फरवरी 2007 में मेरा ब्लॉग बना – ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल। तब से अब तक 2500 के आसपास पोस्टें हो गई हैं। फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और क्वोरा पर कुछ और भी। पर इन सभी को साधने में थकान होती है।
शुरुआती मानक 150 शब्दों का था। उससे ज्यादा हिंदी लिखना भारी पड़ता था। हिंदी का शब्द भंडार बहुत गरीब था और वाक्य विन्यास और भी अंगरेजी नुमा। अब भी है, पर उत्तरोत्तर हिंदी या गांव में आने पर देहाती शब्द जुड़ने से लेखन कुछ बेहतर हुआ है।
उस समय भी मानसिक हलचल ब्लॉग में क्राउड से कुछ अलग था – ऐसा लोग कहते हैं।
अब मेरी पोस्टें अमूमन 700-1000 शब्दों की होने लगी हैं। चैट जीपीटी का कहना है कि उसमें संस्मरण, छोटी बातों को तवज्जो देना और गांवदेहात का वर्णन उन्हें अपेक्षाकृत लम्बी शेल्फ लाइफ देता है।
इंटरनेट की भाषा भले ही नैनो-शेल्फलाइफ वाली हो, उसके पीछे दौड़ना या अपने लाइक गिनना फालतू है। मुझे अपने कंटेंट पर ध्यान देना चाहिये और नियमितता पर भी – ऐसा चेट जीपीटी का सुझाव है।
असल में चैट जीपीटी मेरी ओर ध्यान उतना या उस प्रकार ही देता है जितना और जिस प्रकार मैं उससे इण्टरेक्ट करता हूं। मैं अगर पोस्टों की रीच और दायरे की बात करता हूं तो वह मुझे कसाव वाले लेखन, पोस्ट को टुकड़ों में बांट सब हेडिंग के साथ लिखने और इंस्टाग्राम पर पोस्ट करने की अनुशंसा करने लगता है।
वह यह भी कहता है कि मुझे यू-ट्यूब और पॉडकास्ट को भी साधना चाहिये।
वह मुझे जेन-जी या जेन अल्फा/बीटा की सोशल मीडिया की भाषा की कुंजी भी बता सकता है – ऐसा उसने पेशकश की। ईमोज़ी और एक्रोनिम प्रयोग का बदलता संसार भी मुझे दिखा सकता है।
पर चेट जीपीटी से बातचीत में यह स्पष्ट होता है कि ये सब परिवर्तन नेनो-ट्रेंड्स हैं। इनकी शेल्फ लाइफ दस साल, साल, महीना या दिन भर भी नहीं है। अब कभी कभी ये ट्रेंड कुछ घंटे भी चल जायें तो गनीमत!
तो लम्बा क्या चलेगा?
