सवेरे की साइकिल सैर के दौरान वह दिखा। कमल के ताल के किनारे बैठा था। साथ में दो गठरियां, एक पानी की बड़ी बोतल जिसमें थोड़ा पानी था, एक दो थैले थे। उसकी आंखें हल्की बंद थीं। जिस तरह से बैठा था और जैसी उसकी उम्र लग रही थी – करीब पचहत्तर साल – मुझे लगा कि वह थक कर बैठा होगा।
मैने उससे पूछा तो आंखें खोल बताया कि वह बनारस जा रहा है।
कहां से आ रहा है? इस बारे में पूछने पर बताया कि मथुरा से। साढ़े पांच महीने से चल रहा है। उसने बोलने के साथ एक पंजा और आधी उंगली से साढ़े पांच बनाया। यह जान कर मेरी जिज्ञासा बढ़ गई। पर मेरे प्रश्नो का उत्तर देने की बजाय उसने फिर से आंख मूंद ली।
तब मुझे स्पष्ट हुआ कि वह सवेरे ध्यान-जप कर रहा था। मेरे जेब में पैसे नहीं थे, केवल मोबाइल था। उसको मैं सहायता के लिये कुछ देना चाहता था, पर कर नहीं सका। आगे दूध वाले से यूपीआई पेमेंट कर सौ रुपये मांगे तो उसके पास केवल तीस रुपये निकले। दूध लेने और आगे कुछ साइकिल चलाने के बाद उसी रास्ते वापस लौटा – यह विचार कर कि शायद वह आदमी फिर दिख जाये।
वह बनारस की ओर जाते दिखा। एक एक कदम धीरे धीरे उठा रहा था। उसके पैर भी उम्र और गठिया के कारण कुछ मुड़े हुये थे। साइकिल उसके साथ धीरे धीरे चलाते बात करने का प्रयास किया। उसने बताया कि उसकी गठरी में कपड़े, दाल चावल, आटा आदि है। थैले में आलू प्याज भी है। लकड़ी तलाश रहा है। कहीं मिल गई तो भोजन बनायेगा। नहीं मिली तो ऐसे ही चलेगा।
ढाबे में नहीं खाते? मैने पूछा। पर दो बार पूछने पर भी वह लकड़ी की बात करता रहा। शायद वह ऊंचा सुनता था। मैने जोर से कह कर बात करने की कोशिश की, पर मेरी भोजन कराने की पेशकश पर उसने कोई उत्तर नहीं दिया।
मैने तीस रुपये उसे दिये। वह उसने अपने बैग में रख लिये। फिर कोई जप बुदबुदाते चलता रहा। मुझसे बातचीत करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। बार बार पूछने पर लगा कि वह कह रहा है – उसका गांव बनारस के आगे है। शायद मतारी (?)। नाम बताया संतोष।
वास्तव में वह संतोषी जीव लगा। अन्यथा मेरे भोजन आदि के प्रस्ताव पर वह रुचि दिखाता। भोजन की बात पर यूं जताया कि जैसे वह उसकी कोई बड़ी प्राथमिकता न हो।
मथुरा से साढ़े पांच महीने में यहां पंहुचा है। मेरे त्वरित गणना की। नित्य करीब पांच किलोमीटर चलता होगा। अगर बीच में कुछ दिन किसी आश्रम या डेरा पर गुजारता भी होगा तो दस किलोमीटर ही रोज चलता होगा!
मंथर गति से चलते संतोष के पास जाने कितने अनुभव होंगे! साढ़े पांच महीने में पूरा मानसून सीजन रहा होगा। जाने कैसे गुजारा होगा? बारिश में तो भोजन बनाना भी कठिन होता होगा? मथुरा में किस आश्रम में रहा होगा? इतने सारे सवाल मेरे मन में उठे। पर वह बातचीत की बजाय सिर झुका कुछ बुदबुदाता – जप करता नजर आया।
मेरे पास अपनी साइकिल तेज कर उससे आगे बढ़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। आगे वह कभी मिलेगा नहीं। पर उसकी याद बनी रहेगी! इंटरनेट और हाईवे के इस युग में, साधन विपन्न तरीके से जीवन जीना और यात्रा करना होता है; वह भी इतनी वृद्धावस्था में – अजीब लगा मुझे।

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शायद संतोष की इसी अवस्था को मोक्ष कहा गया हो। यहाँ अगर 2 मिनट को इंटरनेट बंद हो जाये तो सांस रुक जाती है।
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जी, बहुत सही कहा आपने!
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