ब्लॉग पर साहित्य की चौधराहट के विरुद्ध मैने कई बार लिखा है। भाषा की क्लिष्टता और शब्दों की प्यूरिटी के लोगों के आग्रह को लेकर भी मुझे आपत्ति रही है। हिन्दी से अर्से से विलग रहा आदमी अगर हिन्दी-अंग्रेजी जोड़ तोड़ कर ब्लॉग पोस्ट बनाता है (जो मैने बहुत किया है – कर रहा हूं) तो मैं उसका समर्थन करता हूं। कमसे कम वह व्यक्ति हिन्दी को नेट पर ला तो रहा है।
पर उस दिन शिवकुमार मिश्र ने यह बताया कि "पटियाला पैग लगाकर मैं तो टल्ली हो गई" या "ऐ गनपत चल दारू ला” जैसी भाषा के गीत फिल्म में स्वीकार्य हो गये हैं तो मुझे बहुत विचित्र लगा। थाली की बजाय केले के पत्ते पर परोसा भोजन तो एक अलग प्रकार का सुकून देता है। पर कचरे के ढ़ेर से उठा कर खाना तो राक्षसी कृत्य लगता है। घोर तामसिक।
और ऐसा नहीं कि इस से पंजाबी लोग प्रसन्न हों। आप उस पोस्ट पर राज भाटिया जी की टिप्पणी देखें –
“मखना ना जा…ना जा……" आगे शायद ये कह देतीं कि… "पटियाला पैग लगाकर मैं तो टल्ली हो गई."
मिश्र जी, पंजाबी भी तंग हो गये है इन गीतो से शब्द भी गलत लगाते है, ओर लोक गीतो का तो सत्यनाश कर दिया, जो गीत विवाह शादियों मै गाये जाते थे, उन्हे तोड मरोड़ कर इन फ़िल्म वालो ने तलाक के गीत बना दिया।
साहित्यकारों की अभिजात्यता के सामने हिन्दी ब्लॉगर्स की च**टोली सटाने में एक खुरदरी गुदगुदी का अहसास होता है मुझे। पर इस प्रकार की “टल्ली” भाषा, जो फिल्म गीतों या संवाद का हिस्सा हो गयी है, मुझे तो स्केबीज का रोग लगती है। झड़ते हुये बाल और अनवरत होने वाली खुजली का रोग। क्या समाज रुग्ण होता चला जा रहा है?
उस दिन “नया ज्ञानोदय” में साहित्यकार के बांके पन से चिढ़ कर मैने सोचा था कि इस पत्रिका पर अब पैसे बरबाद नहीं करूंगा। पर शिव की पोस्ट पढ़ने पर लगता है कि “नया ज्ञानोदय” तो फिर भी खरीद लूंगा, पर आज की फिल्म या फिल्म संगीत पर एक चवन्नी जाया नहीं करूंगा!
मेरी पत्नी जी कहती हैं कि मैं इन शब्दों/गीतों पर सन्दर्भ से हट कर लिख रहा हूं। "ऐ गनपत चल दारू ला” एक फंतासी है जवान लोगों की जो अमीरी का ख्वाब देखते हैं। और इस गायन (?) से फंतासी सजीव हो उठती है।
पर अमीरी की यह फन्तासी यह भी तो हो सकती है – “गनपत, मेरी किताबों की धूल झाड़ देना और मेरा लैपटॉप गाड़ी में रख देना”!
या फिर – “यदि होता किन्नर नरेश मैं राजमहल में रहता। सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।” जैसी कविता जन्म लेती फंतासी में।

बहुत कुछ कहा जा चुका हैबहुत हद तक मैं अलोक पुराणिक जी की बात का समर्थन करती हूँ .कहते हैं फिल्में समाज का दर्पण होती हैं.बस वही बात है.भाषा ,संस्कार…..कौन कहाँ अछूता रह जाता है?
