बडेल से रतनपुरा (रतनिया)

<<< 5 जून: मालवा के पठार की नदियों के इर्दगिर्द >>>

बडेल से जंगल में आगे चले प्रेम बाबाजी। उनकी लाइव लोकेशन नहीं मिल रही थी, पर जब उन्होने चित्र भेजे और बात की तब उनके बारे में पता चला।

इस इलाके के जंगल तो हैं ही, नदियां भी हैं। प्रेमसागर ने ज्यादा ध्यान दे कर उनके चित्र नहीं खींचे। पता नहीं चलता कि कौन नदी कब पार की।

बड़वाह के बाद पहले पहल मिली होगी चोरल। प्रेमसागर के सम्प्रेषण में इसका चित्र नहीं मिलता। एक और नदी मिलती है। शायद वह कनाड है? गूगल नक्शे में जितनी सुघड़ता से स्थानों के नाम दिये गये हैं, उतना सटीक वह नदियों के नाम के बारे में नहीं बताता है। और प्रेमसागर तो नदियों, स्थानो, लोगों के नाम गड्डमड्ड कर ही देते हैं। इस सब के बावजूद यात्रा विवरण लिखना है! कुछ इस तरह कि एक मायोपिया वाला पथिक बिना चश्मे के यात्रा कर रहा हो। :-)

मालवा के पठार का अन्य भाग कई नदियां उपजाता है जो अंतत: गंगाजी को या नर्मदा जी को अपनी जलराशि देती हैं। मैं चम्बल और गम्भीरी को जानता हूं। उनसे पुरानी पहचान है। वे लम्बी यात्रा कर यमुना-गंगा में मिलती हैं। मैं चोरल को भी जानता हूं और अब कनाड को भी जान गया हूं। आगे भी नदियां पड़ेंगी – रुनझुन, गंजाल, दूधी, तवा और न जाने कितनी! इन छोटी नदियों को शायद एक बड़ी नदी में मिलने की जल्दी चम्बल से कहीं ज्यादा होती है। इस लिये ये नजदीक की नर्मदा माई में अपने को विलीन करती हैं।

चोरल महू के पास एक प्रपात से निकलती है। उसी तरह इंदौर के पास दातौड़ा से निकलती है कनाड। ये दोनो नदियां 50-100 किलोमीटर लम्बी होंगी। दोनो में पानी लगभग सूख सा गया था, पर सरकार और लोगों के प्रयत्न से वे अब हमेशा पानी से भरी हो गई हैं। कनाड के बारें में एक दो न्यूज आईटम मैं तलाश पाया जिसमें 2019 में उसके पुनर्जीवन के बारे में प्रयासों का जिक्र है।

कनाड नदी

बाबाजी जब नर्मदा परिक्रमा कर रहे हैं और नर्मदा के अलावा मार्ग में पड़ने वाली अनुषांगिक नदियों को वे पार कर सकते हैंं; तो मेरे ख्याल से हर नदी नाले को पार करने के पहले उसके जय जयकार तो होनी ही चाहिये! हर नदी को पार करते समय उसे प्रणाम तो करना ही चाहिये। नहीं?

बडेल से पिपरी का पैदल रास्ता गूगल मैप 47 किलोमीटर का बताता है। उसमें यात्री को घूम कर जाना होता है। पर परिक्रमा मार्ग – जो कभी सड़क और कभी पगडंडी और कभी कभी धुंधली सी ट्रेल का होता है; पर चलते हुये यह दूरी प्रेमसागर ने सोलह किलोमीटर चल कर पार की। बीच में एक नदी के चित्र भी उन्होने भेजे हैं। नदी में पानी है और पुल खूब चौड़ा है। शायद मानसून में यह नदी वेगवती हो जाती होगी। कनाड है यह?

