21 जून को नर्मदा पदयात्री – प्रेमसागर – ने तय किया कि बारिश के कारण गीली जमीन, कीचड़ और कच्चे-पक्के रास्ते की दुरुहता को और झेलने की बजाय मुख्य सड़क – नेशनल हाईवे – का जरीया अपनाया जाये। मुझे यह पसंद नहीं आया। नर्मदा किनारे कच्ची पगडंडी पर भले न चला जाये, भारत में ग्रामीण सड़कों का जाल बिछा है। वे सड़कें भले ही नफासत वाली नहीं हैं, पर पैदल यात्री तो खूब मजे में चल सकता है। प्रधानमंत्री सड़क योजना में तो बारह-पंद्रह फुट चौड़ी सड़कें हैं जिनपर ट्रैक्टर मटकते हुये चलते हैं। उनपर पदयात्रा नहीं की जा सकती?
पर जो प्रेमसागर को पसंद आया वही ठीक है। पदयात्रा में पदयात्री की चलती है, मनयात्री की नहीं। लेकिन मुझे लगा कि आज की यात्रा सलंग (कंटीन्युअस का मालवी शब्द) की बजाय खंड खंड रही क्यूं कि बाबाजी बेलगाम चल रहे थे।
बाबाजी बेलगाम चल रहे थे, और मैं ठिठक-ठिठक कर देखता, सोचता, लिखता रह गया।
रामपुरा से, प्रतापसिंह लोधी जी के घर से चलने के समय भी चाय पी थी, फिर इस चाय की चट्टी पर भी। और कहने को प्रेम बाबाजी कहते हैं कि अब चाय उन्हें ज्यादा नहीं भाती। घर या किसी हल्की सी भी बंदिश वाली जगह (भले ही वहां खूब आदर सत्कार हुआ हो) से निकलते ही आदमी वर्जनामुक्त होता है और पहले पहल चाय की चट्टी तलाशता है।

चाय की चट्टी का चित्र भेजा बाबाजी ने। लिखा है होटल। जहां समोसा, आलूबड़ा, भाजीबड़ा मिलता है। एक फ्रिज भी नजर आता है। बाहर तीन चायार्थी बैठे हैं जो ठंडी हवा में चाय नाश्ते का इंतजार कर रहे हैं। एक स्प्लेंडर बाइक भी गांव की समृद्धि और गतिशीलता दर्शाती खड़ी है। होटल में महिला की आकृति झलक रही है। मलकिन होगी चाय की चट्टी की?
$$ ज्ञानकथ्य अथ हिरनवती आख्यान –
हिरनवती चाय की चट्टी सम्भालती है। सड़क में उसकी छोटी सी जमीन गई तो जो मुआवजा मिला वह लगा दिया इस ‘होटल’ में। उसका मायका हिरन नदी के किनारे है। पिता ने ज्यादा तलाश नहीं की नाम रखने को। नदी के नाम पर ही रख दिया। हिरनावती का आदमी नरसिंहपुर में फिटर का काम करता है। गांव से अपडाउन करता है। कभी वहां रुक भी जाता है। ठीक मरद है, पर थोड़ा पीने की आदत है। उसकी कमाई में घर नहीं चलता तो हिरनवती ने इस होटल पर ध्यान देना जरूरी समझा। अब तो उसकी लड़की भी हाथ बटाने लगी है।
खपरैल के होटल वाली औरत
खपरैल की उस चाय-चट्टी में जो औरत समोसे तल रही है,
वह सुबह चार बजे उठती है – मैदा गूंथती है, आलू उबालती है, प्याज़ काटती है।
उसकी एक लड़की है – जो मैदा में नमक ठीक से मिला लेती है,
और अपनी माँ की आँखों का इशारा समझ जाती है।
माँ बोलती कम है, झुँझलाती नहीं,
बस जल्दी-जल्दी काम करती है –
जैसे हर देरी से कमाई का मौका फिसल रहा हो।
वो औरत जूझती है, हार नहीं मानती –
उसका ‘होटल’ चलता है, समोसे बिकते हैं, भजिए में मिर्च ज़रा तेज़ होती है
पर मेहनत की तासीर कुछ ऐसी है
उसके चाय और समोसे का स्वाद सबसे अलग होता है।
परकम्मावासी भी ऐसा ही कहते हैं।
बस, आज के चित्रों में यही एक चित्र था जो कुछ कहता था। बाकी तो एनएच 47 का हाईवे था। सपाट चिक्कन हाईवे पर क्या लिखा जाये। प्रेमसागर उसपर सटासट चलते रहे। दिन भर में 45 किलोमीटर चले। एक दो जगह रुक कर जंगल और हिरन नदी को निहारा होगा, बस।
एक संदेश में लिखा है – बरघटिया घाटी। पर चित्रों में कोई घाटी जैसा नजर नहीं आता। चूक गये प्रेमसागर चित्र खींचने में। नक्शे में डोंगरगांव और हीरापुर के बीच एनएच45 पर यह हेयरपिन बैंड दिखता है। उस जगह पर ग्रेडियेंट भी सबसे ज्यादा है। इस हेयरबैंड पिन वाली जगह पार करते फोटोग्राफी होनी चाहिये थी!

