घोड़मुतवा

घोड़मुतवा हेडर

कई शब्द नितांत पारिवारिक होते हैं। विवेक शानभाग का एक नॉवेल्ला है – घाचर घोचर। मुझे यह पसंद है क्यूं कि इसमें वातावरण नितांत निम्न मध्यवर्ग से शुरू होता है। बहुत कुछ वैसा जिससे अपने को मैं जोड़ पाता हूं। घाचर घोचर किसी डिक्शनरी में नहीं मिलेगा। कन्नड़ भाषाकोश में भी नहीं। अब शायद इस नॉवेल्ला की प्रसिद्धि से शायद आ गया हो। घाचर घोचर वह स्थिति है जिसमें कई धागे आपस में उलझ जाते हैं और उन्हें सुलझाने में और उलझते जाते हैं!

हमारे घर में – मेरी पत्नीजी और मेरे बीच घोड़मुतवा वैसा ही एक शब्द है। मैने ग्रीन चाय हल्के दूध से बनाई थी। मुझे ग्रीन चाय, बिना दूध के अच्छी लगती है पर पत्नीजी को अदरक वाली मसाला चाय ही चाहिये। कॉम्प्रोमाइज़ के लिये मैने हल्का दूध इस्तेमाल किया। घर की पहली चाय बनाने का जिम्मा मेरा होता है। और यह प्रयोग बुरी तरह बैकफायर हो गया।

पत्नी जी ने बुरा सा मुंह बिचकाया। यह क्या घोड़मुतवा बना दिया आज!

घोड़मुतवा यानी घोड़े का मूत्र। हमने अपना भी कभी नहीं चखा; घोड़े का तो चखने का तो कोई सवाल ही नहीं। पर घोड़मुतवा घरेलू लेक्सिकॉन में आ ही गया!

देसी ज़ुबान में घोड़मुतवा वही है जो अंग्रेज़ी में ग्रीन-टी विद मिल्क—न किसी के गले उतरता है, न छोड़ते बनता है।

कालांतर – पिछले दस अगस्त से मैं बीमार पड़ा। मुंह का जायका खराब हो गया। तीन सप्ताह तो घर से निकलना नहीं हुआ। कई दिन बिस्तर पर बीते। चाय खराब लगने लगी। दूध पीने का भी मन नहीं बनता था। अब दो तीन दिन से कुछ बेहतर हुआ हूं।

आज पत्नीजी को मैने कहा – एक कप घोड़मुतवा बना दें। चाय या किसी भी चीज का मन तो बना, यह पत्नीजी को शायद अच्छा लगा। उन्होने हल्के दूध वाली घोड़मुतवा से मुंह नहीं बिचकाया। उन्होने अपने लिये भी वही चाय बनाई। हम दोनो ने घोड़मुतवा को सेलीब्रेट किया!

घोड़मुतवा अभिजात्य पेय है जो शुद्ध देसी मानस को कभी पसंद नहीं आ सकता। हम लोग अदरक वाली कड़क चाय से घोड़मुतवा वाली ‘नफ़ासत’ तक आये हैं। घाचर घोचर की तरह यह भी कल्चरल शिफ्ट का प्रतीक है।

घोड़मुतवा पीना सिर्फ़ स्वाद का मामला नहीं, यह हमारे भीतर की देसी और नकली अभिजात्यता की खींचतान है।

घोड़मुतवा कोई साधारण चाय नहीं, बल्कि संस्कृति और स्वाद के बदलते रूप का प्रतीक है।
कभी उपन्यास लिखूँ तो उसका नाम यही होगा—घोड़मुतवा!

मुझे अभी यकीन नहीं है कि मैं घोड़मुतवा को कोई सशक्त ब्रांड बना सकूंगा, पर 100-150 पेज का नॉवेल्ला तो लिख मरूंगा कभी न कभी!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

7 thoughts on “घोड़मुतवा

  1. I am sure you can write a wonderful novel. Please begin as early as possible, as your writings should not stop with one novel. Can I have your postal address and recent contact number as I wish to send you my book, a poetry collection.

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    1. मैं तलाशूंगा कि आपका फोन नम्बर मेरे पास बचा हो तो कॉन्टेक्ट करूंगा।
      जय हो!

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  2. आंचलिक लोकजीवन की बारीक पकड़ रखने वाले पंडित ज्ञान दत्त पांडेय जी के अगले ब्लाग्स की प्रतीक्षा हमेशा बनी रहती है।आपकी निष्कपट,ईमानदार एवं स्वाभाविक जीवन शैली आपके लेखों में.सुस्पष्ट रुप से प्रतिबिंबित होती है।और क्या कहूं,आपके वैविध्यपूर्ण एवं गहन अध्ययन से तो सचमुच ईर्ष्या होती है।

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  3. रोचक। हर परिवार की शब्दावली में ऐसे शब्द बन ही जाते हैं जिसका उनके लिए एक खास मतलब हो जाता है। घोड़मुतवा पर लघु उपन्यास लिखने का इरादा अच्छा है आपका। प्रतीक्षा रहेगी उसकी।

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