<<< संगम तट पर भागलपुर की वह लड़की >>>
मैं संगम तट पर पंहुच बिछी पुआल पर बैठ गया। पुआल इतनी गीली थी कि रेत न उड़े और इतनी भी नहीं थी कि बैठने पर नीचे के कपड़ों को गीला कर दे। अपने दांई ओर देखा तो पाया कि एक नौजवान महिला (24-25 साल की लड़की) अपने यात्रा के सामान के साथ एक प्लास्टिक की तिरपाल बिछा कर बैठी पूरे मनोयोग से मेक-अप कर रही थी। वह ताजा ताजा संगम नहा कर आई थी।
मैने बैठने के पहले देखा होता लड़की को मेक-अप करते तो वहां न बैठ कर किसी और जगह बैठता। मेक-अप करना मेरे हिसाब से एक प्राइवेट कार्य है, विशेषत: महिला का मेक-अप। उसमें ताकाझांकी नहीं होनी चाहिये। लेकिन बैठने के बाद कोई उपाय न था। आप मित्र चुन सकते हैं, पर पड़ोसी जो हैं सो स्वीकारने होते हैं। संगम देखने के लिये मेरा दांया कोना अवरुद्ध हो गया। … उधर देखूं और लोग सोचें कि सुंदरी कन्या को निहार रहा हूं। बढ़ी उम्र में फजीहत हो।
मेरी पत्नीजी सामने खड़ी थीं। उन्होने उस लड़की के सारे कार्यकलाप देखे और बातचीत भी की। उन्होने मुझे बाद में बताया – “भागलपुर से सवेरे प्रयाग जंक्शन पंहुचे थे वे लोग – लड़की और साथ में दो नौजवान। नौजवानों में कोई पति नहीं लग रहा था। शायद भाई हों या सम्बंधी। लड़की भी अविवाहित लग रही थी। सुहाग सिंदूर नहीं था माथे पर। वे करीब तीन किलोमीटर पैदल अपना सामान ढ़ोते हुये आये संगम। यहां संगम नहा कर लड़की बैठी थी और बाकी दोनों खड़े थे।”
“अपना सिंगार करने में लड़की को कोई हड़बड़ी नहीं थी। आराम से उसने अपने बैग से मेक-अप का सामान निकाला। मेक अप बॉक्स के शीशे से अपना चेहरा वह बारम्बार निहार ले रही थी। इत्मीनान से चेहरे पर फाउंडेशन लगाया। उसके बाद पाउड़र से चेहरे पर पफ कर फाउण्डेशन बराबर किया। ब्रशर से चीक-बोन्स पर ब्लश मारने का अनुष्ठान किया – आराम आराम से। उसके बाद इत्मीनान से चेहरे को काफी देर शीशा इधर उधर घुमा कर निहारा। इतने में जल्दीबाजी दिखाता लड़का बोला – जल्दी करो न!”
