अण्टशण्टात्मक बनाम सुबुक सुबुकवादी पोस्टें


Antshant हमें नजर आता है आलू-टमाटर-मूंगफली। जब पर्याप्त अण्टशण्टात्मक हो जाता है तो एक आध विक्तोर फ्रेंकल या पीटर ड्रकर ठेल देते रहे हैं। जिससे तीन में भी गिनती रहे और तेरह में भी। लिहाजा पाठक अपने टोज़ पर (on their toes) रहते हैं – कन्फ्यूजनात्मक मोड में कि यह अफसर लण्ठ है या इण्टेलेक्चुअल?! फुरसतिया वादी और लुक्की लेसते हैं कि यह मनई बड़ा घाघ टाइप है।

जब कुछ नार्मल-नार्मल सा होने लगता है तब जोनाथन लिविंग्स्टन बकरी आ जाती है या विशुद्ध भूतकाल की चीज सोंइस। निश्चय ही कई पाठक भिन्ना जाते हैं। बेनामी कमेण्ट मना कर रखा है; सो एक दन्न से ब्लॉगर आई-डी बना कर हमें आस्था चैनल चलाने को प्रेरित करते हैं – सब मिथ्या है। यह ब्लॉगिंग तो सुपर मिथ्या है। वैसे भी पण्डित ज्ञानदत्त तुम्हारी ट्यूब खाली हो गयी है। ब्लॉग करो बन्द। घर जाओ। कुछ काम का काम करो। फुल-स्टॉप।

Sadहम तो ठेलमठेल ब्लॉगर हैं मित्र; पर बड़े ध्यान से देख रहे हैं; एक चीज जो हिन्दी ब्लॉगजगत में सतत बिक रही है। वह है सुबुक सुबुकवादी साहित्त (साहित्य)। गरीबी के सेण्टीमेण्ट पर ठेलो। अगली लाइन में भले मार्लबरो smokingसुलगा लो। अपनी अभिजात्यता बरकरार रखते हुये उच्च-मध्यवर्ग की उच्चता का कैजुअल जिक्र करो और चार्दोनी या बर्गण्डीDrunk– क्या पीते हो; ठसक से बता दो। पर काम करने वाली बाई के कैंसर से पीडित पति का विस्तृत विवरण दे कर पढ़ने वाले के आंसू Crying 8और टिप्पणियांenvelope जरूर झड़वालो! करुणा की गंगा-यमुना-सरस्वती बह रही हैं, पर ये गरीब हैं जो अभावग्रस्त और अभिशप्त ही बने रहना चाहते हैं। उनकी मर्जी!

ज्यादा दिमाग पर जोर न देने का मन हो तो गुलशन नन्दा और कुशवाहा कान्त की आत्मा का आवाहन कर लो! “झील के उस पार” छाप लेखन तो बहुत ही “माई डियर” पोस्टों की वेराइटी में आता है। मसाला ठेलो! सतत ठेलो। और ये गारण्टी है कि इस तरह की ट्यूब कभी खाली न होगी। हर पीढ़ी का हर बन्दा/बन्दी उम्र के एक पड़ाव पर झील के उस पार जाना चाहता है। कौन पंहुचायेगा?!

मन हो रहा है कि “भीगी पलकें” नाम से एक नई आई.ड़ी. से नया ब्लॉग बना लूं। और “देवदास” पेन नेम से नये स्टाइल से ठेलना प्रारम्भ करूं। वैसे इस मन की परमानेंसी पर ज्यादा यकीन न करें। मैं भी नहीं करता!


आलोक पुराणिक जी ने मेरी उम्र जबरी तिरपन से बढ़ा कर अठ्ठावन कर दी है। कहीं सरकारी रिकार्ड में हेर फेर न करवा रहे हों! बड़े रसूख वाले आदमी हैं।
पर किसी महिला की इस तरह उम्र बढ़ा कर देखें! smile_regular 
—–
ठाकुर विवेक सिंह लिखते हैं कि मेरी पोस्ट पर “आधी बातें समझ से परे होती हैं”। फिक्र न करें। लिखने के बाद हमारी भी समझ में कम आती हैं। बिल्कुल हमारे एक भूतपूर्व अधिकारी की तरह – जो अपनी हैण्डराइटिंग से खुद जूझते थे समझने को!

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

31 thoughts on “अण्टशण्टात्मक बनाम सुबुक सुबुकवादी पोस्टें

  1. ठीक है ,इसका भी एक दौर है और चलेगा भी . और ताऊ जी ने सही फरमाया है कि – . अन्ट्शन्टात्मक लेखन में बड़ा दम लगता है ! क्योंकि कापी पेस्ट करने के लिए मैटर नही मिलता !

