मेरी पोती पद्मजा सातवीं कक्षा में है। उसकी किताबें 6000रुपये की मैने खरीदीं। उसे वीडियो कॉन्फ्रेन्सिग के जरीये पढ़ाने के लिये। उसके अलावा एनसीईआरटी की सभी किताबों का सेट करीब 600रुपये में अमेजन पर भी खरीदा। ये दोनो सेट की पुस्तकें अंगरेजी में हैं – सिवाय हिंदी और संस्कृत भाषा विषयों के।
यह अलग बात है कि पिछले महीने भर से स्वास्थ्य समस्याओं के कारण मैं पद्मजा को पढ़ा नहीं पा रहा हूं। पर पढ़ाने की, और पद्मजा की मुझसे वीडियो कॉन्फ्रेंसिग द्वारा पढ़ने की ललक बहुत है हम दोनों में।
अभी कुछ दिन पहले मैं गांव के जूनियर हाई स्कूल में मैं गया। वहां प्रिंसिपल साहब से मिला। प्रिंसिपल साहब – श्री विनोद सिंह जी – मेरे ब्लॉग के पाठक निकले। यह जानना मुझे बहुत प्रसन्न करने वाला था। मैने विनोद सिंह जी को अनुरोध किया कि वे किसी तरह सातवीं कक्षा की एक सेट पुस्तकें मुझे दिलवा दें। कोई देर नहीं लगी और उनके अध्यापक महोदय एक सेट मेरे लिये ले आये। और मुझे कोई पैसे भी नहीं देने पड़े।

कुल सात विषयों की नौ पुस्तकें थीं। सब के पेज जोड़े जायें तो 1000 से ज्यादा होंगे। पुस्तकों का स्तर बहुत अच्छा है। ये पुस्तकें मिडिल स्कूल के विद्यार्थियों को निशुल्क दी जाते हैं। प्रिंसिपल साहब ने उसी में से एक सेट देने का सुपात्र समझा। उनका धन्यवाद।
वहां सभी अध्यापकों ने मुझे आदर से रिसीव किया। कुछ विद्यार्थियों ने मेरे पैर भी छुये। कक्षा 6 से आठ में स्कूल में लगभग 260 विद्यार्थी हैं। लड़के और लड़कियां लगभग आधे आधे। रिसेस का समय था। मैं बच्चों को भोजन करते और उसके बाद खेलते देखता रहा।
निष्ठा वाले प्रिंसिपल और शिक्षक ही असल बदलाव ला सकते हैं, पर यह भी होता जा रहा है कि आज की व्यवस्था में ऐसे शिक्षक कम दिखते हैं।

मुझे अपना बचपन याद हो आया। मैं भी सरकारी स्कूल में हिंदी माध्यम का छात्र हुआ करता था। शायद 1967 का साल था जब मैं सातवीं क्लास में था। मैं प्रथम आता था और अधिकतर अध्यापकों का प्रिय भी था। पर तब भी मुझे लगा करता था कि इतिहास का और पर्यावरण के ट्रीविया का ढेर सारा अल्लम-गल्लम रटना पड़ता था। उसने मुझे सही मायने में सीखने की बजाय रट्टू तोता ज्यादा बनाया।
आजकल का करीकुलम तो उससे चार गुना रटंत विद्या बांटता है। नेशनल एज्युकेशन पॉलिसी के विद्वान लोग यह 1000 पेज पढ़वा कर क्या आईंस्टीन बनवा रहे हैं या रट्टू तोता? वे सारे सेलेबस बनाने वाले सातवीं कक्षा के सरकारी या म्यूनिसिपाल्टी स्कूल में खुद भरती हो कर पढ़ाई कर देखें। क्या काम का निकलेगा उसमें!
मेरा ख्याल है कि सातवीं आठवीं तक जोर इसपर होना चाहिये कि बच्चा ईंटों और बेलदारी की बेसिक गणना कर सके। परचून या सब्जी की दुकान पर गल्ला सम्भाल सके। एक पेज सही सही पढ़ कर उसका मतलब समझ ले और उसपर चार पांच सवाल सही से उत्तर दे सके। ज्यादा होशियार हो तो एक पेज का ब्लॉग लिख सके।
अभी तो वह विनोद सिंह जी जैसों की पूरी निष्ठा के बावजूद कितना सीखता है? वह आकलन नहीं कर सकता कि महुआ के पेड़ से कितनी डेलई महुआ निकलेगा!
मैं अध्यापकों की आलोचना नहीं कर रहा। मैं केवल अल्लम गल्लम पाठ्यक्रम की आलोचना कर रहा हूं। एनईपी के विद्वानों के कारण हम वे पांच परसेंट वैज्ञानिक और 80 प्रतिशत टॉप क्लास कारीगर नहीं बना पा रहे। अभी सब मीडियॉकर बन रहे हैं।
अध्यापन के लिये जैसे मैं अपनी पोती पद्मजा के लिये इनपुट देता हूं, उसी तरह सरकारी सुविधायें केरल के गवर्नमेंट एडेड संस्थाओं की तरह के उन लोगों को सौपनी चाहियें जो अभी पायजामा कुरता पहले केवल अपनी पोती की सोच रहे हैं। केरल के सरकारी सहायता वाले स्कूल सुना है शिक्षा में कहीं ज्यादा शानदार कर रहे हैं।
सेलेबस में हजार पेज की पुस्तकों की बजाय 200 पेज का टेक्स्ट होना चाहिये। गिजूभाई बधेका जैसे जमीन से जुड़े विद्वान उसमें होने चाहियें। वे नाखून काटने, नहाने और साफसफाई के मूलभूत सिद्धांत पर जोर देने वाले हों बनिस्पत हाइबरनेशन और एस्टीवेशन रटाने की बात करने के। 1930 के दशक में गिजूभाई बधेका जैसे शिक्षाशास्त्री जिस तरह बच्चों को खेल-खेल में जीवनोपयोगी बातें सिखाते थे, वैसा आज क्यों नहीं हो रहा? (देखें गिजूभाई बधेका – विकिपीडिया)।
हाइबरनेशन और एस्टीवेशन आदि समझाने के लिये वे गंगा किनारे मेढ़क और मिलीपीड तलाशने बच्चों को ले जायें!
पहली से आठवीं की शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण है। और उसको सही से साधा इसलिये नहीं जा सका है, क्यूं कि शिक्षा नियामकों ने अपनी विद्वता का खूब बोझा लादा है बस्ते का टट्टू बनाने के लिये।


सही कहा।लेकिन हम पॉलिसी को लागू करने वाले है न कि बनाने वाले।
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अगर आप शिक्षक हैं तो माना जा सकता है। अगर आम जनता हैं तो प्रतिनिधि सही चुनने की कुछ जिम्मेदारी आपकी बनती है।
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