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बहुधा सिनेकार,लेखक,कवि,साहित्यकार,पत्रकारादि आलोचनाओं के प्रत्युत्तर में यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि वह वही दिखा या लिखपढ़ रहे हैं जो समाज में घटित हो रहा है।ऎसा उत्तर देनें वालों का क्या यह सामाजिक दायित्व नहीं बनता कि वे समाज को उन्नत बनानें में भी अपनीं भूमिका का यथोचित निर्वहन करें?सिनेकारों,साहित्यकारों,कवियों,लेखकों एवं पत्रकारों की एक लम्बी सूची है जिन्होंनें हिन्दी दर्शकों,श्रोताओं,पाठकों और भाषा-भाषियों को न केवल संस्कारित किया है वरन् आज हिन्दी भाषा में जो वैज्ञानिकता,अनुशासन एवं रससिक्त सौष्ठव बचा हुआ है वह उन्हीं की देन है।उन मनस्वियों की धरोहर को उन्नत न करें तो कम से कम अपनें कृत्यों से उसे धूमिल तो न करें।नदी कितनीं ही पवित्र क्यों न हो गिरनें वाले नालों के प्रदूषण को एक सीमा तक ही शुद्ध कर सकती है।दुष्परिणामतः सरस्वती लुप्त होगयी,गंगा और यमुना अपनीं अजस्रता खो ड़बड़बायी आँखों से आपकी ओर ताक रही हैं,कि क्या सवा सौ करोड़ पुत्र पुत्रियों में एक भी ‘भगीरथ’ इस अभागी नें उत्पन्न नहीं किया?संस्कृत की जायी पच्चीस से अधिक भाषाओं और बीस हजार से अधिक बोलियों वाले इस परिवार का पोषण मृतप्राय माँ की लाचारी के चलते क्या बड़ी बहन की सी कुशलता से हिन्दी नहीं कर पा रही है?सौतन अंग्रेजी की मनुहार में जो लगे हैं उनकी तो छोड़ दें कितु जो हिन्दी का दिया खा-कमा रहे हैं वह सौन्दर्य प्रसाधन न जुटायें तो कम से कम उसे तन ढ़कनें के वस्त्र तो दे ही सकते है।अभिधा,लक्षणा,व्यंजना तो बाद की बात है कम से कम वर्तनी की शुद्धता,व्याकरण और वाक्य विन्यास तो ढंग से किया ही जा सकता है।भाषा यदि बहती नदी की तरह नीचे की ओर जाती है तो इसलिए कि वह सागर की गहराई में मिलकर पुनः उर्जस्विता प्राप्त कर मेघ बन अपनीं सन्ततियों पर बरस उन्हें ऊर्जा से अन्वित कर सके और धरित्री को शस्य श्यामल बना सके।वह नीचे अपना कोई पापकर्म छुपानें नहीं कुपुत्रों के दूष्कृत्यों से दूषित अपनें तन मन और आभरण को शुद्ध और निर्मल करनें जाती है वैसे ही जैसे शिशु माँ की गोद मे जब मल मूत्र विसर्जित करता है तो शिशु को पुनः स्वच्छ करनें के साथ साथ माँ अपनें वस्त्र भी स्वच्छ करती है।उसकी इस बहिरंग स्वच्छता के संस्कार मनोमस्तिषक में प्रविष्ट हो अन्तश्चेतना के माध्यम से वाणी द्वारा जब प्रस्तुत होते हैं तभी हम सभ्य कहलाते हैं।वैश्वीकरण और तदजन्य उन्न्त तकनीकी उपकरणों एवं संसाधनों के सम्प्रयोग के चलते हम भारतेतर भाषाओं और उनके उत्पाद के सम्पर्क में आते हैं किन्तु यह सब अन्ततः साधन ही हैं साध्य नहीं।क्योंकि अन्ततः मानवीय गुण और सरोकर ही सर्वोपरि रहेंगे।अतः कमप्यूटर को संगणक कहनें के स्थान पर कमप्यूटर ही कहना लिखना चाहिये।ऎसा न करके हम उन वैज्ञानिकों,अनुसंधित्सुओं और देशों तथा भविष्य में लिखे जानें वाले इतिहास के प्रति अन्याय कर रहे होंगे जो अंग्रेजी,फ्रेंच,जर्मन आदि बोलते हैं तथा जिन्होंने ऎसे आविष्कार किये हैं।निर्विवाद रूप से उन्हें ही यह श्रेय या अपयश मिलना चाहिये।यदि धर्म,दर्शन,संस्कृति,सभ्यता,भाषा और वैचारिक उद्दातता के लिए भारत का अतीत और किसी सीमा तक वर्तमान यश का भागी है तो वैसा ही श्रेय और श्लाघा हमें उनकों भी देनीं चाहिये जो वर्तमान के नियन्ता बन प्रकट हुए हैं।ऎसा करते समय हमें किसी हीन भावना से ग्रसित होंने के स्थान पर प्रतिस्पर्धात्मक होंना चाहिये जिससे हम स्वयं उन से अधिक श्रेष्ठ एवं उपयोगी उत्पाद और व्यवस्था बना सकें जो न केवल सर्वजनहिताय हो वरन् अधिक मानवीय भी हो।
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मुझे छोटे समझ मे आने वाले शब्द अच्छे लगते है अनावश्यक विद्वता दिखानेके लिये लिखे गये मोते शब्दो से उकताई आती है !!लिखने के लिये जरुरी अगर किसी को विषय खोजना पडे तब समझीये कि सब नकली है इसके विपरित जब बातें दिल से निकले तो भाषा से पार और अधिक असरकारक होती है !! मुख्य चीज है लिखने कि उत्कंठा भाषा माध्यम है !!
