कितने सारे लोग कविता ठेलते हैं।
ब्लॉग के सफे पर सरका देते हैं
असम्बद्ध पंक्तियां।
मेरा भी मन होता है;
जमा दूं पंक्तियां – वैसे ही
जैसे जमाती हैं मेरी पत्नी दही।
जामन के रूप में ले कर प्रियंकर जी के ब्लॉग से कुछ शब्द
और अपने कुछ असंबद्ध शब्द/वाक्य का दूध।
क्या ऐसे ही लिखते हैं लोग कविता?
और कहते हैं यह रिक्शेवाले के लिये नहीं लिखी हैं।
मेरा लिखा भी रिक्शा-ठेलावाला नहीं पढ़ता;
पर रिक्शे-ठेले वाला पढ़ कर तारीफ में कुछ कह दे
तो खुशी होगी बेइन्तहा।
काश कोई मित्र ही बना लें;
रिक्शेवाले की आईडी
और कर दें एक टिप्पणी!
इस पोस्ट के लिये फोटो तलाशने गोवेन्दपुरी तिराहे पर गया तो स्ट्रीट लाइट चली गयी। किसी रिक्शे वाले की फोटो न आ पायी मोबाइल कैमरे में। यह ठेले वाला अपनी पंचलैट जलाये था – सो आ गया कैमरे में। पास ही एक रिक्शे वाला तन्मयता से सुन रहा था –
"मैं रात भर न सोई रे/खम्भा पकड़ के रोई/बेइमान बालमा; अरे नादान बालमा…"।
मुझे लगा कि इतना मधुर गीत काश मैं लिख पाता!