बडेल से निकलते एक बाजार जैसा पड़ा। उसे देख मुझे चार दशक पहले देखे किरंदुल (बस्तर) के उस बाजार की याद हो आई जो स्मृति में अब भी है। बहुत कुछ वैसा ही है यह बडेल का बाजार। उसके आगे चित्र जंगल का ही है। जंगल की गोद में ही है बडेल।

बडेल का बाजार और जंगल

दोपहर में प्रेमसागर का सिगनल मिला। बात हुई। पता चला कि वे पीपरी पंहुचे हैं। गूगल मैप में रास्ता 47किलोमीटर का है। पर परिक्रमा के लिये जंगल से ट्रेल 30 किलोमीटर की थी। इस रास्ते पर प्रेमसागर ने कनाड नदी पार की थी। प्रेमसागर के अनुसार कोई मुनंदा गांव में पुल था जिसका चित्र उन्होने लिया। मुनंदा मुझे नक्शे में दिखा नहीं। हो सकता है छोटी जगह हो। यह भी हो सकता है कि प्रेमसागर को गांव का नाम सही सही याद न हो।

जंगल में उन्हें कोई आदमी मिला नहीं। मैने पूछा – जानवरों से आत्मरक्षा के लिये डंडा ले रखा था कि नहीं? “नहीं भईया, वह तो पतला डण्डा था, माहेश्वर में मैं नर्मदा में चित्र ले रहा था। घाट पर डंडा रखा था, पर वह सरक कर नदी में चला गया था। उसके बाद कोई डंडा नहीं मिला।”

प्रेमसागर के पास डंडा नहीं है। पिट्ठू भी नहीं है। सर्वोदयी झोले में करीब तीन किलो सामान है। “पिट्ठू खरीदना है। पर मेन बात है भईया पैसा नहीं है तो लेना मटिया रहा हूं।” पैसा जो इकठ्ठा हुआ था, उससे मोबाइल लेना जरूरी था। पुराना मोबाइल हैंग कर जा रहा था और बीच बीच में सिगनल भी नहीं पकड़ता था।

मैने दो दिन तक पिट्ठू के बारे में सोचा, फिर अगले दिन शाम को उन्हें एक हजार रुपये भेजे – यह सहेज कर कि एक पिट्ठू खरीद लेना और पैसा बचे तो पानी की बोतल भी।

वे कुल दो लीटर पानी, बोतलों में भर कर साथ ले परिक्रमा कर रहे हैं। सोलह सत्रह किलोमीटर की यात्रा में तीन लीटर पानी तो लग ही जाता है। उससे ज्यादा भी। और सामान न भी हो, पानी की कमी तो खतरनाक हो सकती है। “खूब पानी पीता हूं भईया, पर तब भी पेशाब पीला हो जाता है।”

सीता समाधी स्थल

दोपहर के समय पंहुचना हुआ पीपरी। वहां एक आश्रम था। भोजन परसादी मिली। उसके बाद तीन किलोमीटर दूर सीता समाधि देख आये प्रेमसागर। चित्रकूट की तरह इस जगह में भी कहानी है कि सीता माता दूसरे वनवास में यहां रही थीं। यहीं लवकुश का जन्म हुआ था। यहीं वे धरती में समा गई थीं। सीता वनवास से अपने को जोड़ते शायद आधा दर्जन स्थान होंगे भारत में।

इस जगह पर दो लोग बाटी लगा रहे थे। बाबाजी ने चित्र भेजा। मुझे लगता है बाटी से उनका मन ललचाया होगा जरूर! उन लोगों ने बाटी भोजन के लिये प्रेमसागर को निमंत्रण नहीं दिया। :-(

शाम को 12 किलोमीटर और जंगल में चल कर प्रेमसागर रतनपुर (रतनिया) पंहुचे। कुल करीब तीस किलोमीटर चले आज।

आज की पंच लाइन रहेगी – हर नदी के पहले जयकार और हर थकावट के बाद पानी चाहिए — यही आज की यात्रा की सीख है।

प्रेमसागर जी की सहायता करने के लिये उनका यूपीआई एड्रेस है – prem199@ptyes

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नर्मदे हर!!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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