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अब मेरे कहने के लिये तो कुछ बचा ही नही…. चलो आप सब से हम सहमत है.धन्यवाद
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इस लम्बी बहस में क्यों न हम अपनी भी टांग अडा दें? असल में भाषा अनेक स्तरों पर प्रयोग में आती है। जब हम कामवाली से बात करते हैं तो उसके स्तर पर और बच्चों से तो उनके स्तर पर जाकर बात करते हैं। उसी प्रकार जब साहित्य की बात करें तो स्तर को बनाए रखना हर रचनाकार का धर्म हो जाता है।
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मैं तो चला चाह * पीने। चाह * नहीं जानते ? तो कोई बात नहीं, तीसरी कसम देखिये, खुद समझ जायेंगे :) फिलहाल तो गा रहा हूँ……ए गनपत….. चल चाह * ला :)* चाह = चाय
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भाषा के बारे आलोक पुराणिक हमारी बात कह चुके।हिंमांशु की टिप्पणी इत्तफ़ाक रखता हूं। जो कुछ आप लिखना चाहते हैं और नहीं लिख पाते अभिजात्य के चलते तो उसके लिये रवींन्द्र कालिया का उपन्यास खुदा सही सलामत है पढ़िये। उसमें हजरी बी के जरिये रवीन्द्र कालिया जी ने गाली-गलौज के सहज तरीके सुझाये हैं। आप लिखते रहें लेकिन अपनी बता रहे हैं कि मुझे ये सितारे ** जड़ी भाषा ज्यादा अश्लील लगती है। जो दो अक्षर यहां से बिछड़े होंगे उनके दिल पर क्या बीत रही होगी। बताइये।
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फ़िल्म देखना पूरी तरह बंद न करें बल्कि आप भी हमारी तरह अच्छी (और फ्लॉप) फिल्में देखें – उदाहरण के लिए बावर्ची, आनंद, त्रिकाल, कोंडुरा, एक रुका हुआ फैसला, मैंने गांधी को नहीं मारा, हजारों ख्वाहिशें ऐसी, और “ओह माय गोड” [लिस्ट बहुत लम्बी है – जगह कम है]
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स्वाभाविक रूप से भाषा में परिवर्तन एक बात है और भाषा को भ्रष्ट करने का ‘उद्योग’ चलाना दूसरी बात । मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दी को योजनापर्वक भ्रष्ट करने का एक गुप्त उद्योग चल रहा है। जनसामान्य तो लकीर का फकीर होता है। (गतानुगतिको लोकः , न लोकः परमार्थिकः) वह परमार्थ (बेस्ट ऑप्सन) की तलाश करने का कष्ट नहीं उठाना चाहता। यद् यदाचरति श्रेष्ठ: तद् तदेव इत्तरो जनः स यद् प्रतमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ( जो-जो श्रेष्ठ पुरुष करता है, दूसरे लोग भी वैसा ही करते है। वह श्रेष्ठ जन जो प्रमाण करता है आम जन उसी के पीछे-पीछे चलते हैं। ) कोई गुप्त रहकर हिन्दी वालों को अपने पीछे-पीछे चला रहा है : भ्रष्ट-भाषा-प्रयोग का अनुवर्तन करा रहा है।
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लोगों को कचरा पसंद है तो इसपर क्या किया जा सकता है. भाषा हो या कपड़ा ! खैर ये लाइनेबचपन में खूब रटी थी:”यदि होता किन्नर नरेश मैं राजमहल में रहता। सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।”
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