ज्ञानजी,
यह मैं क्या पढ़ रहा हूँ?
जब कोई विषय नहीं सूझता था तो आप मक्खियों पर, आलू पर और टिड्डे पर लिखते थे। चलो आज और कोई अच्छा विषय न मिलने पर मुझ पर एक और लेख लिख दिया। विनम्रता से अपना स्थान इन नाचीजों के बीच ले लेता हूँ !
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चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं। मज़ाक मुझे बहुत पसन्द है (और जब और लोग मेरे साथ मज़ाक नहीं करते, तो स्वयं कर लेता हूँ!)
मुझे आपने बहुत "लिफ़्ट" दे दिया। दिनेशरायजी और अनिल पुसाडकरजी ठीक कहते हैं। मैं अकेला नहीं हूँ। और भी लोग हैं जो आपके ब्लॉग नियमित रूप से पढ़ते हैं। यदा कदा उनके बारे में भी कुछ लिखिए (तसवीर के साथ)। औरों के बारे में जानने के लिए उत्सुक हूँ। अवश्य वे मुझसे ज्यादा सुन्दर दिखते होंगे। समीरजी से शुरुआत की जाए। देखने में पहलवाल लगते हैं और लिखने में भी पहलवान से कम नहीं)।
अच्छे ब्लॉग तो बहुत सारे लिखे जा रहे हैं। हर एक को पढ़ना हमारे लिए असंभव है। फ़िर भी, आपका ब्लॉग मैं नियमित रूप से पढ़ता हूँ। इसके कारण हैं:
… "कुछ और विश्वनाथ, और आप मानो तर गये" से।
१) एक तरह का भाइचारा। हम दोनों बिट्स पिलानी के छात्र रहे हैं|
२) उम्र में ज्यादा अन्तर नहीं। उम्र में आपसे बडा हूं लेकिन सोच में कभी कभी आप हम से बडे नजर आते हैं।
३)आप विषय विशेषज्ञ नहीं हैं, आपके लेखों पर टिप्पणी करना मेरे लिए आसान है; और ज्यादा सोचना भी नहीं पढ़ता। तात्कालिक टिप्पणी सहजता से कर पाता हूँ। ("इम्प्रोम्प्टु" और "स्पॉन्टेनियस" कहना चाहता था पर ऐन वक्त पर हिन्दी के उपयुक्त शब्द मिल गए!)
४)आप नियमित रूप से लिखते हैं। जब कभी यहाँ पधारता हूँ कुछ न कुछ नया पढ़ने को मिलता है और विषय हमेशा "सस्पेन्स" में रहता है।
५) आप कोई बडे साहित्यकार नहीं हैं जो हम आम लोगों के मन मे "कॉम्प्लेक्स" पैदा करते हैं। जब कोई बहुत ही ऊँचे दर्जे का लेख पढ़ता हूँ तो डर लगने लगता है। क्या हम जैसे साधारण लोग इन लेखों पर टिप्प्णी करने की जुर्रत कर सकते हैं?
६)आपको भी वही बीमारी है जो मुझे है, और यह की भाषा की शुद्धता पर आवश्यकता से अधिक जोर नहीं दिया जाता है। आप से सहमत हूँ कि ब्लॉग्गरी कोई साहित्य का मंच नहीं है। यहाँ हम पांडित्य प्रदर्शन करने नहीं आते। आपका यहाँ-वहाँ अंग्रेज़ी के शब्दों का "इम्प्रोवाइसेशन" हमें बहुत भाता है चाहे अनूप शुक्लाजी और दिनेशरायजी को यह पसन्द न हो। यहाँ गप शप का माहौल रहता है जो मुझे आकर्षित करता है।
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समीरजी, आपका ब्लॉग भी नियमित रूप से पढ़ता हूँ। ज्ञानजी का ब्लॉग तो सुबह सुबह कॉफ़ी के साथ "जल्दी जल्दी" पढ़ता हूँ लेकिन आपके ब्लॉग का सब्सक्राइबर हूँ। ई मेल डिब्बे में नियमित रूप से आपके लेख पहुँच जाते हैं और इत्मीनान से पढ़ता हूँ, और आनन्द उठाता हूँ।
बस जब टिप्पणी करने की सोचता हूँ तो देखता हूँ इतने सारे लोग टिप्पणी कर चुके हैं अब तक। एक और टिप्पणी का बोझ क्यों आप पर लादूँ? वैसे कहने के लिए कुछ खास होता नहीं है। सोचता हूं – छोडो इस बार; अगली बार टिप्पणी करेंगे। यह "अगली बार" बार बार आता है और चला जाता है।
ब्लॉग जगत में और भी मित्र हैं लेकिन मैंने देखा है के वे नियमित रूप से लिखते नहीं हैं और उनके यहाँ पधारने पर कई बार वही पुराना पोस्ट नजर आता है ("अनिताजी, are you listening?")
