मुझे, अखाड़े का उदास मुगदर ब्लॉग भी याद आते रहता है।
संजीत त्रिपाठी
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जय हो! वह समय भुलाये नहीं भूलता। आपके साथ भी जो जुगलबंदी थी टिप्पणियों में वह भी मन में ताजा सी लगती है।
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वाकई, वह समय।
संजीत त्रिपाठी
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प्रमोद जी और अभय तिवारी जी से व्यक्तिगत मुलाकात हुई थी एक सारी दोपहर साथ बीती थी मुंबई में । बाद में भी फ़ोन से चर्चा हुई । उनका चीन यात्रा वृतांत भी अज़दक़ पर पढ़ा था उस जमाने में – आज पुनः याद ताजा हो आई
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अज़दक की चीन वाली किताब कल खरीद ली है। :-)
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Nice post 🌅🌅
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