साइकिल पे आइये तब कुछ जानकारी मिल पायेगी!


यह चिठ्ठा चर्चा वाले अनूप सुकुल ने लिखा है। उनका आशय है कि कार में गुजरते से नहीं, साइकल के स्तर पर उतरने से ही आम जनों की बात पता चलेगी, समझ आयेगी। बाद में वे पोस्ट (दिहाड़ी मिलना कठिन है क्या इस समय?) पर टिप्पणी में पिन चुभोऊ अन्दाज में कहते हैं – “अब आप उत्तरों और अटकलों का विश्लेषण करके हमें बतायें कि असल माजरा क्या है?”

फुरसतिया तो अपने मौजत्व से ही बोल रहे थे, पर अन्य शायद ऐसा नहीं समझते। office_chair

उस दिन अभय तिवारी क्षुब्ध को कर कर मेल कर रहे थे कि "…आप को मैं पहले भी कह चुका हूँ कि आप अफ़सरी सुर में अच्छे नहीं लगते.. आप की हलचल आप का प्रबल पक्ष है.. इस अफ़सरी में आप उसे कमज़ोर करते हैं.. अफ़सरी को अपने दफ़तर तक सीमित रखिये.."

भैया केकरे ऊपर हम अफसरी झाड़ा? बताव तनी? जेकर प्रिय भोजन खिचड़ी हो, छुरी कांटे से जिसे घुटन होती हो; जे हमेशा ई सोचे कि आदर्श फलाने मुनि की तरह खलिहान से छिटका अन्न बीन कर काम चला लेवे क अहै; ऊ कइसे अफसरगंजी झाड़े।


सांसत है। जमे जमाये इण्टेलेक्चुअल गोल को किसी मुद्दे पर असहमति दिखाओ तो वे कमजोर नस दबाते हैं – अफसरी की नस। यह नहीं जानते कि घोर नैराश्य और भाग्य के थपेड़ों  से वह नस सुन्न हो चुकी है। कितना भी न्यूरोबियान इन्जेक्शन कोंचवा दो, उसमें अफसरत्व आ ही नहीं सकता।

दफ्तर में यह हाल है कि हमारे कमरे में लोग निधड़क चले आते हैं। ऐसे सलाह देते हैं जैसे मार्केट में आलू-प्याज खरीद के गुर बता रहे हों। कभी किसी पर गुर्राने का अभिनय भी कर लिया तो अगली बार वह लाई-लाचीदाना-सेब की कतरन वाले पैकेट के साथ आयेगा – "अपने चाचा द्वारा लाया गया वैष्णव देवी का प्रसाद" देने का यत्न करेगा। तब हम दोनो हाथ जोड़ कर प्रसाद लेंगे पूरी श्रद्धा से। और अफसरी हवा हो जायेगी।trash

अफसर माने अपने को डेमी-गॉड और अन्य को प्रजा समझने वाला। वह जो प्रबन्धन नहीं करना जानता, मात्र एडमिनिस्ट्रेशन करता है। वह, जिसका कहा (अधकचरी जानकारी और अधकचरी विज्ञता के बावजूद) ब्रह्म वाक्य है। यह तो मैने नाटक में भी करने का प्रयास नहीं किया। मित्रों, अगर मैं वास्तव में अफसर होता तो नियमित चिठेरा बन ही न पाता।

हां यह सीख गया हूं – चलती कार से ली फोटो ठेलना उचित नहीं है। पर क्या करें – सारे विचार घर-दफ्तर की कम्यूटिंग में ही आते हैं। Sad


(अभय के साथ पुराना झगड़ा है। मैं ईश्वर कृपा और संसाधनों की असीम प्रचुरता (Law of abundance) में यकीन करता हूं; और अभय के अनुसार मेरा अनुभव व सूचना संकलन बहुत संकुचित है। यह झगड़ा ब्लॉगिंग की शुरुआत में ही हो गया था। खैर, इण्टेलेक्चुअल सुपीरियारिटी शो-ऑफ का मसला एक तरफ; अभय बहुत सज्जन व्यक्ति हैं।)


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

33 thoughts on “साइकिल पे आइये तब कुछ जानकारी मिल पायेगी!

  1. इस मौजूं मैच का मैच पोइंट अनूप जी के पाले में जाता है स्कोर हो गया ज्ञान जी 4 अनूप जी 8 मैच जारी रहे…।:)ज्ञान जी जोर लगाइए कुछ मौज हो जाए यूँ हाफ़ने से काम नहीं चलेगा

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  2. हम जब तक कुछ कहने आते हैं, कुछ कहने के लिये बचता ही नहीं। खैर .. लेट लतीफों के लिये यही सजा है।

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  3. ज्ञान दा, आप मानें या न मानें, अफसर तो हैं ही:) जो बात दिहाड़ी मजदूरों से दस मिनट बात कर पता की जा सकती थी, उसकी पड़ताल में आपने सारे ब्‍लॉगरों को लगा दिया:) अफसर यही तो करते हैं। जो बात नंगी आंखों से नजर आती है, उसमें भी जांच कमेटी बैठा देते हैं :)

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  4. अफसरी न तो जीवन शैली होती है न ही व्‍यवहार । अफसरी तो ‘मिजाज’ होती है । कई ‘चतुर्थ वर्ग कर्मचारी’ अफसरी करते मिलते हैं तो कई ‘अफसर’, चतर्थ वर्ग कमर्कचारी की तरह । जिसे जो समझना हो, समझने दीजिए । आप तो लिखते रहिए । हां,बिवाई फटना अनुभव करने के बाद पीडा व्‍यक्‍त करेंगे तो वह बिना शब्‍दों के भी हम तक पहुचेंगी ।

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  5. अरे ज्ञान भाई, आप तो सेन्टी हो गए.. चलिए हम खुद ही अपनी बात की मज़म्मत-मलामत, आलोचना-निन्दा आदि सब कर देते हैं.. किया गया माना जाय!

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