कई और ब्लॉग हैं (जैसे रवि रतलामीजी, अनूपजी और शास्त्रीजी के ब्लॉग) जहाँ मुझे रोज पधारने के लिए समय नहीं मिलता लेकिन उनके यहाँ सप्ताह में एक या दो बार जाता हूँ और एक साथ सभी लेखों को पढ़ता हूँ। मुसीबत यह है कि यह नहीं तय कर पाता कि किस लेख पर टिप्प्णी करूँ और यदि कर भी दिया तो क्या इतने दिनों के बाद टिप्पणी में दम रहेगा? मामला तब तक ठंडा हो चुका होता है।
आपके यहाँ कई नामी ब्लॉग्गरों के नामों से परिचित हुआ हूँ। मन करता है कि किसी का ब्लॉग न छोड़कर सब को पढ़ूँ लेकिन यह कहने की आवश्यकता नहीं की यह सरासर असंभव है। फ़िर भी कभी कभी समय मिलने पर यहाँ वहाँ झाँकने का मजा उठाता हूँ लेकिन जानबूझकर टिप्पणी करने की प्रवृत्ति पर रोक लगा लेता हूँ। ब्लॉग नशीली चीज है। एक बार किसी नए ब्लॉग्गर से सम्बन्ध जोड़ लिया तो फ़िर उसके साथ इन्साफ़ भी करना होगा। उसका भी ब्लॉग नियमित रूप से पढ़ना पढ़ेगा और टिप्पणी करके उसे प्रोत्साहित करना होगा। क्या इस जिम्मेदारी के लिए समय हैं मेरे पास? यह सोचकर, कई अन्य चिट्ठाकाकारों के लेखों का कभी कभी आनन्द उठाता हूँ पर जान बूझकर टिप्पणी नहीं करता।
दूर से उन सबको मेरा गुमनाम सलाम!
— गोपालकृष्ण विश्वनाथ

विश्वनाथजी से एक बार मैं भी अनुरोध करता हुँ कि वे अब हिन्दी में चिट्ठे लिखना शुरु कर ही दें।@ज्ञान भाई साहब यह सबसे लम्बी टिप्पणी सृजन सम्मान के नाम से किसी ब्लॉग पर पोस्ट हुई थी, मुझे अभी वह लिंक याद नहीं आ रहा। वह टिप्पणी चिट्ठे की साईज से कम से कम बीस गुनी बड़ी थी। शायद कभी लिंक याद आ गया तो जरूर बताऊंगा।
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जब दो ज्ञानी, प्रबुद्ध लोग मिल जाएँ तो ऐसी टिपण्णी स्वाभाविक ही है… टिपण्णी पढने के बाद चर्चा ही तो है, और यह तभी होती है जब पोस्ट कुछ सोचने को प्रेरित (मजबूर) करे. जो आपके पोस्ट में अक्सर होता है और विश्वनाथजी के बारे में तो आप बता ही चुके हैं. कुछ कहने की जरुरत ही नहीं.
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……और यदि कर भी दिया तो क्या इतने दिनों के बाद टिप्पणी में दम रहेगा? मामला तब तक ठंडा हो चुका होता है। इस रोग से पीडित मैं भी हूं, आदरणीय आपके अतिथि पोस्टों का इंतजार रहेगा ।
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विश्वनाथजी और आप दोनों से तथा आप दोनों जैसे समस्त ब्लागरों से सानुरोध निवेदन है कि कृपया लाख असुविधाएं झेलकर, कष्ट उठाकर और समय निकाल कर लिखते रहिएगा ताकि ‘ब्लाग’ को साहित्य होने से बचाया जा सके ।भाई लोग इसे साहित्य बनाने पर तुले हुए हैं । यदि यह साहित्य बन गया तो कई लोग तो बेचारे गए काम से ।आप दोनों पर हमें गर्व हैं ।
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आप सब की टिपण्णिय पढ कर मुझे बहुत मजा आया, ओर अन्त मे विश्वनाथ जी की टिपण्णी पढ कर आंनद भी आया ओर लालच भी आया चलो कभी बेंगलोर गये तो चाय तो मुफ़त मे मिलेगी, ग्यान जी आप का धन्यवाद
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मित्रों,दिल भर आया आप सब की प्रतिक्रियाएं पढ़कर।मेरी पूरी कोशिश रहेगी ज्यादा से ज्यादा चिट्ठे पढ़ने की।बारी बारी से आप सब के यहाँ पधारने की योजना है और टिप्प्णी भी करूँगा।पर ज्ञानजी के ब्लॉग तो मेरा “पर्मानेन्ट अड्डा” बना रहेगा।यदा कदा अतिथि पोस्ट भेजने की भी योजना है।यदि आपमें से किसी का कभी बंगळूरु आना हुआ तो ज्ञानजी से पूछकर मेरा मोबाईल फ़ोन नंबर और पता ले लीजिए और सीधे संपर्क कीजिए। आप लोगों से मिलना मेरे लिए खुशी की बात होगी।शुभकामानएं
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