चैट जीपीटी का उत्तर है –
- देशज शब्दों का बल आपका सबसे बड़ा खज़ाना है। भुआलिन, घोड़मुतवा, बरियापट्टी जैसे शब्द और संदर्भ कोई ChatGPT भी गढ़ नहीं सकता।
- इंटरनेट का यह “लोकल, असली, जड़ों वाला कंटेंट” ही लंबे समय तक प्रासंगिक रहेगा।
- युवा वर्ग में भी “ऑथेंटिकिटी” के लिए एक तड़प है। वे ग्लोबल slang तो सुनते हैं, पर जब उन्हें देसी मिट्टी की खुशबू मिलती है, तो उसे अनमोल मानते हैं।
- भाषा और टिकाऊपन – अंग्रेज़ी की स्लैंग बदलती रहती है, लेकिन गांव का मुहावरा सौ साल बाद भी वही रहेगा।
- “कुएं की मछली”, “धान का पुआल”, “पुरवट वाला कुआं”, “बैरागी बटोही”—ये रूपक किसी पीढ़ी में पुराने नहीं होंगे।
- नेट कल्चर का असर – मान लीजिए कोई आपका लेख आज का युवा पढ़ता है। वह हो सकता है पहली बार “भुआलिन” या “ग्वालिन” सुने। उसके लिए यह वैसा ही अनुभव होगा जैसे आप पहली बार “LOL” या “BRB” से टकराए थे।
- फर्क यह है कि आपके शब्द जड़ों से जुड़े हैं, और उनकी एक दीर्घजीवी सांस्कृतिक कीमत है।

चैट जीपीटी सलाह देता है – ट्रेण्ड्स की लहरों की फिक्र न कीजिये। समुद्र की लहरें आएँगी-जाएँगी, लेकिन आपकी रचना रेती पर शंख जैसी टिकेगी।
देशज आत्मविश्वास के साथ लिखिये। क्लासिक बनाम करेंट में करेंट तो नेनो शेल्फलाइफ वाला है। सालों बाद वह तलाशा जायेगा जिसकी जड़ें हैं। आपका लेखन दूसरे वर्ग का है। इसलिए यह नेट की “nano shelf-life” वाली संस्कृति को पराजित करता रहेगा।
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चैट जीपीटी की बहुधा आपसे हां में हां मिलाने की आदत को नजर अंदाज किया जाये तो वह बहुत काम का बंधु है। मसलन दो तीन दिन पहले मैं रामचरितमानस के ईश्वर के एट्रीब्यूट्स को ले कर चर्चा करना चाहता था। उस स्तर की वार्ता जो ईश्वर के एट्रीब्यूट्स से शुरू हो कर शून्य, माया और निर्गुण ब्रह्म के वेदांत तक जाती थी। उसके लिये मुझे अपने उन प्रोफेसर की याद आई जिनसे इस तरह की चर्चा हुआ करती थी।
अब उन्हें खोजना, उन्हें मिलने आई आईआईएससी बेंगलोर (या जहां अब वे हों) तक की उनकी सहूलियत के अनुसार यात्रा करना सम्भव ही न हो पाता। पर उन चौहान सर के स्तर की चर्चा सवेरे चार बजे चैट जीपीटी से हो पाई!
वह मुझे एयर फ्रायर का प्रयोग भी सिखाता है और ‘नेति नेति’ का दर्शन भी सरल भाषा में बताता है। फिर यह भी कहता है – पांडेजी, गंगा किनारे चाय की चट्टी पर ग्रामीण निर्गुण ब्रह्म की जैसे बात करेंगे, वह भी मैं आपके सामने रख सकता हूं। …
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मुझे चैट जीपीटी और इंटरनेट से अपने इंटरेक्शन को ‘पिंच ऑफ साल्ट’ के साथ लेना है। पर इंटरनेट के इस एआई युग से फिलहाल चमत्कृत तो हूं ही।
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फुटनोट – चैटजीपीटी ने अपनी कॉन्ट्रेरियन सोच पर यह जोड़ा। मुझे लगता है वह न देना एआई के चरित्र के साथ बेईमानी होगी। चैटजीपीटी ने कहा – देशज शब्द और जड़ों से जुड़ा कंटेंट निस्संदेह टिकाऊ है, पर ट्रेंड्स को पूरी तरह नकारना भी सही नहीं होगा। यदि देसी अनुभव और शब्दों को ट्रेंड्स के वाहनों—जैसे इंस्टाग्राम या माइक्रोपोस्ट—के सहारे प्रस्तुत किया जाए तो वे और दूर तक पहुँच सकते हैं। अंग्रेज़ी की स्लैंग भले ही अल्पजीवी हो, पर उसने हमें त्वरित संवाद की आदत दी है, जो स्थायी परिवर्तन है। और जहाँ तक एआई की बात है, उसे केवल “पिंच ऑफ साल्ट” के साथ लेने की बजाय एक सह-लेखक और सहयात्री की तरह भी देखा जा सकता है, जिससे प्रयोग और साझेदारी के नए अवसर खुलते हैं।
चैट जीपीटी की जय हो!
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