“लड़की ने जवाब दिया – “काहे की जल्दी है? इसके बाद फोटो भी तो खिंचाना है!” फिर आराम से उसने काजल और आईब्रोलाइनर बैग से निकाले। काजल लगाया और सेट किया। शीशे में निहारा। उसके बार आई-ब्रो को संवारा।”
“आंखों के सौंदर्य साधन के बाद बालों का नम्बर लगा। लड़की के बाल पतले थे, पर लम्बे और घने थे। बाल संवारने में भी उसने कोई हड़बड़ी नहीं दिखाई। उसी अंदाज में वह व्यस्त रही मानो घर के ड्रेसिंग रूम में संवर रही हो।”
पत्नीजी बताती गईं – “मेरे मन में आ रहा था कि इस उम्र में हम लोग यूं करते तो दस गाली खाते – नहान पूजन के लिये आई हो या सजने के लिये?” हम तो बुआ के संरक्षण में झुंड बना कर गंगा नहान को जाते थे। स्नान कर जल्दी से कपड़े बदल, लड्डू, पूजा की टोकरी, गंगाजल की लुटिया और भीगे कपड़े की पोटली हाथ में लिये गंगा किनारे से मंदिर आते। मंदिर में इंतजार करते थे कि बुआ कब पूजा करें और कब प्रसाद मिले।”
“अच्छा है कि अब वर्जनायें टूटी हैं। सजना, और वह भी भीड़ में भी सजना अब खराब नहीं माना जा रहा। वह लड़की स्लीवलेस कुर्ती पहने थी, ठंड में भी। यह सब अच्छा था, मुग्ध कर रहा था।” – पत्नीजी ने मुझे सब याद कर घर आने पर बताया। उन्होने न बताया होता तो मैं यह पोस्ट न लिख पाता।
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भागलपुर से आये थे ये लोग। अपना सामान उठाते और पैदल चलते थक गये थे। लड़के ने शैलेश से पूछा कोई जगह है जहां सामान रखा जा सके। सामान में कोई कीमती चीज तो नहीं है पर कपड़े लत्ते तो हैं ही। शैलेश ने कहा कि उन्हें अपना टिकट दिखा कर स्टेशन में ही क्लोक रूम में रखना चाहिये था। अगर टिकट हो तो यह वे अब भी कर सकते हैं। उनके चेहरों से नहीं लगता था कि घूमने की बजाय वे वापस सामान रखने रेलवे स्टेशन जाने वाले हैं।
मैं सोच रहा था – भागलपुर या चम्पानगरी अंग प्रदेश की राजधानी हुआ करती थी। चम्पा की राजकुमारी के सौंदर्य का वर्णन आचार्य चतुरसेन की पुस्तक वैशाली की नगरवधू में है। ऐसी रही होगी वह राजकुमारी? यह लड़की छरहरे बदन की, सांवली सी है। चेहरा बंगाली बाला की तरह है – सुंदर। अंग प्रदेश का आधा भाग बिहार और आधा बंगाल में है। यह लड़की चम्पा के नारी सौंदर्य का प्रतिनिधित्व अच्छे से करती है।
हमने तो एक चावल परखा संगम मेला क्षेत्र में। पूरा मेला घूमा जाये तो हर प्रांत-प्रांतर का, विश्व के हर कोने का रंग दिखेगा। इतना दिखेगा कि मन शायद जब्ज़ न कर पाये।
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अपनी व्यस्तताओं के चलते कुछ दिनों से ब्लॉग नहीं पढ़ पाया था। आज खोला तो देखा की आप कुंभ का आनंद ले रहे हैं। आपने काफी कुछ लिखा है इन दिनों में, धीरे-धीरे पढ़ा जायेगा। एक साथ पढ़ कर ख़त्म करने में वो आनंद कहाँ!
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जी, धन्यवाद आपने देखा। पोस्टें पढ़ कर अपनी प्रतिक्रियायें दीजियेगा। प्रतीक्षा रहेगी।
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“संगम देखने के लिए मेरा दायां कोना अवरुद्ध हो गया”। स्व शासित अनुशासन अपेक्षित और अनुकूल था। फिर उसी का नख शिख वर्णन?
जो भी हो आपकी लेखनी सदा की तरह बांधे रहती है। इतनी दूर गए, लेख और विषय का विस्तार तो बनता था। लेखों का आकार बढ़ाएं। सुधि पाठक अपनी प्रक्रिया से परिणाम बता देंगे।
चरैवेति चरैवेति…….
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शर्मा जी, मैं खुद नहीं देख सकता था तो मैने पत्नीजी के वर्णन का सहारा लिया। वह भी नहीं होता तो मैं अपनी कल्पना का सहारा लेता। आप एक कोने में देखना बंद कर सकते हैं पर अपने मन का दौड़ना कहां रोक सकते हैं।
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सत्य वचन
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