मेरे घर में तीन चार कौव्वे रहते हैं। एक लंगड़ा कौआ और उसका जोड़ीदार तो तीन चार साल रहे। अब वह दिखता नहीं। शायद उम्र पूरी हो गई हो। पर उनका स्थान दूसरों ने ले लिया है।
सवेरे पोर्टिको में चाय पीते हुये कौओं को रोटी-नमकीन खिलाना और उनकी बुद्धिमत्ता का अवलोकन करना हमारा नियमित कार्य है। पत्नीजी और मैं इस अनुष्ठान को बड़ी गम्भीरता से लेते हैं।
कई सालों से हम देख रहे हैं कि सितम्बर – अक्तूबर में अन्य पक्षियों की तुलना में कौओं की संख्या बहुत बढ़ जाती है। तीन चार से बढ़ कर वे डेढ़ दो दर्जन हो जाते हैं। उनके लिये ज्यादा रोटियां भी बनवानी पड़ती हैं और नमकीन की खपत भी ज्यादा हो जाती है।
इसी मौसम में श्राद्धपक्ष होता है। हमारी हिंदू धर्म आर्धारित धारणा है कि पितर कौओं के रूप में पिंड भोजन के लिये आते हैं। लगता था कि वैसा ही कुछ है। साल दर साल यह फिनॉमिना देखा। इस साल भी वैसा ही रहा। पितृपक्ष में करीब दो दर्जन या उससे ज्यादा कौए घरपरिसर में रहे। अब कुछ कम हो गये हैं, फिर भी सामान्य से ज्यादा उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं।
कोई जीव वैज्ञानिक कारण है? यह जानने के लिये मैने नेट पर सर्च किया। आजकल सर्च के लिये कई एआई एप्प उपलब्ध हैं। सो काफी जानकारी मिली।
पता चला कि कौओं का प्रजनन काल जून-जुलाई में होता है। सितम्बर तक उनके बच्चे किशोर हो जाते हैं। देखने में वे बड़े कौओं के आकार के ही लगते हैं; पर उनके माता पिता उन्हें साथ ले कर चारे की तलाश में झुंड के रूप में निकलते हैं। इस प्रकार दुगनी संख्या में कौए नजर आते हैं और हमें लगता है कि पितर आये हैं पिंड भोजन के लिये।
अक्तूबर तक ये किशोर कौए वयस्क हो जाते हैं और अपने अलग झुंड बनाते हैं। इनके नये झुंड नये इलाकों की तलाश में निकल लेते हैं। यह प्रक्रिया साल दर साल चलती है।
और हमें अपने पूर्वजों के आगमन का आभास होता रहता है।

