#नर्मदापदयात्रा में 8-9वें दिन। तेईस मई को प्रेमसागर की गढ़ बोरियाद से कवांट यात्रा 24 किमी की रही। उसके बाद 24 मई को कवांट से सकदी करीब 36 किमी की। इस दो दिन की यात्रा में छोटा उदयपुर (गुजरात) और अलीराजपुर (मध्यप्रदेश) का आदिवासी बहुल इलाका रहा। आदिवासी बहुलता के साथ साथ वहां मोबाइल नेटवर्क और इंटरनेट दोनो लगभग नहीं थे। गढ़ बोरियाद के बाद बाबाजी की लोकेशन अपडेट ही नहीं हुई। कवांट में एक बार गूगल मैप पर बाबाजी झलके। थोड़ी बात हुई तो पता चला कि यात्रा जारी है। ऐसा नहीं हुआ था कि तबियत नासाज़ हो गई हो और यात्रा एक दिन रोकनी पड़ी हो।

कवांट में दिन भर की यात्रा के तीन चार चित्र मिले प्रेमसागर के। उनसे पता चला कि रास्ते में आंधीपानी आया था। एक जगह तो सड़क पर ही बड़ा पेड़ गिर कर रास्ता रोके हुये था। पूरे चौबीस किमी के रास्ते में लोग कम ही मिले। आदिवासी तो उनसे बात करने में छिटकते रहे। प्रेमसागर को लगता है पहले परिक्रमावासियों ने उनसे हेल मेल का प्रयास नहीं किया होगा। आदिवासी लोग रास्ते के बारे में जानकारी भी कम ही दे रहे थे। पूरे रास्ते में दो तीन ही चाय की दुकानें मिलीं। एक जगह आम का जूस बनाने वाले भाई ने जरूर प्रेमसागर को रोक कर जूस पिलाया – दो तीन ग्लास।

दिन में कबीरपंथी मंदिर में उन्हें बाजरे की रोटी के साथ भोजन मिला। “भईया, इस ओर कबीरपंथियों के बहुत से अस्थान-मंदिर हैं। और वे लोग बहुत कोऑपरेटिव भी हैं। सब जगह कबीरपंथी अच्छे हैं, सिवाय राजस्थान के।” लगता है राजस्थान में कबीरपंथी मठ वालों ने बाबाजी की उपेक्षा की होगी और कुछ ज्यादा ही की होगी, वर्ना प्रेमसागर यूं कहते नहीं। भोजन की थाली का जो चित्र प्रेमसागर ने भेजा है उसमें भात के साथ उड़द की दाल है और थोड़ी सब्जी या चटनी। रोटी खूब बड़ी है – बाजरे की।

प्रेमसागर का कहना है कि भोजन अच्छा था। यूं, मुझे भोजन करना होता तो बहुत नहीं जमता। मैं तो साल के तीन सौ पैंसठ दिन अरहर की दाल सेवन करने वाला यूपोरियन हूं। और बाजरे का इतना बड़ा रोटला तो शायद ही हजम हो। उतना खाना हो तो गले के नीचे धकेलने के लिये एक ग्लास छाछ की जरूरत भी होगी!
कवांट में प्रेमसागर ने हनुमान मंदिर में नृत्य गोपालदास जी से मुलाकात की। पता नहीं कवांट में कैसे पंहुचे थे नृत्य गोपालदास जी। शायद हिंदू संगठन आदिवासियों में पैंठ बना रहे हैं दशकों से। उसी संदर्भ में महंत जी वहां हों! प्रेमसागर ने कहा कि उन्हें देखते ही पहचान गये। प्रेमसागर आठ साल पहले अयोध्या में मिले थे महंत जी से। छियासी-सतासी साल के होंगे नृत्यगोपाल दास जी। प्रेमसागर को पहचान लेने से जाहिर होता है कि उनकी स्मृति बहुत अच्छी है – इतनी अधिक उम्र के बावजूद।
आज सवेरे एक महिला पुदीना की पत्तियां छांट रही थी रास्ते में। उसने प्रेम बाबाजी को रोक कर चाय पिलाई। साथ में बिस्कुट भी खिलाया। महिला ने बोला – बाबा, दूध नहीं है। लाल चाय चलेगी? प्रेमसागर कैसी भी चाय खुशी खुशी पी सकते हैं यात्रा के दौरान उस महिला ने हरी पत्तियों के बारे में बताया कि वे लोग इसको फुदीना कहते हैं। पुदीना से आदिवासी इलाके में उच्चारण बदल कर फुदीना हो जाता है। झाबुआ का मेरा आदिवासी भृत्य चाय को शाय कहता था। उच्चारण का यह परिवर्तन कुछ वैसा ही है।