हेयरपिन बैंड बोलता है – मुझे सीधा नहीं बना सकते थे, वरना तुम्हारे इंजन हाँफने लगते। बरसात में मैं फिसलता भी हूँ, डराता भी हूँ, लेकिन संभालता भी मैं ही हूँ। पहाड़ की छाती चीर कर मैं बना हूं। मैं सिर्फ रास्ता नहीं हूँ मैं वह वलय हूँ जिसमें इंसान और पहाड़ संवाद करते हैं—घूम कर, थमकर, समझकर।
प्रेमसागर जब गुजरे तो हेयरपिन बैंड बोल रहा था। फुसफुसा कर। पर बाबाजी नर्मदे हर, नर्मदे हर बोलते निकल गये। ध्यान ही नहीं दिया!
आगे हिरन नदी मिली। नदी का चित्र लेना प्रेमसागर के ट्रेवल-प्रोटोकॉल में है। सो उसके चित्र उन्होने लिये। सुंदर है यह नदी। पर हिरनी को तलाशता रह गया मैं उसकी जलराशि में। यहां, नर्मदा से सांकल घाट संगम के 8 किलोमीटर पहले तो हिरन में खूब पानी नजर आता है, नदी किनारे एक जुताई किया खेत सुंदर लग रहा है। पर पीछे जबलपुर जिले में ही यह नदी पूरी तरह सूखी हुई है। इस आशय की खबरें नेट पर मुझे मिली। नर्मदा की कई सहायक नदियां गर्मियों में सूखने लगी हैं या सूखने के कगार पर हैं।
नर्मदा की इतनी अनुषांगिक नदियां गुजर चुकी हैं कि बिना किसी लोक कथा या पौराणिक आख्यान के, वह आंकड़ा भर बन हाशिये पर जाने लगती है। हिरन का नाम हिरन क्यों है? कोई लोक कथा नहीं मिली।
नदी हो कर भी अगर कोई कथा से वंचित रह जाये, तो वह बस लहरों में नहीं, गुमसुम मौन में बहा करती है।

बाबाजी शाम के समय बेलखेड़ा पंहुचे। अशोक शुक्ल जी के साढ़ू भाई ध्रुवजी दिघर्रा, पास में मातनपुर में रहते हैं। अशोक जी के बेटे आश्विनी के साढ़ू रमाकांत नवेरिया जी बेलखेड़ा के हैं। सढ़ुआने में भेज दिया है बाबाजी को अशोक शुक्ल ने। और वहां खातिरदारी भी अच्छी हुई प्रेमसागर की। शायद उसी आशा में पैंतालीस किलोमीटर की दौड़ लगाये थे बाबाजी। घाटी और नदी पार करते हुये!
उस सब की बात आगे की पोस्ट में!
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Nice post
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