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  2. ‘वह है सुबुक सुबुकवादी साहित्त (साहित्य)। गरीबी के सेण्टीमेण्ट पर ठेलो। अगली लाइन में भले ——-‘Sir, aap ka sense of humour bhi jabardast hai.

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  3. सुबक सुबक से मुझे भी चिढ है पर क्या करुँ मुख्य धारा तो यही है और भावनात्मक शोषण को लोग उद्यत है और यहाँ मासूम लोग शोषित होने को भी तैयार -यह हमारी दुनिया नही है ज्ञान जी .आप अपने महल में महफूज हैं हमारे सरीखे कद्रदान तो आते ही रहेंगे -भले ही आवाभगत में आप चूक भी जांय !

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  4. जब पर्याप्त अण्टशण्टत्मक हो जाता है तो एक आध विक्तोर फ्रेंकल या पीटर ड्रकर ठेल देते रहे हैं। हम भी आपके पद चिह्नों पर चल रहे हैं ! अन्ट्शन्टात्मक लेखन में बड़ा दम लगता है ! क्योंकि कापी पेस्ट करने के लिए मैटर नही मिलता ! “वह है सुबुक सुबुकवादी साहित्त (साहित्य)। गरीबी के सेण्टीमेण्ट पर ठेलो। इस पर कापी पेस्ट मैटर खूब है इसलिए सुविधा है और दाद भी अच्छी बटोरी जा सकने के चांस है ! आलोक पुराणिक जी ने मेरी उम्र जबरी तिरपन से बढ़ा कर अठ्ठावन कर दी है। कहीं सरकारी रिकार्ड में हेर फेर न करवा रहे हों! बड़े रसूख वाले आदमी हैं ! ये बताना जरुरी था क्या ? खामखा आप ख़ुद जवान हो गए और हमको बुड्ढा कह दिया ! आपकी बुढ्ढौउ कहने की इच्छा थी तो यूँ ही कह लेते ! हम क्या मना कर रहे थे आपको ? :)

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  5. सत्य वचन महाराज,थोडा कुछ भूल गये आप;संस्कृति की दुहाई, महानगरों की संस्कृति, मेरा बचपन का गाँव और इस निर्दयी शहर की जिन्दगी, युवाओं के भटकते कदम, आदि टाईटल ब्लाग हिट करने की गारन्टी है । लिव इन रिलेशन पर अधिकार लेकिन बिना अनुभव के लिखने वाले भी थोडे हिट पा गये लेकिन उससे भी लोग अब बोर हो गये हैं :-)भले ही इसे कोई हमारी निगेटिव मानसिकता कह ले लेकिन ब्लागिंग के Gaussian Distribution की पीक अभी भी सोच रही है कि केवल ब्लाग लिखने से गन्भीर विमर्श होगा अथवा एक क्रान्ति आयेगी । असल में अगर कोई क्रान्ति आयी भी तो वो Gaussian distribution की टेल से आयेगी । मुझे ब्लाग पढने से नये विचार मिलते हैं लेकिन क्रान्ति की संभावना कम है । ३-४ बार जब कुछ मुद्दों ने मन की शान्ति हिलायी तो पोस्ट बनायी, उसके बाद छापने से पहले पढा तो लगा कि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं लिखा है जिसे हिन्दी ब्लाग पढने वाले न जानते हों, आपकी भाषा में भक्क से रियलाईजेशन हुआ तो पोस्ट ड्राफ़्ट में ही रखी रहने दी ।आपके ब्लाग का भी चर्चा तभी तक है जब आप इन विविधता वाली ३-४ पैराग्राफ़ वाली पोस्ट लिखें । यही आपके ब्लाग की USP (Unique selling proposition) है । जरा लिख कर देखिये संस्कृति विमर्श वाली पोस्ट, स्टैट काउंटर अमेरिका का स्टाक मार्केट जैसा दिख सकता है :-)सुबुक सुबुक वाली पोस्ट पढना और टिपियाना एक तरह का गिल्टी प्लेजर है । उसके बारे में फ़िर कभी, वैसे भी जोश जोश में ज्यादा लिख गये हैं, भूल चूक लेनी देनी :-)

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  6. आपके इस ब्लॉग पर पहली बार आया हूँ- बड़ी मानसिक हलचल हो गयी .थोडा वक्त बिता लूँगा तो शायद धीरता आए .

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  7. क्या सर, रात भर जागने के बाद जब सोने जा रहा हूँ तो नींद ही भाग खड़ी हुयी है आपकी पोस्ट को डिकोड करते हुए।ठहाका लगाने का मन कर रहा है, पर डर रहा हूँ कि दिन में पड़ोसी, मेरी ओर देखते हुए, अपनी तर्जनी, अपने ही सिर के पास ले जाकर क्लॉकवाइस घुमाना न शुरू कर दें:-)

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