कवांट के आदिवासी इलाके में भी कहीं तो प्रेमसागर को सत्कार मिला! मेरे ख्याल से, अमूमन, परिक्रमावासियों से आदिवासी अगर सहयोग नहीं करते तो उसमें ज्यादा, या फिर पूरा दोष परिक्रमावासियों का ही होगा। वे आदिवासियों को पूरे भाव, पूरे आदर से नहीं ही देखते होंगे।
प्रेमसागर ने बताया कि एक जगह एक महिला ने उन्हें रोक लिया। कहा कि उसकी शादी हुये पांच साल हो गये हैं। पर बाल-बच्चा नहीं हुआ। वह रोने लगी। उसने बताया कि लोगों ने सलाह दी है परिक्रमावासी को भोजन कराने से पुण्य होगा और उससे बच्चा होगा। बाबाजी को उसने भोजन कराया। … नर्मदा माई भोजन देती हैं पर भक्त की क्षुधा मिटाने के साथ साथ भोजन कराने वाले के पुण्य का इंतजाम भी करती हैं! हम सभी नर्मदा माई से प्रार्थना करें कि उस महिला की गोद जल्दी भरे।
“भईया, कवांट के आगे यह इलाका तो बहुत मन मोहक है। लोग कहते हैं कि गर्मी के इस समय में जीवजंतु ज्यादा निकलते हैं यहां, इसलिये गर्मी के मौसम में परिक्रमावासी को वे जल्दी से जल्दी माहेश्वर पंहुचने की सलाह देते हैं। यही कारण है कि मैं चालीस पचास किमी रोज चल कर माहेश्वर पंहुचने की सोच रहा हूं; तीन दिन में। वर्ना कार्तिक का महीना होता तो मैं नर्मदा के तीरे तीरे चलता।” – प्रेमसागर ने अपने तेज चलने को सही ठहराने के लिये कहा। वैसे, मेरा सोचना है कि प्रेमसागर तो आराम आराम से यात्रा करनी चाहिये। नर्मदा और प्रकृति को निहारते हुये। रास्ते में आते सभी तीर्थ स्थलों को देखते हुये।
कवांट के आगे के कुछ चित्र वास्तव में मन मोहक हैं। प्रेमसागर का मोबाइल कैमरा उतना अच्छा नहीं, कभी कभी चित्र या उनके कोने धुंधले हो जाते हैं। पर फिर भी चित्र गज़ब के हैं। इलाका प्रकृति की गोद में है। चित्रों को देख कर वह फिल्म का गीत याद हो आता है – हरी भरी वसुंधरा… ये कौन चित्रकार है? ये कौन चित्रकार!
मैं गूगल मैप पर इलाके की हवा की गुणवत्ता देखता हूं तो देश के कई भागों से कहीं बेहतर दिखती है। क्या कारण है कि जो इलाके ज्यादा “खतरनाक” हैं या ज्यादा अगम्य, वे सुंदर भी हैं और उनकी आबोहवा भी बेहतर है। चाहे वह छोटा उदयपुर हो, अलीराजपुर हो, अबूझमाड़ हो, पूर्वोत्तर भारत हो या स्वात घाटी! आप वहां, शायद, रह नहीं सकते; वहां जाने की भी न सोचते हों; पर वे जगहें आपको ललचाती बहुत हैं। भला हो प्रेमसागर का, जिनके जरीये मैं एक वैसा इलाका देख पाया।
आज प्रेमसागर टेमला के महादेव मंदिर तक जाना चाहते थे। वह स्थान सकदी से पांच किमी आगे है। पर “भईया, थकान लग रही थी तो यहीं रुक गया हूं। कल आगे बढ़ूंगा।” शायद मेरा यह कहना कि आराम आराम से यात्रा करनी चाहिये, उनके मन में कुछ धंसा है!




क्वांट नाम से भौतिकी की और साथ ही में राजनीति विज्ञान की भी याद आने लगती है. क्वांटम और कांट दोनों ही क्वांट से मिलते जुलते हैं. बाबा जी से निवेदन करियेगा कि उनकी यात्रा को पढ़ने वाले भी यही आशा रखते हैं कि बाबा जी धीरे धीरे चलें, २० किमी के आस पास, लोगों से इंटरैक्ट करें और ज्यादा मात्रा में फोटो भेजें जिससे ये यात्रा मात्र एक परिक्रमा न रहकर एक अनुकरणीय और उदाहरणीय प्रमाणिक दस्तावेज में बदल सके. सादर.
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मैं बाबाजी को ऐसा कहूंगा…
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बाबाजी के इनपुट के साथ मुझे आवश्यकता महसूस होती है अपनी कल्पना को उनके साथ चलाने की. बस यही असमंजस है कि वह कैसे किया जाए…
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